जीवन हर
कदम पर बाईपास ही तो मांगती है | बिषम परिस्थितियों में आपको अगर आगे बढ़ना है तो
बगल का रास्ता आवश्यक है | जीवन के झंझावात से टकराते हुए अपने लिए नया रास्ता
तलाशना “बाईपास” का केन्द्रीय विषय है |
कथा-वस्तु उपन्यास के मुख्यपात्र कुमार के
संघर्षों के इर्द-गिर्द घूमता है | अपने मुट्ठी भर तनख्वाह से बड़े परिवार को चलाने
वाले पिता देवी दयाल यह चाहते हैं की बेटा
कुमार रेलवे में टी.टी.की नौकरी कर ले | पिता का यह मानना था कि टी.टी. की नौकरी
में तनख्वाह से ज्यादा ऊपर की कमाई होती है | देवी दयाल की यह सोच सरकारी तंत्र
में व्याप्त भ्रष्टाचार को दर्शाता है |
बाईपास नामक यह जगह आवारा एवं शराबी लोगों के
गलत कामों के लिए हमेशा सुर्ख़ियों में बना रहता है | देवी दयाल को यह चिंता सताती
है की कहीं बेटा कुमार गलत सोहबत में न पड़ जाय | कुमार अपने पिता से बाईपास पर
मोटर पार्टस की दूकान खोलने के लिए पांच हजार रुपया मांगता है | देवी दयाल कहते
हैं की बड़ी मुश्किल से उनकी छोटी सी तनख्वाह से बड़ा परिवार का गुजारा चलता है | वे
कहते हैं कि-
“सरकारी स्कूल में फीस भले ही थोड़ी है पर कापी-किताब.........पेन
पेन्सिल इन सबका कितना मुश्किल होता है, पुरानी कापियों के पन्ने सी-सीकर आखिर कब
तक चलेगा “ (पृ.सं.९)
गरीबी के अतिसम्वेदनशील चित्रण के साथ-साथ लेखक ने ईमानदार
सरकारी मुलाजिम की विवशता को भी दर्शाया है |
आखिरकार काफी जद्दोजहद के बाद कुमार अपने
पिता से पांच हजार रुपया लेने में सफल हो जाता है | यहीं से उसके जीवन की नयी पारी
का शुरुआत होता है | बाईपास में कुमार की छवि एक ईमानदार समाज सुधारक के रूप में
उभरता है | कुमार के यूथ कांग्रेस में शामिल होने के साथ-साथ उपन्यास के अन्य सहपात्र
पुनिया, मस्तान, गिलैहरी, चुन्नी एवं फूलमती के साथ कथा आगे बढ़ती है |
लेखक ने कुमार के चरित्र को मजबूती प्रदान करते
हुए उसे सिर्फ बाईपास तक ही सीमित नहीं रखा है बल्कि उसे युथ कांग्रेस का अध्यक्ष
बना दिया जाता है | इतना ही नहीं कुमार यहीं नहीं रुकता है वह अपनी अधूरी शिक्षा
पुरी करने के लिए कालेज में दाखिला लेता है | कालेज के भ्रष्ट प्रिंसिपल को
बर्खास्त करवाता है, कक्षा में लडकियों की स्थिति सुधारता है |
“सर वे पढ़ना चाहें
या पढ़ाना चाहें यह उनकी मर्जी| पर मैंने भगाया इसलिए की कपड़े पहनकर तमीज से आएं
यहाँ लडकियां भी हैं |” (पृ.६५)
आदिवासी विमर्श की दृष्टिकोण से लेखक ने
उपन्यास में आदिवासियों के गरीबी और बदहाली की समस्या को भी उभारा है | रोहतास
बाबूजगजीवन राम के घर में चुराए गए सामान को बाजार में बेचते हुए कुमार द्वारा पकड़ा
जाता है | कुमार के पूछने पर रोहतास अपनी विवशता को दर्शाते हुए कहता है
“कौन
देगा हमें नौकरी तू कहीं लगवा देगा क्या ? अगर किसी का एक रूपया चोरी हो जाए तो तेरा
जूता मेरा सिर |” (पृ.102)
रोहतास कहता है हम आदिवासियों को लोग जन्मजात चोर मानते
हैं | जीने और पेट भरने की विवशता के लिए ये सब करना पड़ता है |
“पकड़े जाने पर
ज्यादा से ज्यादा क्या होगा ? पुलिस तबियत से तोड़ती.....सात साल की जेल होती और हाथ-पाँव
तोड़कर सड़िया डाले होते |” (पृ.102)
रोहतास की बातों को सुनकर कुमार सोचने पर विवश
हो जाता है कितनी बेबस जिन्दगी है इनकी | इस दलदल से न तो समाज इन्हें बाहर आने
देगा और न पुलिस |
स्त्री विमर्श की दृष्टि से इस उपन्यास
में जो मुख्य बातें उभरकर सामने आयी हैं वे इस प्रकार है कि स्त्री आज भी समाज में
ऊँचे तबके के लिए एक शरीर या वस्तु से ज्यादा कुछ भी नहीं है गिलैहरी जैसे पात्र
इस बात का पुख्ता प्रमाण है |
प्रेम अगर बराबरी वालों से न किया जाए तो वह
समर्पण नहीं कुर्बानी मांगता है | श्यामा एवं कुमार का प्रेम इसका पुख्ता प्रमाण
है | उपन्यास का अंत कुमार के रियल स्टेट के कारोबार से होता है जो इस बात को
दर्शाता है जीवन हर कदम पर बाईपास ही तो मांगता है | जीवन में उत्पन्न होने वाले
गतिरोधों को पार कर अगर आपको आगे बढ़ना है तो बाईपास उसके लिए आवश्यक है | किन्तु
अंत में यह कहना उचित होगा की कुमार के चरित्र को लेखक ने जो मजबूती उपन्यास के
शुरू एवं मध्यक्रम तक दिया वह अंत में लडखड़ा सा गया | रियल स्टेट स न जोड़कर अगर
कुमार के चरित्र को राजनीति या समाजसुधार से जोड़कर रखा जाता तो शायद उसे और सुदृढ़ता
मिलती थी |
-अर्पणा दीप्ति
‘बाईपास’
लेखक-मालिक राजकुमार
श्री नटराज प्रकाशन- दिल्ली
प्रथम संस्करण-२०१३
पृ.संख्या-१६८
मूल्य-३५०