रविवार, 21 अप्रैल 2013

समकालीन विमर्श से जुझती कहानियाँ



समकालीन विमर्श से जुझती कहानियाँ      
               
                                                              - अर्पणा दीप्ति


हिंदी साहित्य में कहानी की परंपरा काफी पुरानी एवं समृद्ध है। कहानी की उत्पत्ति कब और किस प्रकार हुई इस प्रश्न का निर्णायत्मक उत्तर देना कठिन है। हाँ ऎसी कल्पना अवश्य की जा सकती है कि कहानी की उत्पत्ति मनुष्य की उत्पत्ति तथा उसके सामाजिक रूप लेने के साथ हुई। मनुष्य की अपनी बात कहने की प्रवृति ने कहानी को जन्म दिया। इसी शृखंला की वर्तमान कड़ी है सतीश दुबे का कहानी संग्रह ’कोलाज’। हालॉकि इस संग्रह की कई कहानियाँ विगत वर्षों में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से प्रकाशित होकर पाठकों तक पहुँच चुकी है। किंतु यहाँ यह कहना आवश्यक है कि शारीरिक अक्ष्मता तथा खराब स्वास्थ्य के बावजूद पिछले तीन दशकों से कथा साहित्य में निरंतर अपनी उपस्थिति  बनाए रखना वास्तव में कथाकार के लेखकीय जिजीवषा का अद्‍भुत प्रमाण है। कथा साहित्य के तीनों विधाओं में सतीश दुबे की उपस्थिति उनकी सृजनात्मक उर्जा से परिचित करवाती है। अपनी बात ’शायद’ में लेखक कहते हैं "मैं अपने को लिक्खाड़ या आशू लेखक नहीं मानता संभवत: इसलिए लेखन में ठहराव महसूस होने से मन बैचेन होने लगता है।" इसी लेखकीय बैचेनी का प्रमाण है ’कोलाज’(२०१३) की ताजातरीन सोलह कहानियाँ।

      इन कहानियों के जरिए लेखक ने वर्तमान जीवन में संबंधों की विसंगतियाँ, आधुनिक सोच से उत्पन्न अंतरद्वंद एवं कोलाहल को बखूवी उकेरा है। ’अकेली औरत’, ’सप्तश्रृंगी’, ’सुकूनी लम्हों के बीच,’ ’ठौर’ तथा ’गर्द के गुब्बारे’ आदि कहानियाँ पात्रों के मन:स्थिति को संपूर्ण मनोयोग के साथ चित्रित करती है। इस संग्रह की अधिकतर कहानी आम स्त्री की जीवन के विविध पहलूओं को अनुभव की आँखों से देखती और बयान करती है। बल्कि यह कहना सर्वथा उचित होगा कि लेखक ने इन पात्रों के जरिए स्त्री प्रश्नों का पड़ताल किया है।

     ’अकेली औरत’ की अनपढ़ पात्र फागुनी नशाबंदी के खिलाफ उठ खड़ी होती है। वह इस बात से बिल्कुल बेपरबाह है कि हो सकता है कल वह अपने जीवन के समर में अकेली पड़ सकती है, पति का साथ उससे छूट सकता है "यह आप नहीं आपका पुरुष बोल रहा है जो औरत को अपनी इच्छा की मुट्ठी में बंद करके रखना चाहता है।"(पृ.सं.२) फ्लैट में दाई का काम करते हुए फागुनी पूरी तेजस्विता के साथ पट्‍टी की अन्य औरतों के साथ नशाबंदी के जुलूस में शामिल होती है।

      जीवन के किसी मोड़ पर जीवनसाथी का साथ छूट जाने पर अक्सर स्त्रियाँ स्वयं को असहाय तथा अबला महसूस करती है। ’सप्तशृंगी’ की पात्र सुजाता इस मिथ को तोड़ती है। पति रविप्रकाश की असामयिक मृत्यु के पश्चात दिवंगत पति के व्यापारिक कारोबार एवं पारिवारिक जिम्मेदारियों को संभालने के लिए उसे अलग-अलग भूमिकाओं का निर्वाह करना पड़ता है। " उनके इस बदलते रूपों के मद्देनजर बाजार के व्यापारी वर्गों ने उन्हें सप्तशृंगी देवी की उपाधि तक दे डाली।"(पृ.सं.१४) सुजाता अपने पौत्र रजत को कहती है "बेटा परिस्थितियाँ आदमी हो या औरत सबको मौका पड़ने पर जिंदा रहने के लिए ताकतवर बना देती है।"(वही)

