’त्रिया हठ ’ (2006) मैत्रेयी पुष्पा (1944) के लेखन हठ का एक सटीक प्रमाण है, स्त्री लेखन एक प्रकार से लेखन हठ हीं तो है। जो अब तक जिस रुप में नहीं कहा गया , नहीं कहा जा सका , उस अप्रत्यशित सत्य को इस रुप में कहने की हठ की तथाकथित शालिनता के पर्दे हिल उठे । ठीक है कि मातृत्व स्त्री जीवन की परिपूर्णता है । लेकिन उसे भयंकर त्याग का पर्यायवाची बनाकर स्त्री को जीवित इच्छाओं आकांक्षाओं की ठंडी कब्र बना देना कहाँ का न्याय है? स्त्री से सब प्रकार की बलिदान और त्याग का माँग करने वाला समाज उसे आत्म्भिव्यक्ति तक का हक नहीं देता । महिला रचनाकरों को ऎसे अनुभवों से गुजरना पड़ा है , जहाँ उनके शब्दों को परिवार ने संपादित किया है, सेंसर किया है । फिर भी स्त्रियाँ लिख रही हैं , लिखे जा रही हैं यह लेखन हठ नहीं तो और क्या है। अनुभव की प्रामाणिकता में स्त्री को अपने चरित्रगत उत्थान को पति के घर और घेरे में सीमित कर लेना पड़ता है । इस घेरे से बाहर निकलने के प्रयत्न का अर्थ है दुश्चिरत्रता का लांछन झेलना । लेकिन लेखिकाओ का अनुभव संसार इतना शाही नहीं होता ,वे भी अपने समय और समाज पर गहरी नजर रखती है और उसकी उन भीतरी सच्चाईयों से परिचित रहती हैं, जिन्हें पुरुषों की दुनिया सदा अंधेरे में कैद रखती है । ’त्रिया हठ ’में भी कुछ ऎसी ही अंधकार ग्रस्त दबी छिपी सच्चाइयों को सामने लाया गया है ।
इस उपन्यास में मुख्य आठ पात्र सम्मिलित हैं। मीरा इस कथा की वाचिका है। केंद्रीय पात्र है उर्वशी जो मीरा की सखी है; उससे कम आयु की है, वैधव्य झेल रही है और मीरा के पिता की प्रेमिका है । बरजोर सिंह मीरा के पिता हैं ,उनकी पत्नी की मृत्यु हो चुकी है । अजीत उर्वशी का भाई है ,बरजोर सिंह की कृपा दृष्टि से उसे वन विभाग की नौकरी मिली है। उदय बरजोर सिंह का छोटा बेटा है तथा उर्वशी से शादी करना चाहता है। सर्वदमन सिंह उर्वशी के पति एंव वकील है जिसकी रोड दुर्घटना में मृत्यु हो जाती है शत्रुजीत सिंह उर्वशी का जेठ है तथा सर्वदमन की मृत्यु के बाद उसके हिस्से की जायदाद हड़पने के फिराक में है । देवेश उर्वशी का बेटा है जो अपनी माँ की मौत की सच्चाई पता लगाना चाहता है ।
’त्रिया हठ ’(2006) की कथा वस्तु पतिव्रता उर्वशी की कथा है । एक बेटे द्वारा अपनी माँ की मौत की सच्चाई ढूँढ़ने की और माँ को इंसाफ दिलाने की कथा । कहानीकार को एक बेटे की चुनौती की गाथा कि-
"क्या सचमुच मेरी माँ की प्रकृति ऎसी थी जैसा कि आपने कहानी में दी है ? नहीं ऎसी प्रकृति किसी लड़की की नहीं होती । आप लोगों ने किसी औरत की असली कहानी नहीं लिखी ,घर -परिवार और समाज की मर्यादा की चापलुसी में कहानियाँ लिखी हैं, इस सत्य को स्वीकार कर लें तो आपकी भी ईमानदारी बची रहेगी।" (आवरण पृष्ठ)
बात उन दिनों की है जब देवेश की मामी प्रधान पद की उम्मीदवार के रुप में खड़ी हुई थी । उन्हें आशा थी कि देवेश वोट माँगने में उनकी सहायता करेंगें लेकिन मीरा को आशा नहीं थी कि देवेश भी यहाँ मिलेगा । देवेश मीरा के सामने अपना प्रश्न दोहराता है
