आंचलिकता अर्थ और
अभिप्राय:- अंचल शब्द से वास्तव में किसी ख़ास जनपद या क्षेत्र का नाम दिमाग में उभकर
सामने आता है और आंचलिकता उस जनपदीय या क्षेत्रीय विशिष्टताओं का अर्थ बोध देता है
| व्युत्पत्ति एवं व्याकरण के दृष्टि से विचार करने पर यह स्पष्ट होता है कि ‘अंचल’,
‘आंचलिक’ और ‘आंचलिकता’ ये तीनों शब्द मूल रूप में एक ही भाव से जुड़े हुए हैं |
अंग्रेजी में ‘लोकल’ और ‘रीजन’ शब्दों का अंचल शब्द से समानार्थी भाव
निकाला जा सकता है | ‘लोकल’ शब्द के द्वारा किसी स्थान विशेष की ध्वनी का आभास
होता है | जबकि ‘रीजन’ शब्द भूखंड अर्थ को व्यंजित करता है | लेकिन आंचलिकता से
इसका अर्थ नहीं मिलता इसी कारण इसे सम्पूर्ण अंचल का प्रतिनिधि नहीं माना जा सकता
है| किन्तु ‘रीजन’ शब्द निश्चित रूप से ‘प्रादेशिक’ भाव को सशक्त रूप से अभिव्यक्त
करता है | किसी भी औपन्यासिक कृति को सफल आंचलिक कृति बनाने में आंचलिक प्रवृति का
सर्वाधिक योगदान रहता है | आंचलिक प्रवृति या दृष्टि के बिना कोई भी रचनाकार अंचल
विशेष की उस वास्तविकता से परिचित नहीं हो सकता है, जिसमें सारा जीवन सांस ले रहा
है | हिन्दी में अंचल का अर्थ है प्रदेश या क्षेत्र विशेष | हिन्दी साहित्यकोश के अनुसार-“आंचलिक उपन्यासों में व्यावाहारिक
रूप से स्थानीय दृश्यों, प्रकृति, जलवायु, त्यौहार, लोकगीत, बातचीत की विशिष्टता
का ढंग मुहावरें, लोकोक्तियां, भाषा या उच्चारण की विकृतियाँ, लोगों की स्वभाव व व्यवहारगत
विशेषताएं, उनका अपना रोमांस नैतिक मानताएं आदि का समावेश बड़ी सावधानी तथा
सतर्कतापूर्ण ढंग से किया जाना अपेक्षित होता है | आंचलिक उपन्यास किसी सीमित
क्षेत्र विशेष के दायरे में लिखी जाती है किन्तु उसका प्रभाव व्यापक होता है |
अंचल एक देहात हो सकता है, एक भीड़-भाड़
वाले शहर का मुहल्ला भी हो सकता है या इन सब से दूर सघन वन में व्याप्त एक कस्बा
भी | हमारे देश की विभिन्न अंचल ही हमारी संस्कृति का प्रतीक है | आंचलिक उपन्यास
व्यक्ति प्रधान हो ही नहीं सकता | वहां व्यक्ति का स्थान अंचल ले लेता है तथा अंचल
हीं कथा का नायक बन जाता है | आंचलिक उपन्यासों में जिन अंचल का चित्रण होता है उस
अंचल प्रदेश विशेष की अपनी सामाजिक परिस्थितियां होती है | उसके अपने संस्कार होते
हैं | इनकी जीवनयापन की शैली वेशभूषा, आवास
व्यवसाय, मनोरंजन के साधन रीति-रिवाज मान्यताएं आदि आते हैं | इसके अलावा अंचल का
मनोजगत तथा आदिदैविक चेतना, अंधविश्वास टोना-टोटका , जादू, शकुन अपशकुन, व्रत
उपवास आते हैं | किन्तु एक अंचल की स्थिति दूसरे से भिन्न होती है |
आचार्य
नन्द दुलारे वाजपेयी के अनुसार-“ आंचलिक उपन्यास वह होता है जिसमे अपरिचित भूमियों
और अज्ञात जातियों का वैविध्यपूर्ण चित्रण होता हो |”1
डा.रामदरश
मिश्र के अनुसार-“आंचलिक उपन्यास मानो ह्रदय में किसी प्रदेश की कसमसाती हुई
जीवनानुभूति को वाणी देने का अनिवार्य प्रयास है....आंचलिक उपन्यास अंचल के
समग्र जीवन का उपन्यास है |”2
मारिया
एडवर्थ के अनुसार-“जिस उपन्यास में पात्रों का समग्र जीवन उस अंचल से प्रभावित
होता है तथा जिसमे अंचल अपनी परम्पराओं के कारण अन्य अंचलों से भिन्न प्रतीत होता
है, वह आंचलिक उपन्यास है |”3
डा.
