उपन्यास और कहानी की सार्थकता इस बात पर निर्भर होती है कि वे सामान्य जनजीवन से जुड़े हों ; तथा आम आदमी के सुख-दुःख की अनुभूतियों को साथ लेकर चलें। ’ माटी कहे कुम्हार से ’(2006 ) कथाकार मिथिलेश्वर का ऎसा ही उपन्यास है । झोपड़पट्टियों में समाज के हाशिए पर स्थित जीवन की तल्ख सच्चाई से प्रारभं इस उपन्यास की कथावस्तु इक्कीसवीं सदी के भारतीय गाँवों की बेबाक पड़ताल करते हुए शहर में पहुँचकर शहरी समाज की अंतर्कथा प्रस्तुत करती है।
कथा का प्रारंभ इस वाक्य से होता है
-"इस गूँगी छोरी ने हमें कहीं का नहीं रहने दिया , हम इसे सोझिया बुझते थे , सोझिया बाछी ही लुगा चबाती है......इसने तो सारी मर्यादा मिट्टी में मिला दी ......इसे घटिया कर देना ( दो लाठी के बीच में गला दबाकर मार देना )ठीक रहेगा |"(पृ.7 )
कहानी जन्मजात गूँगी ब्राह्मणी कलावती और यदुवंशी बिसुनदेव की है । पिता द्वारा मुहमाँगा दहेज देने पर भी कलावती के लिए अच्छा घर-वर नहीं मिल पा रहा था , लोग साफ कह देते सब कुछ तो ठीक है , लेकिन लड़की गूँगी है । कलावती सिर्फ जुबान की गूँगी थी, लेकिन रूप रंग के मामले में एकदम खिली हुई फूल सरीखी । शादी की प्रतीक्षा में उसकी उम्र बढ़ती चली गई और अपने घर में दूध लाने वाले बिसुनदेव के संर्पक में वह कब आ गई, पता ही नहीं चला । इस बात की भनक परिवार के लोगों को तब लगी जब कलावती गर्भवती हो गई । परिवार वालों का एक ही निर्णय था - कलावती को खत्म कर दिया जाए । न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी ! माँ की आरजू मिन्नत पर परिवार वाले निर्णय बदलकर कलावती के गर्भपात के लिए राजी हो जाते हैं । लेकिन यह क्या ! रात के सन्नाटे में माँ की बगल में सोई कलावती को अपनी पीठ पर लाद बिसुनदेव छत के रास्ते चम्पत हो गया, घर के लोग माथा पीटते रह गए । पुनः घर के लोगों ने यह सोचकर अपने आप को ढाढस बँधा लिया कि अच्छा हुआ कुलबोरन कुपातर लड़की चली गई, माथे का कंलक टल गया । इधर बिसुनदेव कलावती को लेकर भागते-छिपते नरही नामक झोपड़पट्टी में पहुँचता है । संभवतः इस झोपड़पट्टी में उसी की तरह फरार, विवश और विस्थापित लोग आ बसे थे । उन सब लोगों ने कलावती और बिसुनदेव को हाथोंहाथ उठा लिया । नरहीवासियों के सहयोग से बिसुनदेब झोपड़ीनुमा एक कमरा बनाकर झोपड़पट्टी के अन्य लोगों की तरह रोज मजदूरी कर कलावती का भरण-पोषण करने लगा ।
एक दिन बैसाख की उमस भरी रात में कलावती ने एक बच्ची को जन्म दिया । जहाँ रूप रंग में वह अपनी माँ कलावती पर गई थी, वहीं डील डौल में अपने पिता बिसुनदेव पर । नरही की औरतों ने यह कहते हुए स्वागत किया-’मुन्नी आई है लक्ष्मी आई है ।’ जब मुन्नी चलने -फिरने लगी कलावती भी बिसुनदेब के साथ झोपड़पट्टी की अन्य लुगाइयों की तरह काम पर जाने लगी । इधर कलावती की भनक उसके परिवारवालों को लग चुकी थी । उन्होंने जागा और तेगा नामक भाड़े पर हत्या का काम करनेवाले हत्यारों को कलावती की हत्या करने भेजा।
