इतिहास एवं समय की दस्तक ....कितने पाकिस्तान?
हिंदी के तमाम उपन्यासकारों की श्रेणी में युगचेता कथाकार कमलेश्वर का उपन्यास ’कितने पाकिस्तान’ समकालीन उपन्यास जगत में मील का पत्थर साबित हुआ है। इस उपन्यास ने हिंदी कथा साहित्य तथा साहित्यकारों को वैश्विक रूप प्रदान किया। विष्णु प्रभाकर के अनुसार "कमलेश्वर ने उपन्यास के बने बनाए ढाँचे को तोड़ कर लेखकीय अभिव्यक्ति के लिए दूर्लभ द्वार खोलकर एक नया रास्ता दिखाया।" इस रचना में लेखक ने इतिहास और भूगोल की सीमाओं को तोड़ने का प्रयास कर मनुष्य की वास्तविक समस्याओं एवं चिंताओं को सामने रखने का सफल प्रयास किया है। इस पुस्तक के प्रथम संस्करण की भूमिका में कमलेश्वर ने लिखा है कि ’मेरी दो मजबूरियाँ भी इसके लेखन से जुड़ी है। एक तो यह कि कोई नायक या महानायक सामने नहीं था, इसलिए मुझे समय को ही नायक, महानायक और खलनायक बनाना पड़ा।’ इस उपन्यास ने आज के टूटते मानवीय मूल्यों को सँजोने तथा दहशत की जिंदगी में मानवता की खोज की है।
कमलेश्वर ने इतिहास की गहराई में जाकर तथ्यात्मक सामग्री एवं वर्क के आधार पर तटस्थता और निष्पक्ष रूप से बँटवारे की समस्या का हल ढूँढकर नवमानवता की कल्पना को साकार रूप प्रदान करने का प्रयास किया है। आज के दहशतवाद और पूँजीपतिवाद की दुनिया से नवमानवतावाद रूपी हीरे की तलाश की है जो केवल अपने चमक के बलबूते पर दुनिया को अचंभित करता है।
धर्म मनुष्य को सच्चाई एवं मानवता की राह दिखाता है। पर धर्म के ठेकेदारों ने धर्म की राह को पूरी तरह बदलकर इसका प्रयोग स्वार्थ सिद्धि के लिए किया। इस संदर्भ में धर्म सच्चाई एवं मानवता का मार्गदर्शक न होकर कट्टरता एवं क्रुरता का प्रतीक बन गया। भारत का इतिहास गवाह है कि इस विशाल महाकाय देश का बँटवारा भी धर्म ने ही किया है। अगर इस धार्मिक कट्टरता को नहीं रोका गया तो पाकिस्तान बनने का सिलसिला यूँ हीं चलता रहेगा।
’कितने पाकिस्तान’ एक ऎसे समय की सच्ची दास्तान है जब धार्मिक उन्माद ने लाखों हिंदू-मुसलमान के खून की नदियाँ बहाई, उनके घर लूटे एवं जलाए गये तथा माँ-बहन एवं बहू-बेटियों के आबरू लूटे गए। ये जख्म इतने गहरे थे कि इसे न हिंदू भूल पाए न ही मुसलमान। पाँच हजार वर्ष की सभ्यता एवं संस्कृति को फिरंगियों तथा सौदागरों ने रेगिस्तान बना दिया एवं जाते-जाते भारत के सीने में विभाजित पाकिस्तान रूपी खंजर भी भोंक दिया। भारत में जो भी विदेशी आए भारतीय सभ्यता ने उनको आत्मसात किया। मुसलमान आए उन्हें अपना धरती पुत्र मानकर भरण-पोषण किया किंतु आगे चलकर वे शासक बन बैठे, इसे भी स्वीकार किया। इतिहास इस बात का गवाह है कि मुगल शासकों ने सत्ता के लोभ में अपने ही परिवार के लोगों का कत्लेआम किया। कमलेश्वर ने इसे आधार बनाकर बाबर से लेकर औरंगजेब के क्रूर काल को गवाह के रूप में उपस्थित कर उन मुर्दों को इंसानी समय के अदालत में पेश किया जिन्होंने भारतीय इतिहास और संस्कृति को एक नया मोड़ दिया। वस्तुतः हिंदू-मुस्लिम झगड़े की नींव बाबरी मस्जिद में छिपी थी। "बाबर बर्बर था! दरिन्दा था... उसने आते ही अयोध्या में हमारा रामजन्म भूमि मंदिर तोड़ा था और वहीं बाबरी मस्जिद बनबाई थी। पाकिस्तान बनना तो उसी दिन से शुरू हो गया।"