,"बताओ न मीरा जिज्जी । तुमने आज तक हमारे सवाल का जबाब नहीं दिया , तुम्हारे पिता ने हमारी अम्मा को दिनारी (धीमी गति से असर करने वाला जहर) दी थी न । मीरा ने अपनी जड़ता पर काबू पाते हुए कहा- "हमारे यहाँ से तो अच्छी भली ही गयी थी । "(पृ.सं.-11)
अन्य रिश्तेदार आ गए बात आई-गई हो गई । यह वही देवेश है जो बचपन में अपनी तुतली बोली से मीरा को ’मौछी-मौछी’ कहा करता था । मगर जवानी आते ही संबंधों की असलियत जान गया और मौसी से जिज्जी कहने लगा । यह शब्द उतना ही तीखा है जितना की मौसीपना मीठा था। देवेश मीरा से कहता है
"तुम्हारे पिता की औरत मेरी माँ;तुम मेरी माँ की सखी ही सही बहन तो नहीं मौसी कैसे कहूँ ? तुम्हारे ही घर में वह औरत बेइज्ज्त हुई जिसका नाम उर्वशी था ।"(पृ.सं.-15)
देवेश से सामना होते ही मीरा के अंदर मातृत्व सा जागा , मगर संवाद हुआ तो एकाएक उल्लास का रंग बदल गया । ममता बदरंग हो गई । मीरा ने सोचा , सारी कहानी की सच्चाई देवेश के सामने रख देगी । लेकिन कहानी क्या दो दिन की है, जो तुरंत उत्तर मिल जाए । एक जिंदगी की कथा कई जिंदगी को समेटे रहती है । अपना रुप आदमी खुद बनाता बिगाड़ता है । देवेश कहता है मीरा जिज्जी मुझे साबित करना है कि मेरी माँ बदचलन नहीं थी , चंदनपुर वाले कायर और कातिल है ।
"मीरा कहती है , क्या कहूँ ! देवेश मर्द घर परिवार के हों या बाहर के एक हीं बात पर कमर कसे रहते हैं कि उनके घर की औरतें कितनी शुद्ध पवित्र हैं।" (पृ.सं.17)
मीरा सोचती है जो जानकारी यह लड़का इतना अधीर होकर माँग रहा है, क्या उसके साथ इंसाफ कर पाएगा ? विलुप्त हुई स्त्री की पहचान के कटे फटे अवशेष तक पुनः लौटना चरित्र की उस उँचाई तक चढ़ने की मशक्कत है, जो अपने आप में उँचाईयों को शिखर लगे । बेटे से माँ की तमाम न कहने वाली बातें कैसे बताई जा सकती हैं ? बेटे के पास तो माँ की छवि देवी की है,सती की है जो किसी तरह सामान्य या साधारण औरत की छवि नहीं हो सकती । सच्चाई जानने पर कहीं अपनी माँ को कुलटा न मान बैठे । मीरा देवेश से कहती है-
"देवेश कहानी के पात्र हमारे बीच नहीं हैं तुम उर्वशी के बेटे हो मगर उसकी मामुली कहानी नही सुनने आए । मामूली औरत गैर मामूली कारनामों से गुजरेगी ,कहानी तभी बनेगी न ।"(पृ.सं.-31)
मीरा के मन में पुनः प्रश्न उठता है ,कहीं देवेश अपनी माँ की कहानी अपनी लोकप्रियता के लिए तो छपवाना नहीं चाहता । देवेश कहता है -
" मैंने अपनी माँ की मौत नहीं देखी । मुझे हत्या का अनुमान है। हत्या के साथ सवाल जुड़ जाते हैं जो कि मौत के साथ नहीं होते ।"(पृ.सं.-32) |
मीरा अतीत में जाती है-
" राजगिरि का घर यह नहीं था । पुराना था। पुराने घर पुराने लोग । अपनी तरह का अनुशासन । परिवार जैसे कोई स्कूल हो ,स्कूल के हेडमास्टर नाना ,नानी हेडमिस्ट्रेस । दोनों बुजूर्ग हमारे समय को जिस शक्ल में ढालते हम उसी सूरत में हर काम को अंजाम देते । ये वही मामी हैं, जो आज प्रधान पद की उम्मीदवार है जब ब्याह कर आई थीं तो इनके रहने -सहने , उठने -बोलने ,बतियाने की एक निर्धारित सीमा थी| मेरी माँ की