धान की कटनी में मशगूल कलावती इस बात से बिल्कुल अनभिज्ञ थी कि राहगीर की शक्ल में मौत जाल बिछाए खड़ी है। जल्लादों ने निशाना साध कर गोली कलावती के सीने में दाग दी । कटिहारिनें चीखने चिल्लाने लगीं -
" अरे बाप रे बाप ! मार देलन स हरामी ! धावजा हो पकड़ जा हो .....भागल जा तरसन ।" (पृ.12 )
हँसती बोलती कलावती क्षणभर में लाश का ढेर बन चुकी थी । बिसुनदेव तो जैसे आपे में नहीं रहा । उसके ऊपर हत्या की धुन सवार हो गई । अन्त्येष्टि समाप्त होते ही उसने झोंपड़पट्टी की एक वृद्ध औरत रमला काकी के जिम्मे मुन्नी को सौंप दिया और चल पड़ा हत्यारों की तलाश में । जल्दी ही बिसुनदेव को टोह मिल गई, दोनों ही हत्यारे उसी के गाँव के हैं । एक दिन बिसुनदेव को अनुकूल अवसर मिल गया। दोनों शैतान जागा और तेगा गाँव से दूर अपनी छावनी में रंगरलियाँ मनाने आए थे । मौका पाते ही बिसुनदेव ने पहले तेगा को ढेर किया फिर जागा को । लेकिन बिसुनदेव भी नहीं बच सका । जागा की गोली का शिकार हो गया । दूसरे दिन गाँव के लोगों ने अभिभूत होकर बिसुनदेव के सच्चे प्रेम की चर्चा की । लोगों ने कहा उसने अपनी पत्नी की हत्या का बदला ले लिया।
इधर मुन्नी इतनी भी छोटी नहीं थी कि वह अपने माई बाबू का मरना न जान सके । बुढ़िया दादी ही मुन्नी के लिए सब कुछ थी । लेकिन मुन्नी की बाल आसक्ति पर उसकी नियति निर्धारित नहीं थी। एक रात जाड़ा देकर बुखार लगने से बुढिया दादी भी चल बसी । रोती बिलखती मुन्नी को झोपड़पट्टी की हमउम्र लड़कियों ने सहारा दिया; ढाढ़स बँधाया । अब उन लड़कियों के साथ मुन्नी भी रोपनी - कटनी तथा रोज मजूरी के काम पर जाने लगी । अपने रूप रंग में अनूठी, झोपड़पट्टी की लड़कियों से अलग, मुन्नी वहाँ के लड़कों के लिए आकर्षण की केंद्र थी । लड़के अपनी तरफ उसका ध्यान आकर्षित करने के लिए उसके साथ हँसी - मजाक तथा छेड़छाड़ करते थे । लेकिन इनके बीच रहते हुए भी मुन्नी तटस्थ एवं निर्विकार रहती थी ।
एक दिन वैशाख की अलसायी भोर में सुबह चार बजे मुन्नी जब गंगा में नहा रही थी तभी उसकी टोह में छुपा करमचंद उसे बलात्कार के इरादे से घसीटता हुआ जंगल में ले गया । पिता बिसुनदेव के खून का असर क्षणभर में मुन्नी को हिंसक बना गया । पास पड़े हुए पत्थर के टुकड़े से मुन्नी करमचंद केऊपर क्रुद्ध सिंहनी की भाँति प्रहार करती है, करमचंद का सिर फट जाता है । करमचंद ने सपने में भी नहीं सोचा था कि मुन्नी ऎसा सख्त प्रतिकार और तीखा प्रहार करेगी । उसे लगा था कि वह मान मनौवल वाली छोरी है ।
झोंपड़पट्टी में संभवतः इस तरह की यह पहली घटना थी । लेन देन उधार पेंच के मामले में वहाँ झगड़े होते रहते थे । पर छोरा-छोरी, मर्द-लुगाई का मामला कभी सामने नहीं आया था । यह विस्थापितों का समाज था । जाति-धर्म के बंधनों से मुक्त जीने की चाह में अपने समाज से निष्कासित या फरार जोड़े ही यहाँ पहुँचते थे । यहाँ का रिवाज था छोरा-छोरी बड़े होने पर स्वयं अपना जोड़ीदार ढूँढ लेते या कभी -कभी दूसरे या तीसरे जोड़ीदार को भी आजमाते । उनके लिए यह तुच्छ मामला था और इस पर वे कभी बवाल खड़ा नहीं करते थे । यहाँ एक दूसरे के प्रति एकनिष्ठता के लिए कोई सामाजिक दबाव नहीं था यह उनकी आंतरिक प्ररेणा पर निर्भर करता था । यह उन्मुक्त समाज था । यहाँ जोर जबरदस्ती की कोई गुंजाइश नहीं थी। ये सब बातें यहाँ के समाज में सर्वसुलभ तथा सहज थी ।