गोबिंद त्रिगुणायत के अनुसार-“किसी अंचल विशेष की भौगोलिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक
विशेषताओं का अंकन करना ही आंचलिक उपन्यास का मुख्य उद्देश्य माना जाता है |”4
आंचलिकता
का स्वरूप-आंचलिकता एक प्रवृति है इसमें आदिम मनुष्य आधुनिकता से सर्वथा अपरिचित होता
है उसे अपने जीवन के प्रति संतोष होता है, वह हताश नहीं है | उसे अपनी अंचल के
प्रति आस्था है विशिष्ट परम्पराओं के प्रति मोह है या यह कहना सर्वथा उचित होगा कि आंचलिक उपन्यास
एक ऐसा औपन्यासिक प्रकार है, जिसमे किसी अंचल विशेष के भूभाग, जाति वर्ग को ध्यान
में रखकर वहां के भौगोलिक सांस्कृतिक एवं सामाजिक परिवेश से सम्पूरित समग्र जीवन-पद्धति
को स्थानीय,सामान्य भाषा के माध्यम से अत्यंत ही सम्वेदनशील एवं यथार्थपरक
अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया जाता है| आंचलिक उपन्यासों में अंचल ही नायक होता
है | इसमें पिछड़े हुए लोगों के व्यापक संस्कृति का दर्शन कराया जाता है | प्रकृति
के जड़ तथा चेतन जगत के सम्बन्ध में भुत-प्रेतों की दुनिया तथा उनके साथ मनुष्य के संबंधो
विषय में जादू-टोना सम्मोहन, वशीकरण, ताबीज, भाग्य , शकुन, रोग तथा मृत्यु के
सम्बन्ध में असभ्य विश्वास नैतिक मूल्यों का पतन, मानव मन की विकृतियों का खुलेआम
चित्रण ही आंचलिकता की विशेषता है |आंचलिक उपन्यासों में जनजीवन का चित्रण स्थानीय
बोली के प्रयोग से ही सजीव एवं साकार देखता है | ग्रामीण वातावरण एवं वहां का
पिछड़ेपन का चित्रण ही इसे नागरी संस्कृति से भिन्न बनाता है |
हिन्दी के आंचलिक उपन्यास: एक पृष्ठभूमि- हिन्दी
में आंचलिक उपन्यास का आरम्भ 1930 के आसपास माना जा सकता है | किन्तु स्वतन्त्रता से पूर्व भी कुछ ऐसे
उपन्यास सामने आये जिसमे आंचलिकता के रंग समाहित थे | इनमें प्रमुख हैं-भुवनेश्वर
मिश्र का ‘घराऊ घटना’ (1893) और ‘बलबंत भूमिहार’(1901) जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी
का ‘बसंत मालती’ (1899) हरिऔध का ‘अधखिला फूल’ (1907), गोपालराम गहमरी का ‘भोजपुर
की ठगी’ (1912),रामचीज सिंह का ‘वन विहंगनी’ (1909), ब्रजनदंन सहाय के ‘राधाकांत’
और ‘अरण्यबाला’ (1915) | भुवनेश्वर मिश्र के ‘घराऊघटना’ में समकालीन पारिवारिक
जीवन का विस्तृत चित्रण वहां के सामाजिक पृष्ठभूमि के अनुसार किया गया है तो ‘बलबंत
भूमिहार’ में प्रदेशीय सामंतवादी जीवन का यथार्थ चित्रण देखने को मिलता है |
जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी ने ‘वसंत मालती’ में मुंगेर जिले के मलयपुर अंचल को कथा
का केंद्र बनाया है | वहां के नदी, घाट, मठ, लोकगीत एवं लोकभाषा का प्रयोग करने
वाले मल्लाहों का परिचय दिया है | हरिऔघ के ‘अधखिला फूल’ में गोरखपुर जिले में
स्थित ग्रामीण नारी जीवन से सम्बन्धित समस्याओं को उठाया गया है साथ ही तथाकथित
साधुसंतो के यथार्थ स्वरूप को भी चित्रित किया गया है| क्षेत्रीय भाषा के प्रयोग
के साथ-साथ लेखक ने आदर्श भारतीय ग्राम की छटा की भी अभिव्यंजना की है | रामचीज
सिंह ने ‘वन विहंगिनी’ में संथाल प्रदेश के प्राकृतिक और मानवीय दृश्यों का चित्रण
किया है| स्थानीय आदिवासियों अर्थात कोल जनसंस्कृति का वर्णन किया गया है |