मृत्यु हो चुकी थी । मेरा बड़ा भाई विजय फिर भी सीधा-सादा था,लेकिन उदय पहले नंबर का जिद्दी था । दादी ने मुझे अपने घर चंदनपुर से अलग कर राजगिरि यह कहकर भेज दिया कि दो लड़कों के मुकाबले लड़की की जिम्मेदारी भारी है। नाना-नानी तथा मुझसे उम्र में छोटी उर्वशी ( जो मेरी सहेली सेविका सब कुछ थी) के संरक्षण में मैं चंदनपुर को धीरे-धीरे भूलने लगी । मेरे पिताजी यहाँ आते तो मैं उर्वशी के घर में छिप जाती । लेकिन उर्वशी मेरे पिताजी को फूफा कहकर प्रसन्न मन घूमती फिरती ।"(पृ.सं.-20)
देवेश उस घर को देखता है जहाँ उसकी माँ उर्वशी रहा करती थी जो अब खंडहर में तब्दील हो चुका है। देवेश मीरा से कहता है वह यहाँ घर बनवाना चाहता है । मीरा कहती है जहाँ तक मैंने सुना है तुम ब्याह न करने की ठान चुके हो,फिर उसमें कौन रहेगा ? वह कहता है उर्वशी । मैं अपनी बेटी का नाम उर्वशी रखूँगा । मीरा कहती है बिना ब्याह के ही उर्वशी पैदा होगी ! देवेश कहता है-
"जिज्जी उर्वशियाँ विवाह के बिना हीं पैदा होती है , विवाह तो उनका खात्मा कर डालता है ।" (पृ.सं.-23)
मीरा बात बदलने की गरज से देवेश को अपनी तथा उर्वशी के बचपन की कहानी सुनाती हैः
" हमारे घर के बीच एक दीवार हुआ करती थी। मेरे जिद्द पर नाना ने उसमें खिड़की लगवा दी । मैं और उर्वशी एक दूसरे के घर कूदकर जाया करते थे । खिड़की थी कि हमारी इच्छाओं का झरोखा ।"(पृ.सं.-24)
देवेश के नाना कर्जा उठाते ,ब्याज पटाते अपनी जिंदगी काट रहे थे । अपनी हालत सुधारने के लिए उन्होंने अजीत को यह सोचकर पढ़ाया कि बेटे की नौकरी एकमुश्त रकम मिलने का साधन बनेगा । मीरा की आँखों के सामने अनायास ही उर्वशी का किशोरी रुप उभर आया -गोरा रंग ,तीखी आँख ,तोता नाक ,सुराही गर्दन , भरी -भरी देह मगर उर्वशी को अपने अप्रतिम रुपवती होने की खबर नहीं थी ।
एक दिन अजीत मामा के गैरहाजिरी में गेरुआ वस्त्र धारण किए बैरागी आता है। दादा ने बैरागी के चरणों में साष्टांग दंडवत कर हाथ जोड़ कर पूछा , महराज हमारी मोड़ी का हाथ देखकर बताना शादी -ब्याह का संजोग कब बैठता है। बैरागी कहता है -
" कन्या को भिजवा दो । हमारा प्रदोष व्रत है। हमारे लिए दूध लाना आप । जब तक नाना घर से बाहर निकले ,उर्वशी ने अपने आपको कोठरी में बंद कर लिया । इधर साधु चबूतरे पर चिमटा गाड़कर बैठ गया। नानी ने कहा-" साधु को हड़काओ। नाना ने कहा पाप तुम लोगी ? सराप देगा ,नरक में जाएगें हम।"(पृ.सं.-35)
गाँव के लोगो ने साधु का चिमटा, कंमडल उठाकर गली में फेंक दिया । नाना ने कहा महराज कोई अज्ञानी लड़का बदसलुकी कर जाए इससे पहले आप यहाँ से चले जाएँ । साधु ने कहा -
"बच्चा इस घर की कन्या से भिक्षा दिलवाओ, उसका मंगल होगा । वह तेज की स्वामिनी है। उसके हाथ में चक्र है, पाँव में पदम है , वह पदमिनी के नस्ल की है मगर भाग्य में वैध्व्य है। उसके हाथ से दान करवाओ ग्रह शांत होंगे ।"(पृ.सं.-36)
