आज रविवार( 20 दिसंबर ) को 16 दिसंबर 2012 के निर्भया कांड
का एक आरोपी जुबेनाइल होने के आधार छूट जायेगा. आम्बेडकर यूनिवर्सिटी , दिल्ली की
शोधछात्रा ज्योति इस घटना को स्त्री के खिलाफ एक परिघटना मान रही हैं . साहित्य और
समाज में घटित उद्धरणों से वे स्त्री की पीड़ा को समझने -समझाने की कोशिश कर रही
हैं . सच है कि इस वीभत्स बलात्कार काण्ड के सबसे क्रूर आरोपी को जुबेनाइल होने के
आधार पर मिली छूट से बन रहे आक्रोश और जुबेनाइल क़ानून में निहित
मानवाधिकार का एक द्वंद्व तो है ही. इस बीच एक अच्छी बात हुई कि अब तक जिस पीडिता
का नाम छिपाया जा रहा था , काल्पनिक निर्भया नाम से पुकारा जा रहा था , उसका नाम उसकी
माँ ने सार्वजनिक किया , वह ज्योति सिंह थी. नाम छिपाने की परम्परा भी स्त्री विरोधी
है , जो यौन हिंसा की
शिकार स्त्री के ' इज्जत खो देने' की सोच से बनी थी
, जिसका अर्थ होता
है कि पीडिता ही अपराधी है. पीडिता को पीडिता मानने और नाम छिपाने की परम्परा को
हतोत्साहित किया ही जाना चाहिए.
16 दिसम्बर को निर्भया को नम आंखों से श्रद्धांजलि दी
गई। प्रश्न यह है कि2012 की रात बसंत
विहार क्षेत्र में हैवानियत की शिकार बनी निर्भया के साथ न्याय हुआ? उसका आरोपी तो
नाबालिग होने के कारण बाहर आर हा है।तीन वर्ष पूरे हो गए और लगता है जैसे कल
की ही बात है, क्योंकि इस घटना
को भूलने कामतलब ही नहीं बनता।भूला वही जाता है, जो एक बार हो लेकिन यह सिलसिला तो कभी थमा ही नहीं।
हर रोज़ अखबारों में यह खबर मिल ही जाती है कि आज फिर किसी निर्भया को किसी दरिंदे
ने अपनी हवस का शिकार बनाया। आंखों के सामने वे सारी तस्वीरें आ जाती हैं और यही
प्रश्न करती है कि कब तक हमारी तस्वीरों के सामने मोमबत्तियां जलाई जाएंगी? कब तक बंद करो , बंद करो का नारा
लगाते हुए लोग जंतर-मंतर पर इकट्ठा होंगे? कब तक न्याय की गुहारल गाई जाएगी? सब चुप हैं।
इमराना, अरुणा, निर्भया सब पूछ
रही हैं क्यों चुप हैं सब?
निर्भया की मां नेअपनी दिवंगत हो चुकी बेटी को याद करते हुए
कहा ‘‘दुनिया भर में मेरी बच्ची को 16 दिसम्बर को श्रद्धांजलि दी गई । हालात बदलनी
चाहिए।अपनी बिटिया की फोटों के आगे खड़े होने पर एक अपराध-बोध होता है कि तीन
सालों के बाद भी इंसाफ अधूरा है। जिस दरिंदे ने बेटी को सबसे अधिक दर्द दिया, वह महज नाबालिग
होने के चलते बाहर आ जाएगा।उसे सजा मिलती तो सही मायने में इंसाफ होता". पिता
बद्रीनाथ ने कहा "हर दिन नाबालिग की रिहाई की बातें सुनकर डर लग रहा है कि
आखिर क्या सच में कानून उसकी उम्र के चलते उसकी गुनाह की सजा नहीं दे पाएगा।’’1
इतनी दरिंदगी से अपने काम को अंजाम देने वाले मुजरिम को
सिर्फ और सिर्फ
जुबेनाइल के आधर पर छोड़ा जा रहा है।जुबेनाइल यानी जो सेक्सुअली अपरिपक्व हो।सोचने
वाली बात यह है कि अपरिपक्व स्थिति में इस दरिंदे ने एक लड़की की इतनी दर्दनाक
हालत कर दी , दस पन्द्रह साल
बाद स्थिति क्या होगी सोचकर बदन सिहर उठता है।इतनी घिनौनी हरकत करने पर मुजरिम को
जुबेनाइल के आधार पर छोड़ा जा रहा है। धन्य है हमारी न्याय व्यवस्था! अरुणा को
बेदर्दी से बलात्कार कर मौत के घाट उतारने की कोशिश की गई।बयालिस वर्ष वह कोमा
में रही । घर परिवारवालों ने भी उसका साथ छोड़ दिया और उसका आरोपी महज सात साल की