गोपालराम गहमरी के ‘भोजपुर की ठगी’ में भोजपुरी इलाके की ठगी का मनमोहक वर्णन किया
गया है | ब्रजनन्दन सहाय का ‘राधाकांत’ आत्मकथात्मक शैली में लिखा हुआ सामाजिक
उपन्यास है | वही ‘अरण्यबाला’ उपन्यास में विंध्याचल का एक पहाड़ी गाँव का वर्णन है
| यह एक उपदेश प्रधान और समाजवादी उपन्यास है | ‘रामलला’ उपन्यास के द्वारा लेखक
ने हिन्दू समाज की दुर्दशा एवं अव्यवस्था का समग्र चित्रण किया है | रामलला को इसाई
लडकी ऐनी से प्रेम हो जाता है किन्तु हिन्दू धर्म से अनन्य प्रेम के कारण वह ऐनी
के प्रेम को ठुकरा देता है | रामलला को एक मौलिक सामाजिक उपन्यास माना जाना चाहिए
वस्तुतः यह एक आंचलिक उपन्यास है |
हिन्दी के आंचलिक उपन्यासों
की दिशा में सर्वप्रथम प्रयास श्री राधेश्याम कौशिक की पुस्तक ‘हिन्दी के आंचलिक
उपन्यास’ है | सन 1964 में श्री प्रकाश वाजपेयी कृत ‘हिन्दी के आंचलिक उपन्यास’
कृति
प्रकाशित हुई, इसमें चौदह उपन्यासों को आंचलिक उपन्यास मानते हुए उनका सर्वेक्षण अपने
‘हिन्दी उपन्यास और यथार्थवाद’ नामक ग्रन्थ में किया है |
नागार्जुन
का ‘रतिनाथ की चाची’ (1948) उपन्यास मिथिला के जनजीवन की कथा को चित्रित करता है |
यह नागार्जुन का पहला आंचलिक उपन्यास है |
‘बलचनमा’
(1952) नागार्जुन का आंचलिक उपन्यास है इसमे एक गरीब किसान के बेटे बलचनमा की
दुःख-दर्द भरी कहानी है | नागार्जुन के ‘नई पौध’ (1953) मिथिला के सौराठ मेले के
जरिए बेमेल विवाह को दर्शाया गया है | ‘वरुण के बेटे’ (1957) में मिथिला के मछुआरों
के जीवन को चित्रित किया गया है | उग्रतारा (1963) में जेल-जीवन को चित्रित किया
गया है | इसके अलावा ‘बाबा बटेसरनाथ’, ‘दुखमोचन’ आदि आंचलिक उन्यास नागार्जुन ने
लिखे |
शिवप्रसाद मिश्र ‘रूद्र’ का काशी के जनजीवन
पर आधारित ‘बहती गंगा’ (1952)उपन्यास भी आंचलिक उपन्यास माना जाता है | इसमें काशी
के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक जीवन का दो सौ वर्षो का इतिहास अंकित है |
फनीश्वरनाथ ‘रेणु’ का ‘मैला आँचल’ उपन्यास
साहित्य में एक नई विधा को जन्म दिया | मैला आँचल को हिन्दी का प्रथम श्रेष्ठ
आंचलिक उपन्यास माना जाता है | इस उपन्यास में बिहार राज्य के पूर्णिया जिले के मेरीगंज
गाँव की कहानी है | इस गांव में रेणु इतना रम गए कि इस उपन्यास की भूमिका में वह
लिखते है-“इसमें फूल भी है, शूल भी है, धुल भी है, गुलाल भी है, कीचड़ भी है, चंदन
भी है सुन्दरता भी है कुरूपता भी है | मैं
किसी से भी दामन बचाकर निकल नहीं पाया |5
रेणु का
दूसरा उपन्यास ‘परती परिकथा’ (1957) भी आंचलिक उपन्यास है | इसमें लेखक ने
पूर्णिया के ‘परानपुर’ गाँव को चुना जो कोसी के अंचल में स्थित है | ‘जुलूस’ को
रेणु आंचलिक उपन्यास माना गया है किन्तु इसमें सम्पूर्ण आंचलिक तत्वों का अभाव है
अत: इसे अर्द्ध आंचलिक उपन्यास कहा जा सकता है |
उदयशंकर भट्ट के ‘सागर लहरें और मनुष्य’ (1955)
में महानगरी मुंबई के पश्चिम तट पर स्थित बर्सोवा गाँव के मछुआरों का जीवन चित्रित
किया गया है | ‘लोक परलोक’ (1958) में भट्टजी ने पश्चिमी उत्तरप्रदेश के तीर्थ
ग्राम पद्मपुरी के अंचल को मुखारित किया है |
देवेन्द्रनाथ सत्यार्थी के ‘रथ के पहिए’ (1953)
में गोंड जाति के जीवन का चित्रण किया गया है | कथा का अंचल करंजिया ग्राम है |