"मुन्नी ने इस सहजता को झटका दिया था और करमचंद ने इसे ज्यादती का रूप दिया था ।" (पृ.सं.23 )
इस घटना के बाद मुन्नी की दुनिया काम से लौटने पर अपनी झोपड़ी में ही सिमट गई । एक पेट के लिए अलग से खिचड़ी पकाती जो बच जाता उसे पड़ोसियों तथा बच्चों में बाँट देती ।
" आदमी अकेले आता है अकेले ही जाता है फिर अकेलेपन से क्या भागना।"(पृ.सं.26 )
भगवान ने ही उससे उसके माय बाबू को छीन लिया, यह सोचते हुए मुन्नी दरवाजा बंद करने आगे बढ़ी । ठीक उसी क्षण बाहर से भागता हुआ अधेड़ पैंतीस - चालीस साल का व्यक्ति आकर मुन्नी से याचना करने लगा मुझे छिपा लो, मेरे दुश्मन मेरा पीछा कर रहे हैं । उस व्यक्ति के आकस्मिक आगमन पर मुन्नी हतप्रभ तथा मौन रह गई । आंगतुक झट से झोपड़ी में आकर दरवाजा बंद कर लेता है। खतरा टलते ही वह व्यक्ति बाहर आता है, मुन्नी का धन्यवाद करते हुए अपनी कहानी सुनाता है कि वह कोई चोर बदमाश नहीं । पट्टीदार का झगड़ा है , चचरे भाइयों ने उसके पूरे परिवार का संहार कर दिया है । अब वे उसे मारना चाहते हैं , ताकि उसके हिस्से की जायदाद उन्हें मिल जाए । उनमें से दो को तो वह मार चुका है, बाकी जो बचे हैं वे उसकी टोह में हैं । पुनः वह मुन्नी से पूछता है कि वह यहाँ अकेली क्यों हैं ?
''मुन्नी कहती है -मेरे माय बाबू मर गए । कोई भाई बहन नहीं है । बाहर बारिश थम चुकी थी , उसने विदा लेते हुए मुन्नी से कहा , तूने मेरी जान बचाई ; कभी तेरे काम आ सका तो अपने आप को धन्य मानूँगा ।"(पृ.सं.29)
दो सप्ताह बाद मुन्नी इस घटना को लगभग भूल चुकी थी, लेकिन वह आगुंतक पुनः थैले में कुछ फल और मिठाइयों के साथ आ धमकता है। मुन्नी को उसका आना अच्छा नहीं लगा । तत्क्षण उसने कहा, अब मैं चलूँगा । पुनः वह पलट कर पूछ बैठा -तेरा नाम क्या है? जवाब में वह बोल उठी , मुन्नी । इस पर वह भी झट से बोल उठा- मेरा भी नाम मुनीलाल है। बरसात का समय आ चुका था, इस बार गंगा में आई बाढ़ हर साल की अपेक्षा ज्यादा तबाही और विनाशलीला लाई । मवेशियों तथा आदमियों के मरने से झोंपड़पट्टी में महामारी फैल गई । जिउत , फिर भीखू तथा नरपत महामारी की चपेट में आकर काल के गाल में समा गए । झोंपड़पट्टी के बुजुर्गों ने वहाँ की रीत के अनुसार सीतला मइया को दारू की बोतल ढार कर एक मुर्गे की बलि दी । उनका मानना था कि सीतला मइया के प्रकोप से ही बस्ती में महामारी फैली है । जो बचेंगे सो बचेंगे, नहीं बचने वाले सीतला मइया की सवारी बन जाएँगे । मुन्नी भी दुर्भाग्यवश इस बीमारी के चपेट में आ गई । अपने बचने की आस छोड़ चुकी मुन्नी के लिए मुनीलाल देवदूत बनकर प्रकट होता है । वह जबरदस्ती शहर के अस्पताल ले जाकर मुन्नी का इलाज करवाता है। अब मुन्नी रोगमुक्त हो चुकी थी तथा मुनीलाल अपने उद्देश्य में सफल | झोंपड़पट्टी की परंपरा के अनुसार सीतला मइया के पास जाकर शादी कर दोनों विधिवत पति पत्नी बन जाते है । मुन्नी अब मुनिला बन चुकी थी ।