सीता को कहाँ पता था साधु कपटी वेश धारण कर उनका हरण करने आया है । उर्वशी को भी नहीं मालूम था महात्मा उससे कहेंगे , हमारे संग चलो मुक्ति पाओ । रावण सीता को ले गया ,राम ने सीता के लिए विलाप किया उर्वशी के लिए यहाँ कौन रोने वाला था । माँ बाप अपनी इज्ज्त लुट जाने पर रोते थे न कि उर्वशी के लिए । इधर यह वैरागी तो सिरसा वाले शत्रुजीत सिंह का आवारा चचेरा भाई निकला । लोगों ने उसे जबर्दस्ती सिरसा पहुँचा दिया ।
इधर पढ़ा-लिखा बेरोजगार अजीत नौकरी की तलाश में दर-बदर की ठोकरें खा रहा था । अंत में थक हारकर अजीत अपनी माँ से कहता है माँ मुझे नौकरी के लिए एलकारों को पैसा देना है । वे मोहरे मुझे दे दो जो तुम्हारे पास रखी हैं। माँ कलयुगी पूत को देखती रह गई । मोहरें अजीत के ससुराल से ब्याह में आई थीं, आज अजीत उन मोहरों पर अपना हक जता रहा था ।
आज माँ को महसुस हो रहा था -
"इससे अच्छा तो बिटिया को पढ़ा लेते । मोड़ी कम से कम मास्टरनी तो हो जाती । सारा दारोमदार लड़के पर तो कायम नहीं रहता ।"(पृ.सं.-45)
माँ ने चुपचाप मोहरें बेटे के हवाले कर दी । लेकिन मोहरों के पैसे ऎलकार को देने के लिए पूरे नहीं पड़े । अजीत ने अम्मा के पाँवों की तरफ देखते हुए कहा ,अम्मा अपना पैंजना दे दो ,काम बन जाएगा । माँ बोली , पैंजना न मिलेंगे लला । अजीत ने समझाया ; माँ नौकरी में हम से ज्यादा पैसे वालों की लाइन है। चंदनपुर वाले फुफा इंतजार नही करेंगे । बरजोर सिंह के प्रयास से किसी तरह अजीत को नौकरी मिल गई । आदमी कर्ज से ज्यादा एहसान से दबता है, यहाँ तो कर्ज और एहसान दोनों माफ थे। इस उदारता ने बरजोर सिंह की इज्जत राजगिरि में कई गुना बढ़ा दी ।
इधर मीरा की नानी अजीत की माँ से यह कहकर लड़ाई करती है कि तुम माँ -बेटी की नजर चंदनपुर में हमारे दामाद की जायदाद पर है । उर्वशी के बाबत तुम हमारे दामाद को चाहते हो । लेकिन अजीत सिरसा के शत्रुजीत सिंह के छोटे भाई सर्वदमन से उर्वशी की शादी तय कर देता है । मगर शत्रुजीत सिंह सर्वदमन से इस बात पर नाराज होता है कि यह भी कोई बात हुई वकालत पढ़कर आदमी बिना दान दहेज के शादी करे, नाक कटाने वाली बात । पढ़ाई लिखाई में खर्चा हुआ उसकी भरपाई कौन करेगा ? सर्वदमन जो कमाएगा उसका कर्त्ता-धर्ता तो एक दिन उसकी घरवाली बनेगी । जेठ-जेठानी कब तक ले पाएंगे उसके रहते । शत्रुजीत सिंह की सौदेबाजी की मंशा को सर्वदमन सिरे से खारिज कर देता है । बड़े-बूढ़ों के अपील पर भी उसने ध्यान नहीं दिया ।
इधर मीरा को बैरागी द्वारा देवेश के लिए अपनापन जताने पर गुस्सा आता है । मीरा का मन कर रहा था कि वह उन सारी बातों को खोल दें ताकि उसकी सारी शुभचिंतकी धरी की धरी रह जाए क्योंकि बैरागी ने जो लंपटता दिखाई थी उसका कंलक मीरा और उर्वशी ने ढोया था ।दुःख इसकी औरत ने भोगा । मीरा पुनः उर्वशी के कथा संसार में देवेश को वापस ले जाती है । कहती है-
"तुम्हारे पिता सर्वदमन आदर्शवादी तो थे मगर दुसरों के सामने दिखावे के लिए । उनके तो दोनों हाथ में लड्डु थे । गोपनीय तरीके से बीस हजार दहेज अलग मिल गया । उर्वशी जैसी कम पढ़ी लिखी पत्नी जमकर मेहनत करेगी , दोस्तों के बीच ले जाना हो तो पहनने ओढ़ने का सलीका सिखा दो , आधुनिकाओं पर भारी पड़ेगी| "(पृ.सं.-73)