      कैरियर, बॉस और विदेश के बीच विस्मृत होते माता-पिता तथा परिवार की कहानी को दर्शाती है ’सुकूनी लम्हों के बीच’। इस कहानी के पात्र कपंनी तथा पैकेज के मकड़जाल में फँस जाते हैं। इनकी जिदंगी युवावस्था में काफी थकी-थकी सी लगती है। वर्तमान संदर्भ में इसे क्वार्टर लाइफ क्राइसेस भी कहा जा सकता है। कामयाबी हासिल करने वाली आज की युवा पीढ़ी आंतरिक सुकून नहीं  मिलने के कारण सरलता से अपराधित कारनामों की ओर अग्रसर होती है। माता-पिता तथा परिवार से संबंधों में पिछड़ापन जैसी मानसिकता पनपने के कारण इनका जीवन एक बिंदु पर केंद्रित हो जाता है। शिक्षा प्राप्त करने के बाद बच्चे स्वयं को माता-पिता से उत्कृष्ट समझने लगते हैं। ऎसी शिक्षा का क्या लाभ जो व्यक्ति को मालिक से नौकर बना दे! जो विदेश तक दौड़ गया वह उच्च और जो दौड़ नहीं पाया वह निम्न हो गया। भावनात्मक लगाव से दूर इनके जीवन में धन तो है लेकिन रौनक नहीं। सीकरी का संत’ उच्च शिक्षा तथा साहित्य अकादमियों में व्याप्त भ्रष्टाचार को दर्शाता है। "तुम्हे कौन सा अपने बचत खाते से देना है। एकलव्य शोधप्रबंध पर हस्ताक्षर कराने के बदले दस हजार गुरुदक्षिणा दे गया है उसमें से दे दो...।(पृ.सं.२९) इस कहानी के माध्यम से पुन: वर्तमान शिक्षा-प्रणाली तथा सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार पर लेखक ने पाठकों का ध्यान केंद्रित किया है।

      वर्तमान संदर्भ में ईमानदारी, सच्चाई तथा कर्तव्यनिष्ठ जैसे शब्द बेमानी हैं इसका उदाहारण  है ’हलकट’ का शिव। अपनी नौकरी गँवाकर उसे अपने नैतिक मूल्यों की रक्षा करनी पड़ती है। हालॉकि कथ्य में विवरण की बाहुल्यता है। वहीं जीवन की दो राहे भँवर में फँसी पत्रकार यश की कहानी 'चेहरे' यह दर्शाता है कि संघर्षशील व्यक्ति को अगर जीवन में कोई पराजित कर सकता है तो वह है उसका परिवार। यश अपनी पत्नी द्वारा लगाए गए चरित्रहीनता के आक्षेप से टूट सा जाता है किंतु अपने मित्र सदानंद द्वारा समझाने पर वह पुन: संभलता है। "जीवन रूपी नदी में अगर तुफानी बाढ़ आ जाए तो परिस्थिति विशेष में उसमें तैरने की कोशिश करने के बजाए तट पर बैठकर बाढ़ उतरने की प्रतीक्षा सब्र के साथ करनी चाहिए।"(पृ.सं.१३१) ’गर्द के गुब्बारे’ तथा ’अंतिम परत’ कथ्य में सामान्य दिखते हुए भी पाठकों पर अपना प्रभाव डालती है।