‘ब्रहमपुत्र’ (1956) में आसाम के लोक जीवन को मुखरित किया गया है | ‘दूधगाछ’ (1958)
को भी आंचलिक उपन्यास की श्रेणी में रखा गया है इसमें केरल के लोक जीवन को स्थानीय
रंगत के साथ चित्रित किया गया है |
रांगेय
राघव कृत ‘कब तक पुकारू’ (1958) में करनटो के जीवन का चित्रण है| यह विशुद्ध
जनजातीय आंचलिक उपन्यास है | ‘राई और पर्वत’ (1958) ‘पंथ का पाप’ (1960), ‘धरती
मेरा घर’ (1961), ‘आख़िरी आवाज’ (1963) भी उनके ग्रामीण लोकजीवन से सम्बन्धित उपन्यास
है |
शैलेश
मटियानी का ‘हौलदार’ (1960) कुमायूं के अल्मोड़ा के अंचल की कहानी है | ‘चिट्ठी रसैन’
(1961) में उडलगो गांव को कथा की पृष्ठभूमि में रखा गया है | ‘चौथी मुट्ठी’ (1962)
में कुमायूं के पर्वतीय अंचल के लोकजीवन को उभारा गया है | यह एक लघु आंचलिक
उपन्यास है |
रामदरश मिश्र के ‘पानी और प्राचीर’ (1961) में गोरखपुर
के स्थानीय भू-भाग को दर्शाया गया है|
‘सूरज
किरन की छांह (1959) राजेन्द्र अवस्थी का आत्मकथात्मक शैली में लिखा हुआ आदिवासी
गोंडो के जीवन को चित्रित करता है | ‘जंगल के फूल’ (1960) में मध्यप्रदेश के आदिमजाति की कहानी तथा वन्य
जीवन की सुन्दरता को दर्शाया गया है |
बलभद्र
ठाकुर कृत ‘मुक्तावती’ (1955), ‘आदिमनाथ’ (1959), ‘नेपाल की वो बेटी’ आदि आंचलिक
उपन्यास हैं |
अमृतलाल नागर कृत ‘सेठ बांकेमल’, ‘बूंद और समुद्र’ आदि उपन्यास में आंचलिक भाषा का प्रयोग किया गया
है |
भैरवप्रसाद गुप्त का ‘मशाल’ (1951) को भी आंचलिक
उपन्यास माना गया है | हालाकि उपन्यास का मूल स्वर साम्यवादी चेतना है | ‘गंगा
मैया’ में किसानों का आंचलिक जीवन प्रगतिवादी चेतना के जरिये मुखरित हुआ है | ‘सती
मैया का चौरा’ (1959) उत्तरप्रदेश के गाँव पिटारी के जनजीवन पर आधारित है|
डा.
लक्ष्मीनारायण लाल का ‘बया का घोंसला और सांप’ (1953) में ग्रामीण लोकजीवन और
ग्रामीण समस्याओं का मार्मिक चित्र प्रस्तुत किया गया है |
आनन्द प्रकाश
जैन का ‘आठवीं भंवर’ (1969) स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों पर आधारित आंचलिक उपन्यास
है |
शिवप्रसाद सिंह
का ‘अलग-अलग वैतरणी’ (1967) पूर्वी उत्तरप्रदेश के वाराणसी क्षेत्र के करैता ग्राम
की कथा प्रस्तुत करता है |
आंचलिक उपन्यासों
के प्रमुख स्त्री पात्र –प्राचीनकाल से स्त्री अपनी कोमलतम भावनाओं तथा समर्पित
जीवन से पुरुषों के लिए प्रेरणादायी स्रोत बन गई | मातृत्व की पीड़ा को सुखद मानकर
स्त्री ने सृष्टि का सृजन किया और विश्वमंगल की कामना रखी तथा वह त्याग, सेवा और
बलिदान का प्रतीक बन गई | इसी क्रम में परम्परागत पद्धति पर जीवनयापन करने वाली
स्त्री के जीवन में स्वतंत्रता के बाद आमूलचूल परिवर्तन आये|
शिक्षा तथा नई
चेतना से सम्बलित आज की स्त्रियों का विद्रोही स्वर उभर रहा है | आंचलिक उपन्यासकारों
ने स्त्री जीवन में इन सूक्ष्म चेतनाओं को पहचाना और अपने उपन्यासों में इसे
मुखरित किया |
शिवप्रसाद सिंह
कृत ‘अलग अलग वैतरणी’ में कनिया का चरित्र एक गम्भीर ग्रामीण भारतीय स्त्री का है |
पारिवारिक उत्तरदायित्व का गहनबोध उसके चरित्र में झलकता है | वहीं कनिया का दूसरा
रूप है जिसमें वह अपने पति बुझारथ सिंह की चरित्रहीनता को लेकर अत्यंत विद्रोही