शादी के समय मीरा के नाना अजीत को शाबाशी दी थी-
"काकाजू तुम बिटिया को गईया ठौर मानते हो पर कसाइयों के खूँटे पर नहीं बाँध पाए ,धन्य है तुम्हारी इंसानियत । मानिख की बेटी मानिख को ही मिली ।"(पृ.सं.-79)
बरजोर सिंह की बेटी मीरा अपने घर से त्रस्त उर्वशी का सुख देख रही थी , खुशकिस्मत माँ जिसका बेटा वन विभाग में नौकरी पा गया , बहू घर संभाल रही है और बेटी राजरानी की तरह राज कर रही है । लेकिन भाग्य को कुछ और मंजूर था । एक दिन सर्वदमन और बैरागी मोटरसाईकिल से कहीं जा रहे थे , सर्वदमन चालक की भूमिका में थे । पीछे से ट्रक ने टक्कर मार दी बैरागी तो बच गए लेकिन सर्वदमन को नहीं बचाया जा सका । देवेश उस समय उर्वशी की गोद में था । यह दुर्घटना थी या साजिश ? कुछ लोगों का कहना था कि अजीत उन दिनों वन विभाग से सस्पेंड कर दिए गए थे; रिश्वत देकर दुबारा नौकरी हासिल करना चाह रहे थे । बरजोर सिंह की नजर उर्वशी पर थी । अजीत अपनी नौकरी बचाने के लिए उर्वशी को बरजोर सिंह के सुपूर्द करना चाहते थे । लेकिन सर्वदमन के रहते यह संभव नहीं था ।
इन्हीं दिनों उर्वशी अपने मायके आती है। भावज के साथ जमकर कलह हुआ । बरजोर सिंह ने बीच बचाव किया तथा उर्वशी के सिर पर अपना हाथ धर दिया । उर्वशी चंदनपुर आ जाती है । अजीत चाहते थे कि उर्वशी की दुबारा शादी कर दी जाए , इतनी लंबी जिंदगी अकेले कैसे काटेगी । देवेश बड़ा होकर अपना हिस्सा बाँट लेगा ,लड़का है मर्द हो जाएगा । इधर लोगों ने पूछना शुरु किया उर्वशी चंदनपुर क्यों आई?
" ब्याहता औरत है कहीं भी आ जा सकती है। अरे, वो विधवा है, अब काए की ब्याहता है?" (पृ.सं.-107)
बरजोर सिंह बूढ़े हो चले थे । उनके संग उर्वशी को बसाया जा रहा था या बरजोर सिंह के घर को आबाद करने के मंसूबे अजीत के थे ? अहसान तो तभी उतरता है जब अहसान करने वाले को कृताथ करो , विधवा विवाह के नाम पर तमाम बूढों की दयनीय कामुकता और उजड़ते घरों के उपाय खोजे जा रहे थे । उर्वशी को बरजोर सिंह के बेटे विजय या उदय के संग बसाया जाता तो निश्चित ही विधवा विवाह की सार्थकता होती , लेकिन यहाँ भी पुरुष का वर्चस्व काम कर रहा था जो हजारों सालों से हमारे संस्कारों में शामिल है । विजय या उदय के संग उर्वशी क विवाह होने पर उल्टा और एक अहसान अजीत के उपर चढ़ जाता । इधर दहेज उन्मुलन अभियान के तहत फारेस्ट अफिसर शशिरंजन कुँआरा बुढ़ा हुआ जा रहा था । उसके रिटायरमेंट में दो साल थे । वह अजीत से उर्वशी का हाथ माँग रहा था । मगर अजीत सबकी उम्मीदों पर पानी फेरते हुए उर्वशी को वापस सिरसा पहुँचा देता है । चंदनपुर में विजय की शादी तय हो जाती है । मीरा को बिना बताए उर्वशी चंदनपुर आ धमकती है । गाँव में उर्वशी को लेकर मीरा अपने पिता की बदनामी से आहत थी । उसे समझ में नहीं आ रहा था कि उर्वशी को वह अपनी सखी समझे या सौतेली माँ ।
