शनिवार, 19 मई 2018

परम में उसकी उपस्थिति -"मेरे न होने की इम्युनिटी तुम्हें पैदा करनी ही होगी ............" (संस्मरण)



ब्रह्म मुहूर्त में एक ललक और अलगाव के पीड़क पलों में उसे जो बात कह नहीं पाई थी ! वह उसी पल कविता में उपस्थित हो उठी थी | उसकी संभावित स्थायी अनुपस्थिति हम मिल रहे थे, उसकी आगत अनुपस्थिति के भुरभुरे मुहाने पर | वह क्रमशः अनुपस्थित हो रहा था मेरे परोक्ष अस्तित्व से मगर उपस्थति होता जा रहा था मेरे होने की तमाम अपरोक्ष वजहों की मूल में | बाहर मेरी देह और उसकी परछाई जितनी जगह घेरती है | वह उतनी जगह मेरी भीतर घेर रहा था, मेरी ही परछाई के मूल स्रोत को बेदखल करते हुए | बाहर कोहरा था, भीतर और भी घना , लेकिन दोनों कोहरों में गहरा फर्क था | ये अलगाव के आगत के क्षेपक क्षण थे असंगत-सा की उपस्थित था वह, अनुपस्थिति होने के बहुरुपात्मक प्रत्यक्षीकरण में | मेरे चेहरे पर दर्ज है आज भी उसकी बड़ी-बड़ी आँखे जो चाहती थी स्थान, काल, पात्र की सभी सीमाएं ध्वस्त हो जाए | समय-रथ के पहिए की धुरी ही टूट जाए |


 उसकी अनुपस्थिति जब मेरे आगे उपस्थित हुई , पटरियां खाली थी रेल जा चुकी थी | वही जंगल थे वही पगडण्डी थी नहीं था तो केवल वह योजक चिन्ह, जिससे जंगल जुड़ते थे मुझसे | रास्ते बनाती थी हमारा योग | जंगल वही थे, नदी के किनारे सुरखाबों के घोंसले भी वही थे , उनके अनुरंजनी नृत्य भी जारी होंगे | उस अथाह और परम उपस्थिति में योजक चिन्ह के अभाव में उसके साथ मैं भी अनुपस्थित हो गई | मन को ट्रेन्क्वेलाजयर देकर सुला दिया था | यह सोचकर की कुछ दिन बीत जाएगा, एक सतयुग, एक लंबा वनवास , जो प्रिय था स्वर्ण मृगों की कुलान्चों से भरा-भरा और केवट-शबरी-हनुमान भाव से ओत-प्रोत | स्मृतियाँ लिपट-लिपटकर पैरों से लिथड़ेन्गी | मौन चीख पड़ेगा, देह सिहर-सिहरकर रुन्दन करेगा | मन रूठकर पलटकर खड़ा हो जाएगा और समझदार प्रेम उसके भले की कामना करते हुए, उसका असबाव (समान) उठाकर स्टेशन तक छोड़कर लौट आएगा | उस अनुपस्थित प्रेम के कंधे पर टिक कर बिता दी जाएगी शेष वयस | 


    यायवारी हमारी नियति और चाव दोनों हैं | उपस्थित और अनुपस्थित के व्यतिक्रम हमारा पाथेय | बहुधा यह हुआ है कि हमने काटे हैं अनजान रास्ते एक दूसरे के | उसके उठकर जाने की उष्मा से भरी जगह पर मैं बैठी हूँ, और मेरी बगल के गली से वह समानंतर गुजरा है | एक बार तो धुल भरी आंधी में हम अनायास ही उपस्थित थे आमने-सामने मगर बिना पहचाने एक दूसरे को | हम दो यायावर एक दूसरे की यात्राओं में लगातार अनुपस्थित रहे थे लेकिन पटरियों और सडकों के निकट मोड़ पर धुन्धलों में भी रेलों, बसों की खिडकियों से दिखते रहे एक दुसरे को | हाथ में दिशानिर्देशक पट्टियां थामे | कह तो वो रही थी अपनी कहानी लेकिन महसुस मैं कर रही थी | ये शरीर बहुत दूर है | पर हमारी आत्मा की तरफ तुम्हारी आत्मा की एक खिड़की हमेशा खुलती है |

        किसी महागाथा में क्षेपक सी बीती उन रातों में मेरी आत्मा की लगभग सारी खिड़कियाँ खुली रह गई थी | नतीजन मुझे ठंढ लग गई थी , मैं खांसती और छींकती रह थी | एंटीहिस्टैमिनेकी दवाओं के रैपर सारे खाली थे वह होता तो खीजकर  कहता –“ अगर मेरी अनुपस्थिती तुम्हें बीमार बना सकती है तो मेरी उपस्थिती का भला कोई अर्थ रह जाता है ? तम्हे पैदा करनी होगी इम्युनिटी “ कुछ देर को सुला दो यह दर्द |”
     क्या यह केवल अनुपस्थिति थी ? यह उस उपस्थिति की सांद्रता थी जो ठोस होने के हद तक सान्द्र होने को थी| एक पूरा वातावरण था उसका होना | वह बस एक कमरे से उठकर चला गया था अपना असबाव बांधकर मगर वायुमंडलीय गोलक में बंध चुकी थी उसकी उपस्थिति | खूब एहतियात से बाँधा था अपना  सामान की कहीं कुछ छुट न जाए , किन्तु बहुत सारे जगहों पर वह खुद ही छुट गया था | पीछे छुट गया वह छोटा सा संसार उसकी स्मृतियों से ठसाठस,कि मुझे सांस लेने में दिक्कत हो रही थी | वे सारे सन्नाटे जो उसकी मुलायम समझाने वाली आवाज से अपदस्थ हुए थे , बुरी तरह चीख रहे थे | मेरे कान बस बहरे होने को थे | उसकी उपस्थिति से उसकी अनुपस्थिति को पुरी तरह संक्रमित कर दिया था | सुन्न पड़े मेरे वजूद से एक क्लीशे झर रहे थे जिसे मेरा मौलिक मन अपने कुरते से झाड़ने का प्रयास कर रहा था |

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