अचानक एकदिन मुनीलाल के दुश्मन उसे ढूँढ़ते हुए नरही पहुँच जाते हैं । मुनीलाल मुनिला के साथ वहाँ से पलायन कर झाबुआ पहुँच जाता है । मुनिला के झाबुआ के प्राथमिक स्कूल में दाई का काम मिल जाता है , तथा मुनिलाल को रिजवान साहब के आटा मिल में नौकरी मिल जाती है । जहाँ मुनिला अपने काम से स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों तथा शिक्षकों तथा बच्चों का दिल जीत लेती है, वहीं मुनीलाल भी अपनी ईमानदारी से रिजवान साहब तथा गाँववालों के बीच काफी लोकप्रिय हो जाता है ।
इसी बीच शांत तथा एकांतप्रिय झाबुआवासियों के बीच शरद तथा पवन जैसे नेताओं की आवाजाही बढ़ती है । ये नेता कभी गाँव के विकास के नाम पर तो , कभी किसी का स्मारक बनाने के नाम पर जबरन गाँववालों से चंदा उगाही करते हैं । रिजवान साहब द्वारा विरोध किए जाने पर भाडे के डकैतों को उनका घर लूटने के लिए भेज दिया जाता है । रिजवान साहब की जान बचाते हुए मुनीलाल शहीद हो जाता है । रोती बिलखती मुनिला को स्कूल का मास्टर रमन अपने गाँव बजरंगपुर ले जाता है, जहाँ उसके रिटायर दादा सुमेरसिंह जमीन जायदाद की देखभाल के लिए अपना भरापूरा परिवार पटना में छोड़कर अकेले गाँव में शिवबचन के सहारे जीवन गुजार रहे थे । रमन अपने दादा को मुनिला की विडंबनापूर्ण गाथा सुनाता है । दादा कहते हैं-अच्छा किया जो इसे यहाँ ले आया । सुमेरसिंह के घर में रहते हुए मुनिला को लगभग तीन महीने बीत चुके थे । मुनिला अब धीरे-धीरे मुनीलाल तथा झाबुआ को भूल रही थी । लेकिन होनी को तो कुछ और मंजूर था , पत्नीविहीन तथा अपने एकाकीपन से त्रस्त सुमेरसिंह मुनिला को मालकिन बनाना चाहते थे ।
इधर स्वार्थी नेताओं द्वारा जातिवाद का नारा बुलंद किए जाने से बजरंगपुर भी सत्तालोलुप अवसरवादियों की स्वार्थसिद्धि का अड्डा बन गया था। गाँव में आए दिन रणवीर सेना तथा भूमिहीन सेना आमने सामने भिड़ने लगी । सुमेरसिंह तथा उनके जैसे अन्य लोग गाँव के बदले राजनीतिक हालात से दुःखी रहने लगे ।
उधर मुनिला ने सुमेरसिंह को समझाना चाहा कि नौकरानी तथा मालिक का यह संबंध ठीक नहीं । लेकिन सुमेरसिंह का मानना था कि अच्छा बुरा कुछ नहीं होता -
"जो अपने सामर्थ्य से अपने को मजबूत बनाए रखता है । लोग उसकी तारीफ करते है , और जो कमजोर पड़ता है उसकी आलोचना करते हैं ।"(पृ.सं. 36 )
