राष्ट्रीयता एवं स्वतंत्रता के सजग प्रहरी,जन चेतना के गायक तथा काल के चारण कहे जानेवाले राष्ट्रकवि ’दिनकर’ की प्रतिभा सूर्य के समान तेजस्वी थी , जिसने युग के दिगन्त को प्रकाशित कर दिया। उनके हृदयमंडल से निकली ’हुंकार’ ने सुप्त जनता को जगा दिया। उनका जीवन संघर्षों की अमिट कहानी रहा लेकिन उनकी अन्तराग्नि की प्रज्वलित ज्योति कभी बुझने नहीं पायी।
राष्ट्रकवि रामधारीसिंह’ दिनकर’ का जन्म २३ सितम्बर १९०८ को बिहार के मुंगेर जिला के सिमरिया गाँव में किसान परिवार में हुआ। जब वे दो वर्ष के थे , उनके पिता की मृत्यु हो गई । दिनकर ने अपने जीवन में अच्छे-बुरे सभी दिन देखे और आर्थिक वर्गभेद की वास्तविकता को अनुभव से जाना। बी.ए. करने के बाद छोटे-बड़े पदों पर कार्य करते हुए वे अत्यंत प्रतिष्ठापूर्ण उच्च पदों तक पहुँचे। उन्होंने कई बार विश्व साहित्य सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया। भारत सरकार के हिंदी सलाहकार समिति के अध्यक्ष पद पर रहते हुए हिंदी की यथासंभव सेवा की। राज्यसभा के मनोनीत सदस्य तथा भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे। १९५९ मे भारत सरकार ने पद्मभूषण से सम्मानित किया। आपको ’उर्वशी’ महाकाव्य के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।उनका निधन १९७४ में हुआ|
उनका रचनाकाल सन १९२७ ई. से अप्रैल १९७४ ई. ( देहावसान वर्ष )तक अर्थात कुल ४७ वषों तक रहा । दिनकर का काव्य अपने युग का दर्पण है, युग चेतना का प्रतिबिंब है। आलोचकों की धारणा है कि उनके काव्य में सागर का गंभीर गर्जनभरा उन्मत्त ज्वार, प्रभंजन का अबाध प्रवेग तथा क्रांति की भीषण ज्वाला है।
दिनकर के कवि व्यक्तित्व को उस अंगार की भाँति माना गया है ,जिस पर इन्द्रधनुष खेल रहे हैं । एक ओर अंगार जैसी आन्तरिक जलन और तपन जो युग की अनास्था और विकृतियों को भस्म कर देने को उद्यत है, तो दूसरी ओर प्रकृति के संघात से उत्पन्न मनोहारी इन्द्रधनुष । सुन्दर और संघर्ष का न जाने कैसा मेल ?उनके साहित्य के अनुशीलन से इस कथन की सत्यता प्रमाणित होती है कि आग और मिट्टी के ताप में तपकर पकी हुई उनकी कविताएँ लोहा बनकर टंकार करती हैं । ओज इस टंकार का प्रमुख अवयव है।
उनका राष्ट्र , मनुष्य और आहत मानवता के प्रति प्रेम अटूट था । सामाजिक विषमताओं के प्रति उनके आक्रोश और विद्रोह ने उनकी कविताओं को उनके अपने युग के लिए तो प्रासंगिक बनाया ही,आने वाले समय के लिए भी उन्हें शाश्वत प्रासंगिकता प्रदान कर दी। उनकी अनेक कविताऎँ उनकी संघर्षशीलता की पुष्टि करती है।
कहा जाता है कि दिनकर के काव्य में मिट्टी, आग और लोहे की त्रिवेणी प्रवाहित हो रही है जिसमें स्नान करके पाठक संघर्ष की दीक्षा प्राप्त कर लेता है ।
मिट्टी वाली कविता कृषक, मजदूर और दलित वर्ग के जीवन का आइना है जिसमें सामंती शोषण को देखकर हृदय चीत्कार कर उठता है -
"श्वानों को मिलता दूध - वस्त्र भूखे बालक अकुलाते हैं ।
माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर जाडे़ की रात बिताते हैं ॥"
कवि ने किसान और मजदूर को देवता माना है और धार्मिक पाखंड पर गहरी चोट की है-