इधर देवेश की सहपाठिनी स्मिता जो देवेश के साथ मिलकर उर्वशी के जीवन के कटे फटे अवशेषों को छाँटने में जुटी थी , उसका मानना था कि अगर सर्वदमन पत्नीविहीन हो गए होते तथा दूसरी शादी कर अन्यत्र बस गए होते तो सिरसा में उनका जमीनी हक खारिज तो नहीं हो गया होता । फिर उर्वशी को अपने अधिकारों से क्यों खारिज किया जा रहा है ? दूसरी तरफ मीरा उर्वशी तथा अपने पिता के संबंधो से आहत होकर आत्महत्या का प्रयास करती है। इस घटना के बाद दादी एंव उदय के सम्मिलत प्रयास से उर्वशी को सिरसा पहुँचा दिया जाता है ।
उर्वशी के खिलाफ पंचायत बुलाई जाती है , जेठ के बिगड़ैल बच्चे चाची को गाली देते हैं । भाई अजीत कहता है,बदकार बहन मर चुकी है मेरे लिए । फैसला शत्रुजीत सिंह पर छोड़ दिया जाता है । तभी उर्वशी को बरजोर सिंह के ब्रेनहेम्रेज की खबर मिलती है । उर्वशी भागकर चंदनपुर वापस आ जाती है । एक कुशल परिचारिका की भाँति बरजोर सिंह के सेवा में जुट जाती है। लेकिन यह क्या ? इस बार उर्वशी की तरुणाई के लपेटे में उदय आ जाता है ।
" इतिहास गवाह है प्रेम और सत्ता के लिए बाप बेटे लड़े हैं ।" (पृ.सं.-151)
एक मूल्यवान रिश्ता खत्म हो रहा था , बाप के सामने बेटा कहता है , मैंने उर्वशी से प्रेम किया है । पिता की आँखे कौड़ी की तरह खुली रह जाती है । उदय कहता है न तो तुम्हारी उम्र है कि तुम उससे शादी करो और न उसके बेटे को अपनाने का संस्कार रखते हो। बाप बेटे के बीच सही गलत का फैसला कौन करता । उन्होंने तो अपना उदात्त चरित्र पेश कर पूरे घर को आश्चर्य में डाल दिया !
इधर महीनों तक बरजोर सिंह और उदय के बीच अपनी जिदंगी के नए आयाम को तलाशती हुई एक दिन अचानक उर्वशी भूमिगत हो जाती है। पूरे इलाके में हंगामा ! सर्वदमन की औरत भाग गई । कहीं मुँह काला कर रही होगी । जेठ के दोनो लड़के योगेन्द्र एंव महेन्द्र जात बिरादरी के पंचों के साथ अपने घर की मर्यादा में चाची की लाश बिछाने को तैयार ? खेत में उर्वशी मिली। अचानक कंधे पर तीन -चार लट्ठ पड़े -
" फिर आघात पर आघात । खून फव्वारे की तरह फूटी । सारी पृथ्वी रक्तिम बाढ़ मे डुबने लगी । औरत ढेर हो गई । ढेर में औरत, औरत में ढेर और ढेर सारा तमाशा ।" (पृ.सं-160-161)
पारिवारिक फैसले में आहत शरीर , छितराई स्त्री देह का तमाशा सब ने देखा । पीड़ा का आनंद कैसा नशीला होता है कोई यहाँ देखे । हाथ -पाँव बंधी बकरी की तरह उर्वशी को घर तक लाया गया । अगले दिन कंधे से लेकर पाँव तक पलस्तर चढ़ गया । शत्रुजीत ने जेठ की मर्यादा त्याग दी । अपनें हाथों से उर्वशी को दूध रोटी खिलाते । सारा घर उर्वशी की तीमारदारी में लग गया । देवेश को आने नहीं दिया गया-बच्चा है अम्मा की हालात देखकर डर गया । सारा घर उर्वशी से माफी माँग रहा था कि उसे बरजोर सिंह के लैठेतों से नहीं बचा सके । उर्वशी की हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही थी । बरजोर सिंह सिरसा पँहुचते है उर्वशी से मिलने मगर शत्रुजीत सिंह बरजोर सिंह को उर्वशी से नहीं मिलने देते । अचानक एक दिन गर्मी की दोपहर ,खबर आती है -
" उर्वशी नही रही न बंधंन में, न आजादी में , न सिरसा में न राजगिरि मे।" (पृ.सं.- 164)
उर्वशी को उन दवाओं के जरिए मारा गया जो उसके इलाज के लिए दी जा रही थीं । उदय उदघाटित करता है-