सुमेरसिंह मुनिला को भरोसा दिलाते हैं कि परिवारवाले उन्हें रोकने टोकने की हिम्मत नहीं करेंगे । उन्होंने अपना खेत खलिहान सबकुछ मुनिला के नाम लिखने का आश्वासन भी दिया । दोनों मर्यादा के बंधन को दरकिनार कर बाँध तोड़कर बहने वाली उफनती नदी बन चुके थे । मुनिला में शारीरिक परिवर्तन शुरू हो चुका था । सुमेरसिंह को जिस बात का डर था आखिर वह सच ही निकला , मुनिला गर्भवती थी । सुमेरसिंह को लोकलाज की चिंता खाए जा रही थी । लोग क्या कहेंगे ! इस अधेड़ उम्र में ! उन्होंने मुनिला को समझाने बुझाने की कोशिश की , लेकिन मुनिला बच्चे को जन्म देने की जिद पर अड़ी रही । अड़े भी क्यों न ! आखिर यह उसका पहला बच्चा जो था । इधर गाँव के लोगों ने पटना फोन पर सुमेरसिंह के बेटे बहू को सारी बातों की जानकारी दे दी । बेटा बहू रविवार को गाँव आने वाले थे, भय से सुमेरसिंह की हालत बिगड़ती जा रही थी । शनिवार की रात अचानक सुमेरसिंह की तबियत बहुत ज्यादा बिगड़ी । उनके सीने में तेज दर्द उठा, रात के एक बजे ह्रदयगति रुक जाने से सुमेरसिंह की मृत्यु हो गई । मुनिला को जैसे काठ मार गया | एक क्षण तो वह किंकर्तव्यविमूढ़ बनी रही । कुछ देर तक सुमेरसिंह के शरीर पर विलाप करने के बाद अचानक मुनिला ने तंद्रा से जागकर शिवबचन से कहा - " काका इस कायर के बच्चे को अब एक क्षण भी अपने पेट में नहीं रहने दूँगी । इसका बेटा बहू इसे डाँटने आ रहे थे , इस डर से यह मर गया । इस डरपोक का बच्चा हमें नहीं चाहिए । "(पृ.सं.296) बदहवास सी दौड़ी मुनिला | उसके पीछे शिवबचन भी दौड़ा । सिलवट लोढ़े पर पेट के बल जा गिरी । मुनिला बेहोश हो चुकी थी , शिवबचन की निगाह मुनिला की साड़ी पर पड़ी । साड़ी खुन से रंगती जा रही थी । मुनिला का गर्भपात हो चुका था । सुबह होते हीं सुमेरसिंह के बेटे बहू भी आ पहूँचे । उन्होंने शिवबचन से पूछा - मुनिला कहाँ है ? शिवबचन ने कहा - उसका गर्भपात हो चुका है । बेटे बहू ने राहत की साँस ली । पुनः शिवबचन ने निवेदनपूर्वक कहा - बबुआ जिस जीप से मालिक को अंत्येष्टि के लिए लेकर जा रहे हो उसी जीप से मुनिला को शहर में डा. रजिया रेहान के अस्पताल में डाल देंगे| पता नहीं बेचारी बचेगी भी या नहीं ? शिवबचन काका की बात मानकर सुमेरसिंह के बेटे बहू ने मुनिला को अस्पताल पहुँचा दिया ।
यहाँ से मुनिला की जिंदगी की दूसरी पारी की शुरूआत होती है । मुनिला का अपना कहने वाला कोई आगे पीछे बचा नहीं था । उसे जिंदगी से अब क्या चाहिए था ? दो जून की रोटी और छत, जो उसे डा.रजिया रेहान के यहाँ नौकरानी का काम करते हुए मिल चुकी थी । लेकिन यहाँ मुनिला ने जिंदगी की दर्दनाक सच्चाइयों का सामना किया । मुनिला ने देखा ने झुग्गी बस्तियों में रहने वाले लोग जिस डा. रजिया रेहान को भगवान समझते हैं, वह डाक्टर तो पैसों के हाथ मजबूर शैतान थी जिसका दीन, धर्म, ईमान पैसा-पैसा सिर्फ पैसा था, भले ही मरीज पैसे के अभाव में दम क्यों न तोड़ दे ।
मुनिला का मन रजिया रेहान की बनावटी झुठी दुनिया से ऊब चुका था । अब वह वहाँ एक पल भी रुकना नहीं चाहती थी । लेकिन शहर में जिन - जिन घरों में मुनिला को काम करने का मौका मिला वहाँ कहीं दहेज के लिए लालची सास और ननद का बहू पर अत्याचार तो कहीं बेटी के हिस्से का प्यार बेटे को मिलते देखा । कहीं पाई - पाई के लिए तरसते हुए बूढ़े माँ-बाप देखने को मिले । शहर की इस झूठी शान - शौकत तथा मुखौटे -वाली दुनिया से मुनिला को नफरत हो चली थी । मुनिला को अपनी झोपड़पट्टी तथा छल प्रपंच से अछूते वहाँ के लोगों की याद आई ।