(पृ.सं.६६) कमलेश्वर ने इस बात को सामने लाने का प्रयास किया है कि हम बाबर को बड़ा गुनाहगार मानते है किंतु झगड़े का जड़ बाबर न होकर इब्राहिम लोदी था। इस झगड़े ने १९४७ तक आते-आते देश के अखंडत्व को खंडित कर दिया।
कमलेश्वर ने इतिहास के उस समय का बयान लिया है जहाँ मानवता बार-बार कराह रही थी। अत्यंत बर्बरता एवं कट्टरता के साथ मानवता को सूली पर चढ़ा दिया गया। "औरगंजेब अगर अकबर के रास्ते पर चला होता तो आज हिंदुस्तान का ही नहीं दुनिया का नक्शा दूसरा होता और इस्लाम विश्व धर्म की एक सर्वव्यापी शक्ति का अगुआ होता, लेकिन औरंगजेब यह नहीं कर पाया...।" (पृ.सं.१३३) बर्बर बादशाह औरंगजेब ने सत्ता के हवस में अपने पूरे परिवार को जीते जी सूली पर लटका दिया। दाराशिकोह जैसे मानवतावादी भाई को काफिर कहकर सिर धड़ से अलग कर दिया लेकिन दाराशिकोह फिर भी जनता के नजरों में जनराजा ही बना रहा। "हर समय ऎसे ही होते रहा है कि हर सदी में एक दाराशिकोह के साथ एक औरंगजेब भी पैदा होगा। इस दस्तूर को बदलना होगा, नहीं तो मेरे साथ-साथ तुम सबका भविष्य भी डूब जाएगा।.....अगर मैं मर गया तो तुम्हारे सारे सपने समाप्त हो जायेंगे।" (पृ.सं.२५२) कमलेश्वर ने इस बात पर चिंता व्यक्त किया है कि यदि हमनें इस सच्चाई के साथ झूठे दस्तूर को नहीं बदला तो कल हमारे अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह उपस्थित हो जाएगा, हमारा भविष्य अंधकारमय होगा। औरंगजेब ने जिसका सहारा लेकर सत्ता भोगी वही राह अंग्रेजों ने चुनी और हिंदू-मुसलमान को लड़वाते रहे।
भूख और अपमान दुनिया के दो मूल दुख हैं लात पेट पर परे या पीठ पर चोट बराबर लगती है। वस्तुत: भूखा रखना भी एक राजनीति है घर में और घर के बाहर भी। यदि भर पेट भोजन मिले तो संभव है, मन मस्तिष्क स्वस्थ होकर अपनी सामाजिक स्थिति पर विचार करे। समता और क्षमता का प्रश्न उठ खड़ा हो। भारतीय जनमानस को कंगाल बनाकर अंग्रेजों ने भूख, जाति और नस्ल की राजनीति बखूबी खेली। अंग्रेज भिखारी की तरह आए और यहाँ की तमाम जनता को भिखारी बनाकर चले गए। जाते-जाते देश के दो टुकड़े भी कर गए। लेखक ने अंग्रेजों की इस मनोवृति पर करारा प्रहार किया है। "इन अंग्रेजों के बच्चों को सोचना चाहिए ... सदियों पहले सौदागर की तरह सलाम करते आए थे, वैसे ही सलाम करो और अपने मुल्क लौट जाओ पर.... जो कमा लिया वो तुम्हारी किस्मत ले जाओ पर... जो हमारा वो तो खुशी-खुशी छोड़ जाओ।" (पृ.सं.२८७)