रूप अपनाती है |उसका यह विद्रोही स्वर उसे भीतर से तोड़ता है किन्तु पारिवारिक
मर्यादाएं उसे मौन रहने पर विवश करती है | वह कहती है –“सच विप्पी बाबूजी के मारने
पर भी मैं ऐसी नहीं टूटी पर अपनी आँखों से यह सब देखकर सोचती हूँ कि यह जिन्दगी
भार है |”6
‘रतिनाथ की चाची’ में नागार्जुन मिथिला के जन
जीवन को कथा का आधार बनाया है | रतिनाथ की चाची गौरी विधवा ब्राह्मणी है | गौरी पर
उसके देवर जयनाथ को लेकर चरित्रहीनता का आरोप लगता है | असहाय गौरी जब गर्भधारण कर
लेती है तब लोग केवल उसका परिहास ही नहीं करते बल्कि उसका सामाजिक बहिष्कार भी
करते हैं | “ उमानाथ की माँ पतिता है, भ्रष्टा है,कुलटा है..............उससे किसी
भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए |”7 चाची
के चरित्र पर लगे दाग को हटकर उसके ममतामयी वात्सल्य रूप का भारतीय नारी के रूप
में चित्रित किया गया है |
नागार्जुन ने
‘नई पौध’ में बेमेल विवाह को दर्शाया है | मिथिला प्रदेश के सौराठ के मेले में
पितृहीना बिसेसरी के लिए उसके नाना के उम्र का वृद्ध वर चुना जाता है | इस बात का गाँव
का युवावर्ग जमकर विरोध करते हैं| इस विवाह के बात बिसेसरी वृद्ध के बच्चों की माँ
तथा पांच सौ बीघा जमीन की मालकिन बनने वाली थी | अत: शुभ कार्य में विलंब सर्वथा
अनुचित था इसलिए रात में ही सिन्दुरदान की तैयारी हो गई | किन्तु रामेश्वरी इसका
विरोध करती है-“दुल्हे को आने दो, उस बुड्ढे के माथे पर अंगारे न डाल दूँ तो मेरा
नाम रामेश्वरी नहीं, एक बुड्ढा मेरी लडकी का मांग भरेगा, मुँह झुलसा दूंगी मरदुए
का |”8
‘कुम्भीपाक’
में नागार्जुन ने शहरी जीवन में व्याप्त वेश्यावृति को दर्शाया है | कुम्भीपाक की
चम्पा पति की मृत्यु के बाद अपने जीजा से अवैध सम्बन्ध स्थापित कर लेती है| लेकिन
उसका जीजा समाज के भय के कारण चम्पा को पत्नी के रूप में स्वीकार नहीं करता और अंत
में उसे कुम्भीपाक में जाकर आश्रय लेना पड़ता है | “नहीं मैं खुश नहीं हूँ कोई भी
औरत खुश नहीं है कुंती | अच्छे घर की अच्छी बहुओं से जाकर पूछों, वे भी खुश नहीं
हैं | हमारी घुटन और किस्म की तो उनकी घुटन और किस्म की होगी |”8
नागार्जुन के ‘पारो’
उपन्यास की नायिका पार्वती का जीवन उसके बेमेल विवाह का परिणाम है| पारो कहती है-“जोर
जबरदस्ती कोई किसी के शरीर पर भी कर सकता है मन पर कतई नहीं | आपही कहिये 45 वर्ष
के वर की पत्नी 15 वर्ष की होती है वहां सौमनस्य कैसे सम्भव है?”9 इतना
ही नहीं इस विवाह के दारुण यातना को सहन करती हुई वह ईश्वर से प्रार्थना करती है- “लाख
दंड दे ईश्वर मगर फिर औरत बनाकर इस देश में जन्म नहीं दें|”10 पारो
कहीं भी परम्परावादी पत्नी की तरह हालात से समझौता करने को तैयार नहीं है | नारी
ह्रदय की सम्पूर्ण वेदना इस उपन्यास में दर्शाई गई है |
‘उग्रतारा’
उपन्यास के माध्यम से नागार्जुन ने नवयुवको में वैचारिक दृष्टिकोण बदलने का प्रयास
किया है | साथ ही नारी पात्रों के द्वारा समाज उत्थान की प्रगतिशील चेतना को
दर्शाया है |इस उपन्यास का पात्र कामेश्वर अपनी प्रेमिका उगनी (उग्रतारा) को बिना
किसी दबाव तथा सामाजिक बंधन के अभाव में स्वीकार कर लेता है | तथा जिस मनोभावना से
