शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

विद्यापति भगवती वंदना

जय जय भैरब असुर भयाउनी ,पशुपति भामिनी माया
सहज सुमति वर दिअ है गोसाउनि , अनुगति गत तूअ पाया

बासर रइनी शवासन शोभित ,चरण चन्द्र मणि चूडा
कतेक दैत्य मरि मुख मेलल, कतेक उगली कयल कूड़ा

साँवर बदन नयन अनुराज्जित , जल्द जोग फूल कोका
कट कट विकट ओठ पुट पांडरी, लिधुर फेन उठ फोका

घन घन घनन घुंघुरू कटि बाजए, हन हन कर तुअ काता
विद्यापति कवि तुअ पद सेवक , पुत्र बिसरू जनु माता

बुधवार, 3 फ़रवरी 2010

सम्बन्ध वध

बहुत उलझ गया है
यह रिश्ता
तो आओ सुलझा लें इसे
एक आसन तरीका अपना लें
सब कुछ भुला दें
और हो जाए दूर धीरे ....धीरे
स्लो पायजन की तरह
धीरे- धीरे मरने के लिए
फिर हर दिन एक कुल्हाडी की मार
सहन करनी होगी
तभी तो रिश्तों का वत वृक्ष
हर दिन
थोडा -थोडा कटेगा
गिरेगा और फिर ,
मर जाएगा
टूट जाएँगे रिश्ते
हरी पत्तियों से
डालियों से और उस पर बसने वाले बेनाम पंक्षियों से
एक रिश्तें से जुड़े
अनगिनत रिश्ते
पर क्या टूट पाएगा
रिश्ता जड़ों से ?
कैसे निकल पाएगा
स्नेह का बीज
जो दबा हुआ है कहीं गहराइयों में
बड़े स्वार्थी हैं हम
दर्द से डरते हैं ,घबराते हैं ,
दूर भी होते हैं तो धीरे -धीरे
एक और रिश्तें का सहारा धुंध (सर्च ) लेते हैं
एक रिश्ते को ख़तम करने से पहले
पर एस तरह थोडा -थोडा मरने से
तो बेहतर है
मर जाना एक बार में ,
पर उफ !यह आदमी
किश्तों में जीने की आदत
हो गई है इसे
अब तो सम्बन्ध और प्रेम भी
टुकड़ों में होते हैं
पर क्या इतना आसान है ;
दूर होना ?
किसी को भुलाना
वृक्ष की नामो निशान को मिटाना
हर दिन अन्दर कुछ टूटता है ,
और किरेंच चुभती रहती है
बड़ी देर तक
हम भुलावे में जीतें रहतें हैं ,
की भूल रहें हैं किसी को
और हो रहें दूर धीरे-धीरे
जब -जब गहराइयों में दबे
बीज को
मिलेगी हवा,मिट्टी पानी
और अनुकूल वातावरण
हरी कोपलें फिर से फूटेंगी ,
यादें फिर हो जाएगी ताजा
और आँखे हो जाएगी नम

घर-बाहर

औरतें
और अपने घरों सें;
निकल कर भी
करती हैं मेहनते ,
लड़ती हैं सुबह से शाम तक
या फिर कानाफूसी करती हैं बैठकर
चबूतरे पर शाम तक
मौसम के भीतर उठता है
वसंत ,
लेकिन घरों में कभी नहीं बदलता
मौसम ,
इनकी आँखों में ठहरते हैं ,
आंसू ज्यादा देर तक
और भींगता है आँचल का छोड़
ज्यादा देर तक
नहीं देख पाती ये मौसम कैसे बदलता है ,
केवल देख पाती हैं ये
बेटियों का बढ़ना
जंगल की घास की तरह ,
बरसात के बांस की तरह
बेटियां बढ़ रही हैं
बेटियां पढ़ रही हैं
औरतों की नजर मैं रहती हैं
पढ़ती हुई बेटियां
बढ़ती हुई बेटियां
बेटियां निकल रहीं हैं घरों से
उन्हें और बढ़ना है ,
क्योंकि घरों में तो मौसम
नहीं बदलता
सिर्फ बढ़ती है बेटियां
बेटियां जो बनती हैं _औरतें

स्त्री काया एक दुखता हुआ घाव है


स्वतंत्र वार्ता ,३१/१/२०१०

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