इस देश की विडंबना यह रही है कि माउंट बेटेन तथा उनके सहायकों ने जिस देश की सभ्यता, संस्कृति और इतिहास को न कभी देखा और न जाना तो देश का बँटवारा किस आधार पर किया। "वर्ग तो बड़ा यथार्थ है ही पर जाति, लिंग, नस्ल और धर्म भी शोषण के भयावह हथियार रहे हैं।"(स्त्री-मुक्ति:साझा चूल्हा ; अनामिका ; पृ.सं.९) सच्चाई तो यह है कि अंग्रेज विभाजन चाहते थे। इस तथ्य से जिन्ना भी अवगत थे कि अंग्रेजों के चले जाने के बाद पाकिस्तान नहीं मिलेगा। इसलिए मजहब की नस्ल का बखूबी उपयोग कर नफरत का पाकिस्तान बना। "वक्त गवाह है जिन्ना की नसों में बहता खालिस हिंदुस्तानी खून जम गया था और उन्होंने एकाएक महसूस किया था कि आपसी जिदों छोटे-छोटे अपमानों और प्रतिस्पर्धात्मक अहंकार से जन्मी खालिश कैसे एक चुनौती बन जाती है और वह कौम के सपनों को तोड़ कर जाती एक मुकाबले को छुपाते हुए, अपने तरफदारों को कैसे एक विकलांग और धर्मांध सपना सौंप देती है।" (पृ.सं.५६) वस्तुतः वे भूल चुके थे कि नफरत की बुनियाद पर कोई भी मुल्क अधिक दिनों तक नहीं टिकता। पाकिस्तान एक मजहबी उसूलों की मिसाल ही तो है। मजहब के नाम पर लुटा गया एक इलाका! जिस मुल्क कहा गया। मुल्क तो टूटेगा, टूटकर रहेगा और वही हुआ बांग्लादेश का जन्म! जिन्ना को कामयाबी मिली! विभाजन हुआ पर क्या मिला आम आदमी को, उनके नसीब में तो भीख माँगना ही लिखा था। विभाजन के बाद बचा क्या सिवाय भूखमरी एवं बेरोजगारी के? "यही तो दो हिस्सों में बँट गए। भिखमंगे कबीर की विरासत है और तकसीम हो गए मुल्कों का नसीब बँटवारे ने मानवता को दफन कर दिया। यह दफन की परंपरा औरंगजेब से आज तक हम सँजोये हुए हैं। बदले की भावना तीव्र से तीव्रतर होती गयी। मजहब की आग ने चिंगारी का रूप लेकर इंसानियत का हवन किया है। जब तक हम मजहब के नफरत को दफनाएँगे नहीं, तब तक मानवतावादी विश्व नहीं बनेगा।"(पृ.सं.२५८) इनसान की पहचान मजहब के सहारे करने की इच्छा मनुष्य में बलवती हो रही है। इनसान और इनसान की कुदरती पहचान के बीच यह हिंदुस्तान और पाकिस्तान,सीरिया, लेबनान जैसे नाम कहाँ से आ जाते हैं? अब तक हमने कई आघात सहे हैं अगर इस नफरत की आग को अभी भी नहीं रोका गया तो अनेकानेक पाकिस्तान का जन्म होगा। विश्व के अधिकतर देशों में नफरत का एक पाकिस्तान बनाने की कोशिश जारी है! क्या हुआ बोस्निया में? क्या हुआ साइप्रस में? क्या हुआ तब के टूटे सोवियत युनियन में और अब के बने रशियन फेडरेशन में? क्या हो रहा है आज के अफगानिस्तान में? हर व्यक्ति नफरत के सहारे अपने ही लोगों के खिलाफ एक दूसरा पाकिस्तान को जन्म देने की तैयारी कर रहा है। विश्व का इतिहास इस बात का गवाह है कि पाकिस्तान से पाकिस्तान पैदा होता है। पता नहीं आज की मानवता किस दिशा में कदम बढ़ा रहा है। अपने