" आरती लिए तू किसे खोजता मूरख/
मंदिर राजप्रासादों में , तहखानों में ।
देवता कहीं मिट्टी कूट रहे/
देवता हैं कहीं खेत -खलिहानों में ।"
आग वाली कविताएँ राष्ट्रप्रेम के प्रचंड भाव से रची गई हैं जिनमें विडंबनाओं के सामने सीना खोले ललकार की मुद्रा में कवि अडिग खड़ा है-
" कह दे शंकर से आज करें वे प्रलय नृत्य फिर एक बार ।
सारे भारत में गूँज उठे हर-हर बम का फिर महोच्चार ।"
यही वह आग है जो मानवों को सदा उष्ण रखती है। दिनकर कहते हैं -
"मानवों का मन गले पिघले अनल की धार है ।"
और पुरुरवा के शब्दों में अपना परिचय इस प्रकार देते हैं-
''मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं
उर्वशी अपने समय का सूर्य हूँ मैं
अन्धतम के भाल पर पावक जलाता हूँ
बादलों के शीश पर स्यंदन चलाता हूँ ।"
करुणा और अहिंसा जैसे उच्च भाव आज की दुनियाँ में अप्रासंगिक होते जा रहे हैं - इस तथ्य को दिनकर ने 'कुरुक्षेत्र' में पूरे आत्मविश्वास के साथ स्थापित किया है। बापू से अत्यंत प्रभावित होने के बावजूद उनके विचारों के विरुद्ध खडे़ होने का जो साहस ’दिनकर’ने दिखाया है वह उनकी दूरदृष्टि का परिचायक तो है ही युगवाणी भी है-
"क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो ।
उससे क्या जो दन्तहीन विषरहित विनीत सरल हो ।"
’दिनकर’ यह समझ चुके थे कि विश्व में ''शक्तिशाली की विनम्रता'' ही सम्मान पाती है। वे मानते थे कि आदर्श के नाम पर कायरता और दुर्बलता ओढ़े रहना आत्महन्ता प्रवृति के सिवा और कुछ नहीं है। उनकी ओज से परिपूर्ण कविताएँ झनझनाती तलवारों के रूप में लोहे का प्रतिनिधित्व करती हैं । यह लोहा पौरुष का भी प्रतीक है ।यह पौरुष ’रश्मिरथी’ के कृष्ण के सदृश विराट तथा सर्वशक्तिमान है तथा यही भारतीयता की अपराजेयता का आधार है-
"जंजीर बढ़ाकर साध मुझे,/
हाँ, हाँ दुर्योधन ! बाँध मुझे/
यह देख गगन मुझमें लय है,
यह देख पवन मुझमें लय है,/
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें ।
उदयाचल मेरा दीप्त भाल,/
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,/
भुज परिधि-बंध को घेरे हैं,/
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।/
दिपते जो ग्रह-नक्षत्र-निकर,/
सब हैंमेरे मुख के अन्दर ।
भूलोक, अतल पाताल देख,/
गत और अनागत काल देख,/
यह देख,जगत का आदि-सृजन,/
यह देख,महाभारत का रण,/
मृतकों से पटी हुई भू है,/
पहचान, कहाँ इसमें तू है।
अंबर मॆं कुंतल -जाल देख,/
पद के नीचे पाताल देख,/
मुट्ठी में तीनों काल देख,/
मेरा स्वरुप विकराल देख,/
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।
जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,/
साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,/
हँसने लगती है सृष्टि उधर ।/
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,/
छा जाता चारो ओर मरण ।
बाँधने मुझे तो आया है,/
जंजीर बड़ी क्या लाया है/
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अंनत गगन ।/
सूने को साध न सकता है, /
वह मुझे बाँध कब सकता है?"
(रश्मिरथी;पृ.२०-२१)