इसी क्रम में मुनिला को एक सरकारी अफसर के घर में काम करने का मौका मिला । बाहर से यह घर जितना सादा था अंदर से उतना हीं कुबेर का खजाना । घर की मालकिन हीरे जवाहरात से नख से शिख तक लदी रहती थी । इन लोगों का आस पड़ोस से कोई संबंध नहीं था । घर में नौकर के नाम पर सिर्फ दो लोग थे, एक लंगड़ा शामू, दूसरी मुनिला । घर के बाहर का काम मालिक का साला धीरज तथा रसोई का काम उसकी पत्नी देखती थी । एक दिन मालकिन के बीमार पड़ने पर जब मुनिला पौधों को पानी देने लगी तो उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं । सोने के बिस्कुटों से गमला भरा हुआ था । फिर उसने देखा , मालकिन के पुजा घर में आसन के नीचे गुप्त दरवाजा था । दरवाजा खोलने पर मुनिला की आँखें फटी की फटी रह गई । उसने देखा , अंदर एक तहखाना है जो नोटों से भरा पड़ा है । अचानक एक दिन मालिक के घर में एंटी करप्शन वालों का छापा पड़ता है । धीरज जो स्वयं गुंडा बदमाश है सारा दोष शामू पर लगा देता है तथा रात में शामू को मार कर गायब कर देता है । जब मुनिला शामू के बारे में मालकिन तथा धीरज से पूछती है तो दोनों गोलमटोल जबाव देते हैं । मुनिला का शक यकीन में बदल जाता है कि इन लोगों ने शामू की हत्या कर दी है । मुनिला ठान लेती है कि वह इन हत्यारों को नहीं छोड़ेगी और शामू को इंसाफ दिला कर रहेगी ।
छापेमारी के समय मुनिला जनहित सेवा दल के गगन बिहारी का नाम सुन चुकी थी। मुनिला सीधे जनहित सेवा दल के आफिस पँहुचकर एस.के सिंह के घर में रखे गुप्त धन की जानकारी उन लोगों को देती है । गगन बिहारी विपक्षी दल के नेता थे । उन्हें पता था कि वर्तमान मुख्य्मंत्री के राजस्व मंत्री तथा उसके अधिकारी सरकारी खजाने का दुरुपयोग कर रहें हैं । लेकिन उनके हाथ में कोई ठोस सबुत नहीं था । मुनिला के रूप में सबूत उनके हाथ लग चुका था । गगन बिहारी अवसरवादी राजनेता थे । वे इस अवसर को हाथ से जाने देना नहीं चाहते थे । उन्होंने पुलिस अधिकारियों का एक दल तथा मुनिला को लेकर स्वयं एस.के सिंह के घर पहुँच मुनिला द्वारा बताई गई जगहों पर छापेमारी की । एस.के सिंह के घर से बरामद संपत्ति देखकर सबकी आँखें फटी रह गईं । पुलिस के साथ मीडिया भी था । मुनिला रातों रात स्टार बन चुकी थी ।
दूसरे दिन सभी समाचार पत्रों के मुख्य पृष्ठ पर मुनिला छाई हुई थी । मुनिला अब अपने बस्ती लौट जाना चाहती थी । उसका काम खत्म हो चुका था । शामू की हत्या का बदला वह ले चुकी थी । गगन बिहारी अच्छी तरह समझते थे । उनके हाथ हुक्म का इक्का लग चुका था । मुनिला झोपड़पट्टी से संबंधित थी तथा दलित थी । गगन बिहारी को लगा, मुनिला उनके राजनीतिक भविष्य के लिए लंबी रेस का घोड़ा है । उन्होंने समझ बूझ कर पार्टी कार्यालय में मुनिला के रहने की व्यवस्था करवा दी । पार्टी कार्यकर्त्ता शारदा दीदी को मुनिला की देखभाल की जिम्मेदारी सौंप दी गई । अगले दिन सुबह पत्रकारों के साथ मुनिला का इंटरव्यू था । गगन बिहारी परेशान था कि पत्रकार कहीं मुनिला से कुछ उल्टा सीधा न पूछ बैठें । मुनिला ने गगन बिहारी को आश्वस्त किया- आप चिंता न करें । पत्रकारों के प्रश्नों का मुनिला को पके नेताई अंदाज में एकदम सटीक जबाव देते देख पार्टी के लोग भौंचक्के रह गए ।
राजस्व तथा विभागीय अधिकारियों के इतने बड़े घोटाले का पर्दाफाश होने पर मुख्यमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा । चुनाव सामने था । गगन बिहारी मुनिला को हर चुनावी भाषण में पार्टी के एजेंडा को ध्यान में रखते हुए भाषण देने को कहते लेकिन निडर मुनिला वही बोलती जिसमें जनता की भलाई थी । गगन बिहारी तथा पार्टी के कार्यकर्त्ताओं को यह बात नागवार गुजरी| उन्होंने मुनिला को समझाने को बहुत कोशिश की लेकिन मुनिला नहीं मानी । पार्टी छोड़ कर चले जाने के भय से उन्होंने मुनिला पर कोई कार्रवाई नही की । "गगन बिहारी यह अच्छी तरह समझ चूके थे कि राजनीति में उसीका महत्त्व सर्वोपरि होता है जिसके पास जनाधार हो ।"(पृ.सं. 495) अब यह जनाधार मुनिला के पास था | अपने राजनीतिक जीवन में गगन बिहारी को पहली बार पछाड़ खानी पड़ी थी, वह भी एक मामूली सी महिला के हाथों ।
मुनिला को गगनबिहारी के संसदीय क्षेत्र बिसनपुरा में चुनावी सभा को संबोधित करना था । बिसनपुरा में चारों तरफ मुनिला जिंदाबाद के नारे लग रहे थे। संचालक महोदय सभी को मंच पर एक एक कर अपने विचार व्यक्त करने के लिए बुला रहे थे लेकिन भीड़ बार बार ’मुनिला को बुलाओ ’ की जिद पर अड़ी थी । सबसे अंत में जैसे ही मुनिला ने भीड़ को संबोधित करना शुरू किया, भीड़ से ही दो गोलियाँ धाँय-धाँय करते हुए मुनिला की छाती को भेद गईं। खून से लथपथ मुनिला वहीं ढेर हो चुकी थी। भीड़ नेतृत्व विहीन, हिंसक और बेकाबू हो चुकी थी। भीड़ ने माँग रखी- जब तक प्रधानमंत्री खुद नहीं आएँगे हम मुनिला का दाह संस्कार नहीं होने देंगे । मुनिला की जघन्य हत्या से मुनिला के असली हमदर्द उद्विग्न और उद्वेलित थे ।
घटना को तीन दिन बीत चुके थे, प्रायः सभी अखबारों के मुख्य पृष्ठ का मुख्य विषय मुनिला की हत्या से संबंधित था । इसी बीच राज्य के एक प्रसिद्ध समाचार पत्र ने मुनिला अंक जारी कर उसके समग्र जीवन संघर्ष को जनता के सामने रखा; साथ ही हत्या का धमाकेदार खुलासा भी! इस खुलासे के अनुसार ’जनहित सेवा दल ’ के गगनबिहारी ने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर मुनिला की हत्या के लिए विपक्षी पार्टियों को कसूरवार ठहराते हुए इसे ’ जघन्य अपराध और कायरतापूर्ण ’ कदम बताया तथा इसकी न्यायोचित जाँच की माँग की । दूसरी ओर विपक्षी पार्टियों ने भी प्रेस विज्ञप्ति जारी कर इस बात का खुलासा किया कि स्वयं गगनबिहारी ने मुनिला की हत्या कराई। मुनिला के जनाधार के समक्ष वे बौने हो चुके थे, अध्यक्ष और नेता का पद उनके हाथ से फिसलता दिखाई पड़ रहा था । उनके गलत मुद्दों की सरेआम मुनिला धज्जियाँ उड़ा रही थी । वे चाह कर भी इसे रोक नहीं पा रहे थे। इस स्थिति में सुनियोजित साजिश के तहत उन्होंने हीं उसकी हत्या कराई । गगन बिहारी के ऎसे घातक और छलपूर्ण कदम को विपक्षी पार्टियों ने ’लोकतंत्र की आत्मा के साथ बलात्कार ’ बताते हुए इस घटना की जाँच सी.