ही लोगों के खिलाफ लड़कर सफलता के कौन से शिखर को छूना चाहता है! मजहब के सहारे नए देश का निर्माण की यह भूख वड़ा ही वीभत्स रूप लेगी। जब तक धर्म, जाति एवं नस्ल की सर्वोच्चता तथा विश्व शक्ति बनने का नशा नहीं टूटता तब तक दूसरा पाकिस्तान बनने का सिलसिला यूँ चलता रहेगा। परिणामस्वरूप वही होगा जो नागासाकी और हीरोशिमा में हुआ था। धर्म और सत्ता को सियासी कानून के लिए नफरत में बदला जाता है तो एक नहीं तमाम पाकिस्तान पैदा होते हैं। कमलेश्वर बार-बार यह कह रहे हैं कि अगर हमनें समय की दस्तक और मानवता की कराह को नहीं सुना तो बहुत महँगा पड़ सकता है। जितना जो कुछ टूट गया है उसे भूल जाँए जो बेहतर जो टूटने के बाद बचा है उसे टूटने से बचाएँ। देश इंसानियत के आधार पर बने न कि धर्म के आधार पर। जरूरत से ज्यादा इस दुनिया का बँटवारा हो चुका है अब और नहीं।
विगत तिरसठ वर्षों का इतिहास गवाह है कि हिंदुस्तान में पाकिस्तान से ज्यादा मुसलमान हैं और पाकिस्तान से ज्यादा इस्लाम समझने वाले लोग हैं। हिंदुस्तान इन मुसलमानों को अपना धरती पुत्र मानकर सहेजे हुए है। इस देश ने धर्मनिरपेक्षता की नई संस्कृति का पाठ पूरे विश्व को सिखाया है। यहाँ की विविधता में एकता, सामयिक संस्कृति ने विश्व के सामने एक नया आदर्श उपस्थित किया है।
कमलेश्वर ने बड़े ही कठोर शब्दों में अंग्रेजों के कूटनीति का भी पर्दाफाश किया है। अंग्रेजों ने व्यापार के साथ अपनी आत्मा को मुक्ति देने का झूठा नाटक किया। आत्मा मुक्ति का अभियान इन पांखडियों ने घोड़ों पर बारूद लादकर किया। वास्तव में ये तो आत्माओं को गुलाम करने निकले थे। इनके इसी हवस ने पुरातन सभ्याताओं को ध्वस्त किया। अगर इतिहास के पन्नों को खंगाला जाए तो बौद्ध धर्म भी भारत से निकलकर समस्त एशिया में फैला था लेकिन कहीं भी खून की एक बूंद तक नही गिरी। बौद्ध साधु घोड़ों पर चढ़कर बारूदी आक्रमण करने वाले योद्धा नहीं थे। वे हिमालय जैसा पर्वत पैदल पार कर चुके थे। उनके हाथ में भाले, तलवार और बंदूकें नहीं थीं। उनके पास था शांति, अहिंसा और करूणा का संदेश एंव हाथ में बौद्धि वृक्ष।
कमलेश्वर ने वर्तमान में बढ़ता हुआ बाजार, मुक्त व्यापार के नाम पर नव साम्राज्यवाद की स्थापना पर भी गहरी चिंता व्यक्त किया है। भुमंडलीकरण के इस दौर में मानवता तो नदारद हो गयी है। विदेशी सौदागरों की जमात ने अपना साम्राज्य फैलाकर हिंदुस्तान को जकड़ लिया था, वे ही फिरंगी अब विश्व को अपने शिंकजे में लेना चाहते हैं। सभी को ज्ञात है कि बाजार के लिए ही साम्राज्य बनाए जाते हैं एवं बाजार की नाभि साम्राज्य से जुड़ी होती है। इस साम्राज्य का मुख्य आधार है बाजार ! बाजार! और बाजार! वर्तमान दौर में इसका नाम बाजारवाद है। बाजारवाद के नाम पर फिर से नये जाल फैलाकर मानवता की आत्मा को गुलाम बनाया