मंगलवार, 19 मार्च 2013

स्त्री लेखन और स्त्री की सामाजिक स्थिति


मैत्रेयी पुष्पाजी का साक्षात्कार
स्त्री के मानुषीकरण का लक्ष्य लेकर जो आवाजें हिंदी साहित्य में पूरे जोर के साथ उठी और उभरी हैं उनमें एक खास आवाज है- मैत्रेयी पुष्पा की। अपने पीएच.डी शोध कार्य के सिलसिले में विगत वर्ष मुझे मैत्रेयीजी के निवास स्थान नोयडा के महोगुनमार्फियस अपार्टमेंट में उनके साक्षात्कार का सुयोग मिला। वे इस बात से प्रसन्न थीं कि मैं हैदराबाद से उनसे मिलने आयी हूँ। यह जानकर उन्हें प्रसन्नता हुई कि मैंने उनके उपन्यास ’अल्मा कबूतरी’ एवं ’कस्तूरी कुंडल बसै’ पर एम.फिल. का शोधप्रबंध लिखा है। मैत्रेयीजी ने अपने आरंभिक जीवन तथा परिवार के बारे में बहुत सारी बातें बतायी। सरल, सहज और सादगी भरा व्यक्तित्व ऎसा लगा ही नहीं कि मैं इतने बड़े साहित्यकार से पहली बार मिल रही हूँ। हालॉकि मैं मन ही मन थोड़ी सी घबरायी हुई थी कि पता नहीं वह मुझ जैसी अदना सी शोधार्थी से बात करना पसंद करेंगी की नहीं। किंतु अपने आतिथ्य तथा स्नेह से ऎसा लगा मानो उन्होंने मुझे सर आँखो पर बिठा लिया। चाय की चुस्कियों के साथ साक्षात्कार का सिलसिला शुरू हुआ तथा मैंने अपने पूर्व निर्धारित प्रश्न उनके समक्ष रखे। वैसे तो यह साक्षात्कार हैदराबाद से प्रकाशित होनेवाली समाचार पत्र ’स्वतंत्र वार्ता’ तथा दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा खैरताबाद से प्रकाशित द्विभाषिक मासिक पत्रिका स्रवंति में प्रकाशित हो चुकी है। मेरे प्रश्न तथा मैत्रेयी पुष्पाजी के उत्तर यहाँ प्रस्तुत हैं।
अर्पणा: जब मैं विद्यालय मैं पढ़ती थी, तो साहित्य मैं स्त्री भावना जैसे कुछ प्रश्न हुआ करते थे (मैथिलीशरण गुप्त की नारी भावना, रामचरित मानस के नारी पात्र)। उसके बाद स्त्रीचेतना और स्त्रीवाद जैसे शब्द चलने लगे, फिर स्त्री विमर्श आया। इन सबमें क्या अंतर है और क्या संबंध है? कुछ ठीक-ठीक समझ में नहीं आता। आप इन सबको किस तरह देखती हैं?