भाभी कामेश्वर तथा उग्रतारा की गृहस्थी बसाती है तथा समाज में प्रगतिशील विचारों
की पहल करती है वह सराहनीय है |
‘इमरतिया’
उपन्यास में प्रगतिशील चेतना तथा जागरूकता से सम्पन्न नई विचारधारा वाले समाज को
दर्शाया है |स्त्री हमेशा से नागार्जुन के रचना के केंद्र में रही है इस उपन्यास
में भी यह साफतौर पर दीखता है | उन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा हमेशा स्त्री को
समाज का सक्रिय अंग बनाने का प्रयास किया है |
‘दुखमोचन’
उपन्यास का नायक दुखमोचन अपने नाम के अनुरूप दुसरे के दुखदर्द को दूर करने का
कोशिश करता है| युवापत्नी की समय से पूर्व मृत्यु ने उसे परदुखों के प्रति
सम्वेदनशील तथा सजग बना दिया | उपन्यास के पात्र
माया, मामी, कपिल, अपर्णा आदि
दुखमोचन के इर्द-गिर्द घूमते हुए बड़े सजीव और जीवंत प्रतीत होते हैं | माया
और कपिल के प्रेम का पता जब उसकी माँ को चलता है तो वह बेटी की भलाई के लिए
परिस्थितियों के अनुसार अपने विचारधारा में परिवर्तन कर लेती है |
‘बया का
घोसला और सांप’ उपन्यास में विधवा जमुना की बेटी सुभागी की करुण कहानी उपन्यास के
केंद्र में है | सुभागी का पति रामनाथ बीमारी से पीड़ित एवं कोढ़ से ग्रसित है | पति
की पौरुषहीनता तथा सुभागी के स्वस्थ सौन्दर्य का वर्णन लेखक ने किया है –“उसका पति
विकृत पुरुष है जबकि वह स्वस्थ स्वर्ण रूपवर्णा युवती है| पति कोढी तथा वह सुहागीन
स्त्री है | पति राख है, वह आग है | पति मृत्यु की भयावह छाया है और सुभागी जीवन
की स्मित रेखा | पति सन्नाटा है सुभागी संगीत है |”12 उपन्यास में पुरैना और सिकन्दरपुर गाँव के
स्त्रियों की कहानी है | वास्तव में यह
उपन्यास सम्पूर्ण अंचल के स्त्रियों की करुण गाथा प्रस्तुत करती है |
‘नदी फिर बह चली’ हिमांशु जोशी कृत उपन्यास में
परबतिया का चरित्र जुझारू एवं संघर्षशील है | वस्तुत: परबतिया के रूप में लेखक ने
एक ऐसी सजग स्त्री को गढ़ा है जो नारी जाती को नवजागरण का संदेश देते हुए सामाजिक
न्याय और मूल्यों की रक्षा के लिए संघर्ष करती है |
राजेन्द्र
अवस्थी कृत ‘जंगल के फूल’ आदिवासी युवती महुआ की कथा है | महुआ सलूक से प्रेम करती
है और उससे विवाह करना चाहती है सलूक इसके लिए तैयार नहीं होता है और गाँव छोड़कर
चला जाता है | महुआ अपना सम्पूर्ण जीवन आदिवासी महिलाओं के विकास में लगाती है |
उसमे चिन्तन और संकल्प शक्ति का अद्भुत सामंजस्य है | वह कहती है-“हम औरतों को तुम
नाजुक न समझो | हम पिरेम भी कर सकती हैं तो दुश्मन के दांत भी उखाड़ सकती है |”13
उसने अपना सम्पूर्ण जीवन अंचल की महिलाओं के लिए समर्पित कर दिया | बस्तर की
आदिवासी स्त्रियों को शस्त्र चलाना तथा युद्ध के अन्य तौर-तरीकों की जानकारी देना
अब उसके जीवन का ध्येय हो गया|
उदयशंकर
भट्ट कृत ‘लोक-परलोक’ सामाजिक यथार्थ की भूमि पर लिखा गया एक सफल आंचलिक उपन्यास
है | उपन्यास की नायिका चमेली विशुद्ध भारतीय नारी का प्रतीक है | चमेली के चरित्र
के माध्यम से लेखक ने यत्र-तत्र उपन्यास में नारी चेतना को दर्शाया है |
नागार्जुन
कृत ‘वरुण के बेटे’ में मधुरी का चरित्र वात्सलय और क्रान्ति का है | वह पुरुष के
कंधे से कंधा मिलाकर काम करती है | मधुरी द्वारा सरलता से अपने प्रेमी का त्याग