जा रहा है। क्या हुआ जापान के उस दो नगरों का जिनको अणु परीक्षण करके उड़ा दिया गया। आज भी हीरोशिमा की कराह सुनाई देती है। "मेरे ऊपर जो परमाणु बम गिराया था वह दुर्घटना नहीं युद्ध समाप्त करने के नाम पर सोचा समझा परीक्षण था। मानव जाति पर किया गया जघन्य आक्रमण.... अरे दरिंदो ! देखो मेरे इस क्षार-क्षार हुए शरीर को। नागासाकी के क्षत-विक्षत भूगोल को, माँ के कोख में विकलांग हो गई संतानों को, प्रचण्ड तापमान में पिघलकर वाष्प की तरह उड़ जाने वाले लाखों मनुष्यों को, जल-जलकर मुँह तक आकर न निकलने वाली मृत्यु की चीत्कारों की .... घुटती साँसों में दम तोड़ती बेबस उसाँसों को, हिचकी लेती हिचक-हिचक करती जिंदगी को, देखो मुझे मैं हीरोशिमा हूँ। मैंने खुद झेला है मानव विनाश के मृत्यु को। परमाणु नाभकीय संकट को जन्म देने वाले जितने अपराधी हैं, मैं उन्हें उनकी कब्रों में चैन से सोने नहीं दूँगा। वे सभी वैज्ञानिक चाहे फ्राँस के हो या जर्मनी, ब्रिटेन या रूस के वे मानवद्रोही और जघन्य अपराधी हैं इन्हें कब्रों मै चैन से सोने की ऎय्याशी बख्शी नहीं जा सकती।"(पृ.सं.३०५) भौतिक विकास के नाम पर काफी नुकसान किया जा रहा है। आज संसार की तमाम प्रयोगशालाओं में भीषणतम मौत का उत्पादन शुरू करने की होड़ लगी हुई है। सफल परीक्षण के बाद अब युद्ध में रत राजनीतिक सत्ताएँ मौत का थोक उत्पादन करना चाहती हैं। कुछ करना होगा नहीं तो ब्रह्मांड से पृथ्वी का नामोनिशान मिट जाएगा, क्योंकि, सृष्टि के नियमों के अनुसार जो जन्म लेता है वह मरता है, जो जिस काम के लिए बना है उसे वह पूरा कर जाता है, वैसे ही परमाणु बम जो बना रहें है वह शांति के लिए न होकर विध्वंस के लिए ही है, जितने भी बम बनेंगे वे सब के सब इस पृथ्वी को नेस्तानाबूद करने के लिए काफी हैं।
अंत में यही कहा जा सकता है कि हम उस भयावह विभाजन को रोकने में कामयाब नहीं हो पाये पर अब हमें मजहब का, बाजार का, व्यापार का तथा परमाणु परीक्षण का नकाब पहनकर मौत का मंजर तैयार करने वालों को बेनकाब करना जरूरी है। भले ही देश का बँटवारा सरहद से हुआ है पर मानवता तथा नैतिकता को दुनिया की कोई भी सरहद विभाजित नहीं कर सकती। इसलिए मानवता तथा नैतिक मूल्यों का जतन करना आज की प्रमुख माँग है। जिससे मानवता एवं भाईचारे का बीज पुनः अंकुरित हो जाए। बौद्धिक विमर्श पर लिखा गया इस उपन्यास को आखिरकार कहीं रूकना तो था सो रूक गया पर मन का जिरह अभी भी जारी है। हालॉकि अच्छी पुस्तकें हर काल में सामने आती हैं, आती रहेंगी, इस पुस्तक के लिए यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि जिस मुकाम पर यह पहुँची है, वहाँ हमेशा बनी रहेगी।
अर्पणा दीप्ति
समीक्षित कृति : कितने पाकिस्तान
लेखक : कमलेश्वर
संस्करण-२००८
प्रकाशक: राजपाल एंड सन्ज,
कश्मीरी गेट नई दिल्ली-०६