मैत्रेयी पुष्पाजी: देखो तुमने जैसा पढ़ा है वैसे ही मैंने भी पढ़ा है। मैथिलीशरण गुप्त ने स्त्रियों के बारे में काफी अच्छे विचार रखे। उन्होनें काफी कुछ अच्छा स्त्रियों के बारे में लिखा। प्रेमचंद ने तो काफी हद तक स्त्रियों को मुक्ति दिलाने की कोशिश की। लेकिन ये तो पुरुषों के कलम से आया। औरत क्या चाहती है? सुभद्रा कुमारी चौहान को पता था, महादेवी वर्मा को पता था। लेकिन उन्होंने भी अपने लेखन को पुरुषों के कलम से ही लिखा। सुभद्रा कुमारी चौहान ने ’खुब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी’ में ’मर्द-मर्दानी’ शब्द का प्रयोग किया। महादेवी ने अपनी कविताओं में अपनी पीड़ा, दु:ख एवं तकलीफ को व्यक्त किया। जिसको उन्होंने संबोधित किया उसे उन्होंने रहस्यमय ही रहने दिया। कहानी की बात लें। हालांकि प्रेमचंद ने मुक्ति दिलाने की बहुत कोशिश की। तुम देखो ’मैला आँचल’ में रेणु ने भी दो टूक बातें कही-हालांकि वे मुक्ति के लेखक नहीं थे। ’मैला आँचल’ पर मैंने लिखा है ’मेरीगंज की औरतें’। तुम देखो ’मैला आँचल’ में मठ की संस्था ध्वस्त होती है, जात-पाँत की व्यवस्था धवस्त होती है। जो नियम बनाए पुरुषों ने बनाए औरतों ने नहीं बनाए। उनसे किसी ने नहीं पूछा कि वे क्या चाहती हैं? लेकिन औरत की आवाज को सबसे शक्तिशाली आवाज में कहा कृष्णा सोबती ने। चाहे वह ’जिन्दगीनामा’ हो या ’मित्रो मरजानी’। औरत जो चाहती थी उसे उसने दर्ज करना शुरु कर दिया। पुरुषों की कहानी भी तो बिना स्त्री के पूरी नहीं होती। ’गोदान’ में क्या है? ’त्याग्पत्र’ में क्या है? ’चित्रलेखा’ में क्या है? मुझसे पूछा गया कि मैंने इन उपन्यासों को क्यों ...? ठीक है ये जो लेखन आ रहा था, उसमें स्त्री चेतना या स्त्री भावना कैसे आया? मेरा मानना है कि स्त्री ने जब अपने बारे में सोचना शुरु किया, अपनी बात पुरुषों के बीच रखना शुरू किया और आपस में अपनी बात कहना शुरू किया वह स्त्री विमर्श है।
प्रश्न: स्त्री विमर्श की जब भी चर्चा होती है, तो सीमोन द बुआ और केट मिलेट की मान्यताओं पर चर्चा अधिक की जाती है। क्या भारत में स्त्री मुक्ति के प्रश्न पर विचार करने वाली महिलाएँ नहीं हुई? अगर यह कहा जाए कि यहाँ स्त्री का दमन अधिक हुआ तो फिर उसका प्रतिकार भी यहीं से पैदा होना चाहिए था? महादेवी वर्मा के जीवन और लेखन विशेष रूप से ’शृंखला की कड़ियाँ’ स्त्री विमर्श की दृष्टि से इसकी किस प्रकार व्याख्या की जा सकती है?

मैत्रेयी पुष्पाजी: ’द सेकेंड सेक्स’ से पहले छपी थी ’शृखंला की कड़ियाँ’, लेकिन हम ’शृंखला की कड़ियाँ’ का नाम नहीं लेते! कहते हैं यह महादेवी के साथ अन्याय है! लेकिन सीमोन द बुआ ने जैसा साफ दो टूक शब्दों में लिखा वैसा महादेवी ने नहीं लिखा। उन्होंने लिखा स्त्री को ऎसे रहना चाहिए, वैसे रहना चाहिए और दूसरी बात यह कि महादेवी तो कभी गृहस्थ जीवन में थी हीं नहीं, घरेलू स्त्री के दु:ख-तकलीफ को कैसे समझ पाती? अच्छा उन्होंने अपनी जितनी भी कविताएँ लिखी, उनमें अपने जीवन के खालीपन, दु:ख, तकलीफ और पीड़ा को व्यक्त किया। फिर हम कहते हैं कि सीमोन द बुआ का नाम ले रहें हैं, वर्जिनिया वुल्फ का नाम ले रहें है लेकिन ’शृखंला की कड़ियाँ’ का नाम नहीं लेते।

प्रश्न: ऎसा क्यों है कि १९९० के बाद केवल स्त्री लेखन ही नहीं सारे साहित्य लेखन में स्त्री केंद्र में आ गई है? क्या वास्तव में भारतीय समाज की स्त्री के प्रति दृष्टि में परिवर्तन हो रहा है?