सजा काटकर छूट गया।क्या कुछ अपराध के लिए तयसुदा सजा के मानदण्ड बदलने की जरूरत
नहीं है? निर्भया के साथ
भी यही हो रहा है।उसके माता-पिता सरकार से , कानून से न्याय की मांग कर रहे हैं।आरोपी को ऐसी सजा
मिले कि इस तरह का काण्ड करने की सोचने पर भी दरिंदा सिहर जाए।अगर ऐसा ही न्याय
होता रहा जैसा कि हो रहा है तो फिर बंद कीजिए लड़कियों का बाहर निकलना क्योंकि जब
वह सुरक्षित ही नहीं तो सब व्यर्थ है।
हर गली हर नुक्कड़ परआंखों में हवस लिए शिकारी ताक में बैठा
हुआ है।स्कूल जाती, कालेज जाती,काम पर निकली लड़की के घर से निकलने का समय तय है लेकिन वह
कितनी सुरक्षित लौटेगी यह तय नहीं। यह ऐसा छिपा हुआ राक्षस है, जो दिखाई नहीं
देता।जिसके दंश औरत जाति के शरीरको कब लहूलुहानकर दे, कोई पता नहीं।
नमिता सिंह ने इसलिए लिखा है ‘‘छिन्नमस्ता की प्रिया अकेली नहीं जो भाई के हवस का
शिकार होती है या सोना चौधरी के ‘पायदान’ की आंचल जो गांव में बैठक के कमरे में
रोज रात कोअपने भाई या उसके दोस्तों के हाथों कुचली जाती है।किसके पास रोते हुए
जाए वह बच्ची , इमराना या रानी‐‐‐या कोईऔर‐‐‐।’’2 इस यातना
से उबारने वाला कोई नहीं जिसका हाथ सिर पर सुरक्षा के लिए होनाचाहिए वही औरत से
उसका औरतपन छीन लेना चाहता है।
अतः हम कह सकते हैं कि समय बदला, सत्ता बदली,सोंच बदली पर औरत
की स्थिति अभी भी नहीं बदली।सचमुच वह पीड़ा भोगने के लिए अभिशप्त है। यह सब
देखकर तो यही लगता है कि जैसे हर तरफ पुरुष की चीत्कार है, हाहाकार है , जैसे वह चुनौतिपूर्ण
शब्दों में कह रहा हो कहां तक भागोगी समाज हमारा ,सत्ता हमारी
है।किसी न किसी रूप में तुम भोगने ,सहने , पीडि़त होने के लिए अभिशप्त हो। प्रभा खेतान ने इसी सच की
अभिव्यक्ति करते हुए लिखा ‘‘छिः मुझे नफरत है इस पुरुष जाति से।नफरत है उससे
जो मासूम, छोटी, नादान लड़की को
भी नहीं छोड़ता‐‐‐क्या समाज स्त्री की रक्षा करता है? क्या पुरुष
की कामुक हवस का शिकार होने से मासूम लड़कियां बच पाती हैं?’’3 सचमुच स्त्री का लेखन
उसके अनुभूति की सच्ची अभिव्यक्ति होती है।अनुभूति की सच्ची अभिव्यक्ति जब होती है
तो वह रोम-रोमको झकझोर देती है।
निर्भया, अरुणा, इमराना, रानी‐‐‐न जाने कितनी ऐसी हैं, जो जिनकी आत्मा
न्याय का इंतजार कर रही हैं।जब तक इनके साथ न्याय नहीं होगा तब तक ये हर औरत में
जिंदा रहेंगी। हमारे यहां इंसाफ और न्याय की हालत देखकर तो यही कहा जा सकता है कि
‘सुनो तुम चाहे जिसे चुनो मगर इसे नहीं इसे बदलो।’ हर बलात्कार पीडि़ता के
माता-पिता इसी आस में जिंदगी काट रहे हैं कि कब उनकी मृतक बेटी को इंसाफ मिलेगा और
हमारा कानून सिर्फ जुबेनाइल के आधार पर आरोपी को छोड़ रहा है।इसकी समीक्षा करने की
जरूरत है। खासकर जब अपराध हत्या और बलात्कार जैसे जघन्य अपराध से जुड़ा हो।आकड़े
बताते हैं कि निर्भयाकाण्ड के बाद फैले असंतोष और सामाजिक क्रांति के बाद भी कुछ
नहीं बदला।
संदर्भ सूची-
1‐संपादक-ओमथानवी ,जनसत्ता, 17 दिसम्बर,2015 , पृ0सं0-3
2‐ सिंह नमिता- ‘कुचला जाता हर रोज आंचल’, संपादक-महेन्द्र मोहन गुप्ता, दैनिक जागरण, कसौटी अंक-2सिम्बर-2005, जमशेदपुर, पृ0सं0-1
3‐ खेतानप्रभा-छिन्नमस्ता, पहला संस्करण-199,एदूसरीआवृत्ति- 2004, राजकमलप्रकाशनप्रा0 लि0, नई दिल्ली-110002, पृ0 सं0-119
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