      विवाहित लड़कियों के लिए ’ठौर’ एक भ्रम भी है और एक दंश भी जो जीवन के अंत तक उन्हें बनजारे की सी मन:स्थिति में भटकाए रखता है। ऎसे में सबसे मर्मांतक होता है मायके के तरफ से अजनबियों सा व्यवहार। उसे हर हाल में हिम्मत कर ससुराल ही लौटना होता है। मायकेवालों की सहूलियत भी इसी में है कि लड़की ससुराल को अपना घर समझे तथा परायी लड़की की तरह बर्ताब को अपनी नियति। बचपन के घर-घरवाले खेल की तरह हमेशा स्त्री के जीवन में एक सुनहरा भ्रम बना रहता है कि आखिर उसका असली घर कौन सा है? इसी भ्रम तथा उपेक्षा की शिकार है ’ठौर’ की माइली। किंतु अंतत: वह समझ जाती है कि शादी के बाद ससुराल ही लड़की का अपना घर होता है। माइली अपनी माँ से कहती है-"छ्ड़ा-गाठन बाँधकर जिस आदमी के साथ तुमनें भेजा था, तब यही तो कहा था।"(पृ.सं.१३१)

     ’अंतराल’ में पुन: विवरणों की भरमार है, किंतु इस कहानी को इस मायने में उल्लेखनीय कहा जा सकता है क्योंकि यह जेंडरिंग की प्रक्रिया को दर्शाती है। कहानी की पात्र पंखुड़ी इस जेंडरिंग की प्रक्रिया की शिकार होती है। लेकिन वह अपने अधिकारों के प्रति सजग है समझौता करने के बजाए वह जिंदगी अपने शर्तों पर जीना चाहती है एवं इसमें कामयाब भी होती है। 'एन.फार.' की नीरजा आकस्मिक दुर्घटना में पति की मृत्यु हो जाने पर जिंदगी की नई पारी की शुरूआत कर पति के अधूरे सपने को पूरा करती है। उसके जीवन का मूलमंत्र था ’न पराजयं न पलायनं’।

     समर्पित, ईमानदार तथा कामयाब कर्मचारी असीत की कहानी है ’अपने अपने द्वीप’। अपनी मेहनत तथा लगन से वह अपने मालिक मि. नेहरा की कंपनी को एक नई उँचाई पर पहुँचाता है। ’फ्रेम का चित्र’ यह दर्शाता है कि मजहब प्रेम की राह में किस प्रकार रोड़े अटका सकता है। नीरव एवं सबिहा का प्यार इसी मजहबी सांप्रदायिकता का शिकार होता है अपने प्रेम को अमर बनाने के लिए साबिहा को अपने प्राणों की बलि देनी पड़ती है। नीरव इस धार्मिक कट्‍टरता को ढोने के लिए संसार में अकेला रह जाता है।

    यहाँ यह कहना सर्वथा उचित होगा कि इनमें से अधिकांश कहानियों को लघु उपन्यास का रूप दिया जा सकता था। कथाकार ने इन कहानियों को समेटने में शीघ्रता दिखाई है। कहानी के सत्य के को लेकर निर्मल वर्मा ने कहा था कि कहानी का सत्य झाड़ी में छिपे पंछी की तरह है। जिसके बारे में निश्चित रूप से कह पाना असंभव है, जब तक की वह छिपा है और उसे जीवत बाहर निकालना भी दूर्लभ है। आलोच्य संग्रह में वह पंछी ठीक सामने आ बैठा है।

     सतीश दुबे की शक्ति उनकी बहती हुई भाषा है इसका पुख्ता प्रमाण है कथ्य में शहरी तथा आँचलिक भाषा का समिश्रण। साथ ही यह भी कहना जरूरी है कि ये कहानियाँ पेन्सिल स्केच जैसी हैं। इन कहानियों के माध्यम से वर्तमान समाज कि विसंगतियों को दर्शाया गया है। इन कहानियों में विद्यमान अधिकांश अभिव्यक्तियाँ मन को छू लेती हैं। आशा है कि लेखकीय क्षमता एवं भरपूर संवेदना के साथ जीवन के विविध कालजयी कोलाजों को रेखांकित करती ये कहानियाँ हिंदी जगत में सराही जाएँगी एवं इसका भरपूर स्वागत होगा।

समीक्षीत कृति- कोलाज (कहानी संग्रह)
लेखक- सतीश दुबे
प्रकाशक-ज्योति प्रकाशन लोनी रोड गाजियाबाद-२०११०२
प्रथम संस्करण-२०१३
पृष्ठ संख्या-१८०
मूल्य-३९०/- मात्र    

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