"उसकी मानसिक मौत पहले हुई थी , फिर चोला छोड़ा ....।" (पृ.सं.-165) डाक्टर कहते हैं बरजोर सिंह की मानसिक हालत असामान्य है- " उनका उत्कंट वेदनामय प्यार उर्वशी की जिद की तरह अपने पूरे उठान पर।"(पृ.सं.-वही)
कथाकार मैत्रेयी पुष्पा ने अपने इस उपन्यास के माध्यम से इस बात को सामने रखा है कि भारतीय समाज में आज भी स्त्री एक वस्तु है। फायदे के लिए उसका क्रय-विक्रय किया जा सकता है । अजीत जैसे पात्रों के रुप में लेखिका ने इसका सफल चित्रण किया है । साथ हीं यह भी दर्शाया है कि अगर स्त्री पर एक बार चरित्रहीनता का ठप्पा लग गया तो उसका गुजारा सवर्ण समाज में हीं नहीं हाशियों के समुदाय और दलित वर्ग में भी नहीं है । हमारे समाज की मानसिकता औरत के प्रति कितनी खोखली है ,पंचों में बैठे बरजोर सिंह के इस कथन से झलकता है -
" औरत जात की रखवाली गाय भैंस की रखवाली नहीं है जिसे खूँटे से बाँध दो और रस्से की मजबूती जाँच लो । जनी की निगरानी खेत की निगरानी जैसी नहीं होती कि खेत एक ही जगह रहे और तुम जब मन चाहे तब उसे देख आओ। औरत को घेरना मुशिकल होता जाता है । जैसे वह ढोर की तरह चारे-सानी में खर्च नहीं कराती ,खेतों की तरह बीज खाद का दरकार नहीं रखती , अपनी सेवा मुफ्त में देती रहती है । बस उसी तरह तमाम खतरे भी पैदा कर देती है कि किवाड़ खोलकर कब चल दे ....।" (पृ.सं.-140)
उर्वशी के साथ भी तो ऎसा हीं हुआ । पता हीं नही चला कि कब और कैसे वर्जित क्षेत्र में घुस गई तथा अवैध रिश्तों के भूल भुलैया में भटकती बरजोर सिंह की बैठक में प्रवेश कर गई । न अपनी गरिमा का ख्याल न मर्यादा का ?
आज देश की आजादी के 62 साल गुजर गए लेकिन कहानी बिल्कुल नहीं बदली । पंचायतो के स्वरुप में रत्ती भर बदलाब नहीं आया । परदादी , दादी और माँओं के जमाने का कानून पंचायत में आज भी चलता है । हरियाणा , उत्तरप्रदेश राजस्थान और बिहार जैसे प्रदेशों की पंचायतों ने औरतों पर कैसा कहर बरपाया है , इसका उदाहरण झज्जर की गुड़िया , मुज्जफर नगर की इमराना , बिहार की दलित महिला , राजस्थान की भँवरी देवी आदि है जो लोकतांत्रिक व्यवस्था में क्रुर पंचायतों के कानून का शिकार हुई हैं । क्या हमारी सभ्यता इन क्रुर आदिम पंचायतों के रुप में आज भी चुनौती बनकर खड़ी हैं ? कहने को तो हमारे पास प्रगति ,विकास और आधुनिकता के आँकड़े जमा हैं । इन्हीं के दम पर इंडिया शाइन स्त्री सशक्तिकरण , सबको रोजगार , नागरिकों के अधिकारों की उपल्बिध आदि के नारे हैं । नारों से दबे हम अपने वजूद के कुचले जाने के लिए अभिशप्त हैं ।
क्या यह विडंबना नहीं है कि आज भी ब्राह्मण , बनिया , ठाकुर , कायस्थ तथा मुसलमान के नाम पर जातिवादी गुट लड़कियों को सुरक्षा देने का वायदा करते हैं और उनके द्वारा निर्धारित आचार संहिता का पालन न करने पर मौत के घाट उतार देते हैं । ये गुट स्त्री को अपने वर्ग चेतना के रुबरु खड़ा नहीं होने देते । प्रश्न यह उठता है - क्या स्त्रियाँ उधार की सुरक्षा की कायल है? उधार की सुरक्षा अक्सर धोखा देती है , जैसा कि उर्वशे के साथ हुआ ।