बी.आई. से कराने की माँग की । इन दोनों खुलासों के अतिरिक्त एक तीसरा खुलासा भी कुछ समर्थकों ने किया । इस तीसरे खुलासे के अनुसार जेल से एस.के. सिंह और उनके साले धीरज ने सुपारी देकर मुनिला की हत्या कराई ।
इस प्रकार ’माटी कहे कुम्हार से ’ नायिका प्रधान उपन्यास है । कथाकार मिथिलेश्वर ने भारतीय समाज की किसी भी समस्या को अछूता नहीं छोड़ा है । उपन्यास की रेखांकित समस्या नारी संघर्ष और शोषण से बुनी हुई है । इसके अलावा ग्रामांचल की अन्य प्रमुख सामाजिक समस्याएँ भी द्र्ष्टव्य हैं - जातपांत की समस्या ,अनैतिक संबंधों की समस्या और अंधविश्वास की समस्या । लेखक ने यह दर्शाया है मुनिला की कहानी समाज के प्रति नारी के विद्रोह की कहानी है । मुनिला बदलाव की छ्टपटाहट की प्रतीक है । जिस सत्ता को मुनिला वरण करने से इंकार करती है, वही सत्ता अंत में उसका अमानवीय शोषण करते हुए उसकी बलि लेती है ।
’ माटी कहे कुम्हार से ’ में लेखक ने भारतीय लोकतंत्र की राजनीति का कच्चा चिट्ठा खोलकर रख दिया है । स्वातंत्र्योत्तर भारत में निरंतर राजनीतिक मूल्यों के क्षरण और छल प्रपंच की राजनीति के प्रसार के यथार्थ को इस उपन्यास में प्रभावी अभिव्यक्ति मिली है।गँवई भाव संवेदना के साथ भोजपुरी मिश्रित भाषिक संरचना का दुर्लभ तालमेल उपन्यास को जीवंतता प्रदान करता है। उपन्यास का कैनवास इतना विस्तृत एंव व्यापक है कि इसे समकालीन भारतीय जीवन का आख्यान कहा जा सकता है । उपन्यास की नायिका मुनिला का चरित्र सबसे अधिक प्रभावशाली, अद्भुत एंव अविस्मरणीय है। लोक जीवन एंव लोक कथाओं से गहरा जुड़ाव इस उपन्यास की एक अन्यतम विशेषता है । इसमें तेजी से बदलते समय और समाज के गतिशील यथार्थ का चित्रण सफलतापूर्वक किया गया है ।
कुल मिलाकर इस उपन्यास में लेखक ने सामाजिक और राजनैतिक मुददों को उठाकर ज़मीनी समस्याओं का विवेचन विश्लेषण प्रस्तुत कर समाधान खोजने का प्रयास मुनिला जैसे सशक्त नारी पात्र के माध्यम से किया है ।यह अलग बात है कि प्रयास अपने परिणाम तक नहीं पहुँच पाया पर बदलाव के कुछ संकेत लेखक ने अवश्य प्रस्तुत किए हैं । साथ ही स्त्री विमर्श की दृष्टि से इस उपन्यास में जहाँ एक ओर स्त्री के अनेकमुखी शोषण का अंकन है, वहीं उसकी आंतरिक ऊर्जा के सकारात्मक प्रस्फुटन की भी अभिव्यक्ति है जिससे लेखक का स्त्री विषयक दृष्टिकोण स्पष्टतः उभरकर सामने आ सका है । स्त्री की सार्वजनिक भूमिका और उससे भयभीत राजनीति का द्वंद्व इस उपन्यास के स्त्री विमर्श की मौलिक उपलब्धि है ।
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