मैत्रेयी पुष्पाजी: हाँ बिल्कुल १९९० के बाद साहित्य लेखन में स्त्री केंद्र में आ गई। स्त्रियों ने स्वयं कलम उठाई। अपनी आपबीती अपने अनुभव को उन्होंने स्वयं लिखना शुरू किया । पहले लड़की शादी के लिए पढ़ा करती थी, लेकिन बाद में उन्होंने कहना शुरू किया-मुझे पहले कैरियर बनाना है, बाद में शादी करनी है आज तुम देखोगी अच्छे से अच्छे क्षेत्रों में लड़कियाँ या महिलाएँ सबसे आगे हैं। तुमने तो ’चाक’ पढ़ा है; ’चाक’ की नायिका सारंग नैनी घरेलू स्त्री है, लेकिन अपने ऊपर हुए अत्याचार को वह झेल नहीं पाती तथा बाद में ग्रामीण राजनीति में आती है।

प्रश्न: स्त्री विमर्श की दृष्टि से किसी उपन्यास में आपके विचार से किन चीजों का होना जरूरी है?
मैत्रेयी पुष्पाजी: स्त्री विमर्श की दृष्टि से मेरे उपन्यास में जो है, वह सब कुछ होना चाहिए...(हँसते हुए)। हाँ मेरे विचार से स्त्रियाँ राजनीति में होनी चाहिए, क्योंकि तुम देखो आज भी पंचायत स्तर पर तो महिलाएँ आ चुकी हैं, प्रधान का पद उनके लिए प्रधानमंत्री के पद के बराबर है। लेकिन आज भी संसद में महिलाओं का ३३% आरक्षण का मुद्‍दा अधर में लटका हुआ है, लेकिन जल्दी ही उन्हें यह अधिकार भी मिल जाएगा।

प्रश्न: क्या काम जीवन से संबंधित पारंपरिक मानदंडों का उल्लघंन करना स्त्री विमर्श की अनिवार्य शर्त है? क्यों?

मैत्रेयी पुष्पाजी: देखो ये सब प्राकृतिक है। अगर काम नहीं होगा तो पति-पत्नी का संबंध नहीं होगा, सृष्टि का विकास रूक जाएगा। यह तो जरूरी है। अगर परंपरा का उल्लंघन किसी बहुत ही अच्छे काम के लिए किया जाए तो इसमें कोई बुराई नहीं है। 

प्रश्न: क्या लेखन को पुरुष लेखन और स्त्री लेखन के रूप में बाँटना उचित है? इससे क्या हासिल होता है? 

मैत्रेयी पुष्पाजी: पुरुष और स्त्री लेखन-दोनों का अपना क्षेत्र है। भावनात्मक तौर पर एक पुरुष जो अनुभव करेगा वह स्त्री कैसे समझ सकती है। मान लो कोई पुरुष किसी लड़की को देख रहा है, देखने पर उसके मन में क्या विचार उत्पन्न होता है-स्त्री इसकी अभिव्यक्ति नहीं कर सकती। ठीक उसी प्रकार स्त्रियों के मन में प्रेम की क्या परिभाषा है तथा मातृत्व के भाव आदि को पुरुष अभिव्यक्त नहीं कर सकता।

प्रश्न: क्या पुरुष कथाकारों और स्त्री कथाकारों के भाषा प्रयोग में कोई अंतर होता है?

मैत्रेयी पुष्पाजी: हाँ, बिल्कुल भाषा में अंतर होता है। अभी मैंने कहा है-फिर से कहती हूँ स्त्रियाँ भुक्त्भोगी होती हैं, अपने ऊपर हुए अन्याय और अत्याचार को जिस प्रकार वह व्यक्त कर सकती हैं, पुरुष नहीं कर सकता। ’कस्तूरी कुंडल बसै’ मैं तुमने पढ़ा होगा, मेरे पास विद्यालय जाने के लिए एक रुपया होता था और मैं उसे बस के कंडक्टर या ड्राइवर को नहीं देना चाहती थी ताकि दूसरे दिन भी स्कूल जा सकूँ। बदले में वे लोग मुझे इतनी बुरी तरीके से तंग किया करते थी कि मैं रो पड़ती थी। थोड़ी दूर जाने पर पुलिस स्टेशन आता था, मैं खिड़की से झाँका करती थी कि यहाँ उतरकर इनकी शिकायत पुलिसवालों से कर दूँगी। खिड़की से झाँककर मैं देखती थी, दो-तीन पुलिसवाले हाथ में बंदूक लिए घूमते रहते थे। उस जमाने में कोई महिला पुलिस नहीं हुआ करती थी। मैं सहमकर फिर से चुप बैठ जाती थी। मेरी हिम्मत नहीं होती थी कि मैं उतरकर उनकी शिकायत दर्ज करा सकूँ। 

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