करना एक सहज घटना प्रतीत होता है | माधुरी कहती है –“जिन्दगी और जहान औरतों के लिए
नहीं होते क्या”14
‘दीर्घतपा’
रेणु कृत उपन्यास स्वतंत्र भारत के नारीजीवन की अत्यंत करुण कहानी है | उपन्यास की
नायिका बेलागुप्त की एक अत्यंत सात्विक, साहसी, पराक्रमी तथा क्रांतिकारी मनोवृति
की है जो देश के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने को तैयार रहती है | लेकिन समाज के
तथाकथित ठेकेदारों के कुकर्मों की सजा बेलागुप्त को मिलता है| बेला सचमुच दीर्घतपा
है | उसका सम्पूर्ण जीवन दुखमय तथा दुखपूर्ण है |
रेणु
कृत ‘जुलूस’ उपन्यास की नायिका पवित्रा चटर्जी है | उपन्यास की कथावस्तु गोडियर
गाँव के राजपूत, ग्वाले तथा गोडी टोलों के लोगों की जीवन को दर्शाता है | वहां के
जन-जीवन में प्रचलित अंधविश्वास, रीतिरिवाज एवं अन्य धार्मिक परम्पराओं का वर्णन
मिलता है | पवित्रा का जीवन दुःख एवं सामाजिक असमानताओं का शिकार है | वह कहती है-“मैं
जन्म से लेकर आज तक दुःख भोग रही हूँ | मैं जहाँ जाती हूँ अपने साथ प्रलय ले जाती
हूँ.....मौत, मुझसे प्यार करनेवाला ज्यादा दिन तक जीता नहीं|”15 नारी जाति के त्याग और समर्पण की भावना उपन्यास
में भावुकता का वातावरण उत्पन्न करती है |
‘परती
परिकथा’ की नायिका इरावती लाहौर से दिल्ली और बिहार तक शरणार्थी कैंपों की ख़ाक छानती
है | दस महीने में तीन राजनीतिक पार्टियों से सम्बन्ध जोड़ती और तोड़ती है | उसके
चरित्र के सम्बन्ध में तरह-तरह की बातें उड़ती है | इरा का दर्द और बेबसी इन शब्दों
में झलकता है-“असल में प्यार करने की ताकत मुझमें नहीं है | मेरे प्यार को लकवा
मार गया है | दिन रात इसी चेष्टा में रहती हूँ कि मेरा प्यार फिर से पनपे किन्तु
कोई अधर्म नहीं किया | हजारों औरतों पर
बलात्कार होते हुए देखा है .......दिन रात इस पीड़ा से छटपटाई हूँ और चीखती रही हूँ
........सड़े हुए संतरों की तरह सड़कों पर कटी हुई छातियों को लुढ़कते हुए देखा है |
मेरी छाती पर भी दो कटे हुए स्तन रखे हुए हैं-बेजान मांस के टुकड़े | इतना सब कुछ
देखने और सहने के बाद किसी औरत का दिल-दिमाग प्यार करने के काबिल कैसे रह सकता है
?”16 कथावस्तु बिहार के कोशी
परियोजना इरावती जितेन्द्र और उसकी नटिनी प्रेमिका ताजमनी के इर्द-गिर्द घूमता है
|
‘मैला आँचल’
की नायिका कमली तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद की बेटी है | भोली-भाली लड़की कमली
डा.प्रशांत के प्रेम में पड़ती है | जब डा.प्रशांत जेल में रहते हैं तो वह बिना
विवाह के उसके बच्चे की माँ बनाती है | इस तरह से वह सामाजिक मान्यताओं को दरकिनार
करती है | कमली का चरित्र एक प्रेमिका तथा माँ के रूप में सशक्त रूप से उपन्यास
में उभरता है |
मैत्रेयी
पुष्पा कृत ‘चाक’ भी आंचलिक उपन्यास है | उपन्यास की नायिका सारंग की विधवा बहन
रेशम को मौत के घाट उतार दिया जाता है क्योंकि वह गर्भवती थी | सारंग इन सब
अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाती है तथा सशक्त रूप में उभरकर उपन्यास में सामने आती
है| वस्तुत: यह उपन्यास सही मायने में ग्रामीण स्त्री के एम्पावरमेंट को दर्शाता
है |
प्रभा
खेतान की ‘छिन्नमस्ता’ की नायिका प्रिया के चरित्र को परम्परा,पूंजी और पहचान की आत्मसंघर्ष
के रूप में दर्शाया है | प्रिया का मानना है व्यवस्था को तोड़नेवाली औरत को जहाँ
समाज सौ कोड़े लगता है, वहीं पुरुष को क्रांतिकारी कहकर मंच पर बिठाता
आंचलिक उपन्यास की प्रमुख उपलब्धि है देश, काल या
परिवेश को सर्वथा नवीन रूप में ग्रहण करना | इनमें प्रदेश, विशेष या जाती विशेष के
जीवन, प्रश्न, रीति-रिवाजों, प्रथा, परम्परा, आस्था, संस्कृति, लोक जीवन, बोली, गीत,
लोककथा आदि का चित्रण विशेष कौशल और विस्तार से किया जाता है | समसामयिक चेतना तथा
आधुनिक भाव बोध इन उपन्यासों में गहराई के साथ उभरकर सामने आया है | सामाजिक विषमता
और राजनीतिक संघर्ष के साथ सामाजिक चेतना के विकास के साथ-साथ स्त्री चेतना का
विकास भी इन उपन्यासों में अभिव्यक्त हुआ है |
इनके साथ-साथ आंचलिक उपन्यासकारों ने पारिवारिक विघटन, दाम्पत्य जीवन में
बिखराव तनाव, बन्धुत्व भाव में त्याग और सहयोग के स्थान पर स्वार्थपरता आदि
प्रवृतियों का अपने कृतियों में स्थान दिया है | ग्रामीण जन जातीय समाज के
परम्परागत स्वरूप को साहित्य के आँगन में प्रस्तुत कर इनकी समस्याओं से अवगत कराना
ही इन उपन्यासकारों का ध्येय रहा है | स्त्री चेतना के बुलंद स्वर भी इन उपन्यासों
में स्पष्ट तौर पर देखने को मिलता है | ‘मैला आंचल’ की कमली, लक्ष्मी ‘दीर्घतपा’
की बेलागुप्त ‘जुलूस’ की पवित्रा, ‘परती परिकथा’ की इरावती, ताजमनी, ‘ब्रह्मपुत्र’
की आरती, ‘जंगल के फूल’ की महुआ ‘रतिनाथ की चाची’ की गौरी,
‘नई पौध’ की बिससेरी, ‘कुम्भीपाक’ की चम्पा तथा नीरू, ‘पारो’ की पार्वती, ‘उग्रतारा’
की उगनी,
‘दुखमोचन’ की माया, ‘बया का घोसला और सांप’ की सुभागी ‘वरुण की बेटी’ की मधुरी, ‘चाक’
की सारंग ‘छिन्नमस्ता’ की प्रिया ये स्त्री पात्र ग्रामीण, सामाजिक व्यवस्था के पुनर्निर्माण
में किसी आलोक स्तम्भ से कम नहीं |
1.हिन्दी
उपन्यास का अंतर्यात्रा-डा.रामदरश मिश्र, पृ.32
2.पिछले
दशक की देन,आंचलिक उपन्यास साहित्य का संदेश-श्री विश्वंभरनाथ उपाध्याय –पृ.6
3.स्वातन्त्र्योत्तर
हिन्दी उपन्यास-कान्ति वर्मा पृष्ठ-184
4.शास्त्रीय
समीक्षा के सिदाध्न्त – डा. गोबिंद त्रिगुणायत,पृष्ठ-432
5.मैला
आँचल –फनीश्वरनाथ रेणु (भूमिका)
6.अलग-अलग
वैतरणी –शिवप्रसाद सिंह पृ.404
7.रतिनाथ
की चाची-नागार्जुन पृ.47
8.नई
पौध-नागार्जुन-पृ.80
9.कुम्भीपाक-नागार्जुन-पृ.82
10.पारो-नागार्जुन-पृ.49
11.वही
पृ.53
12.बया
का घोसला और सांप-लक्ष्मीनारायण लाल पृ.137
13.जंगल
के फूल-राजेन्द्र अवस्थी,पृ-189
14.वरुण
के बेटे-नागार्जुन, पृ.79
15.जुलूस-रेणु,
पृ.139
16.परती
परिकथा-रेणु पृ.121
आंचलिक लेखन आज की जरूरत है, क्योंकि अधिकांश लेखक शहरी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं या अपना लेखन कला वृद्धि के लिए शहर की तरफ रुख करते हैं । आपका लेख शानदार है और अनुकरणीय भी...
जवाब देंहटाएंकृपया मुझसे संपर्क करें- 9015487806
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत उत्तम लेख
जवाब देंहटाएं'नदी फिर बह चली'उपन्यास स्व.हिमांशु श्रीवास्तव द्वारा रचित मौलिक औपन्यासिक कृति है। त्रुटि को सुधार कर लें
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर शोधपत्र है.
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