स्त्री विमर्श की कसौटी पर : मीरांबाई और उनकी कविता
-अर्पणा दीप्ति
डॉ.हेमा रंगन की समीक्षाकृति "संत मीरांबाई का रचना संसारः एक स्त्रीवादी विमर्श" [2011 ] निस्संदेह अत्यंत महत्वशाली शोधपूर्ण कृति है।इसमें लेखिका ने इस आधारभूत प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयास किया है कि 'मीरां क्या केवल एक संत,एक भक्त या प्रेयसी भर थी , या फिर हाड़ मांस की बनी एक साधारण स्त्री जिसने सामाजिक रीति रिवाजों को चुनौती दी थी?' वस्तुतः वे भक्त, कवयित्री या संत जो भी बनीं उस सबसे पहले स्त्री थीं जिनके साथ पितृसत्तात्मक सामंतवादी समाज ने दोयम दर्जे का व्यवहार किया ।
कबीर और मीरां मध्यकाल के दो तेजस्वी व्यक्तित्व हैं। उन्होंने अपनी अंतरात्मा की पुकार सुनकर बाह्यजगत की वर्जनाओं को लांघा। कबीर पुरुष थे इसलिए बहुत हद तक सामाजिक प्रताड़नाओं से बच गए। लेकिन मीरां स्त्री थीं अतः प्रताड़नाओं से बचने का उसके पास कोई विकल्प नहीं था। अपने जुझारू व्यक्तित्व के बल पर ही वे समस्त बाधाओं को पार करती स्वतंत्र मानवी बन सकीं।
हेमा रंगन नें वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मीरां के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का अध्ययन कर मीरां के जीवन के छुए एवं अनछुए पहलुओं को उजागर करने का प्रयास किया है।लेखिका का यह प्रयास एक स्त्री के सम्मान, उसकी आंतरिक शक्ति एवं संघर्षरत व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए समूचे स्त्री समाज की संघर्ष गाथा का प्रतिनिधित्व करता है। लेखिका ने भारतीय स्त्री की सामाजिक स्थिति का प्रतिबिंब रही मीरां को स्त्रीवादी तथ्यों के आधार पर स्त्री विमर्श का मुद्दा बनाया है।
मध्यकाल में सामाजिक जीवन में स्त्रियों की दशा बड़ी ही सोचनीय थी। समाज के सभी तबकों में बालविवाह की प्रथा प्रचलित थी। लड़की को शिक्षित करने का प्रचलन नहीं था, गृहकार्य में कुशलता प्राप्त करना उनके जीवन का मुख्य उद्देश्य था। बहुविवाह की परंपरा ने स्त्रियों की स्थिति को दयनीय बना दिया था । सौतिया डाह कभी-कभी पति तथा सौतेले पुत्रों की जान लेने की सीमा तक पहुँच जाता था । पुरुषों ने सौंदर्योपासना तथा विलास के सभी द्वार अपने लिए खोल रखे थे किंतु स्त्रियों के लिए पतिनिष्ठा और यौनशुचिता अनिवार्य थी। सती-प्रथा और जौहर की राजस्थान में एक खास परंपरा रही है किंतु ध्यान देने योग्य बात यह है ये प्रथाएँ केवल स्त्रियों के लिए ही अनिवार्य थीं । पुरुष अनेक स्त्रियों को पत्नी और रखैल बनाकर रख सकता था लेकिन स्त्री का एक ही पति हो सकता था जिसके मरते ही उसे उसके साथ चिता में जला दिया जाता था। पति के जीवनकाल में पतिपरायणता तो ठीक,लेकिन पति के मरणोपरांत ’सहमरण’ या ’अनुमरण’ द्वारा निष्ठा साबित करने का कोई औचित्य नहीं। किंतु इसका एक और पहलू भी हो सकता है।उस समय के समाज में विधवा की जो दुर्दशा थी उसे लंबे समय तक तिल-तिल कर झेलने के बजाए एक बार में शरीर को आग के हवाले करना शायद कम कष्टप्रद रहा होगा। इसी प्रकार जौहर प्रथा को राजपुतानी आन का प्रतीक माना जाता था।क्रूर मुसलमान आक्रमणकारियों से अपनी स्त्रियों को बचाने का यही एक आखिरी रास्ता था । अग्नि प्रज्वलित कर सामूहिक रूप से स्त्रियों तथा लड़कियों द्वारा आत्मदाह करना या फिर परिवार के पुरुषों द्वारा शत्रुओं के बीच युद्ध करने से पूर्व उन्हें आग के हबाले कर देना। किन्तु यह प्रश्न भी यहाँ उठना लाजिमी है कि मुगलो ने तो समस्त भारत को अपने अधीन किया, फिर यह प्रथा समूचे हिंदुस्तान में प्रचलित क्यों नहीं हुई? इन सब प्रश्नों से टकराते हुए लेखिका ने मीरां के जीवन और व्यक्तित्व संबंधी तथ्यों की विस्तार से पड़ताल की है।
मान्यता है कि मीरां का एक भाई था जो नहीं रहा। पिता भी युद्ध भूमि में वीरगति को प्राप्त हो गए। मीरां के संरक्षण का जिम्मा उसके चाचा राव वीरमदेव पर आ गया । मीरां ने बचपन में जो कुछ खोया उस सवकी क्षतिपूर्ति के रूप में ’गिरिधर नागर’ को पा लिया। 11-12 वर्ष की अवस्था में मीरां का विवाह मेवाड़ के ’हिंदू धर्म सूर्य’ महाराणा संग्रामसिंह के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज से 1516 में हुआ । ससुराल में आते ही स्वतंत्र व्यक्तित्व में आस्था रखने वाली मीरां ने कुलदेवी की पूजा करने से इनकार करते हुए अपने आराध्य ’गिरिधर नागर’ की पूजा प्रारंभ कर दी। पति भोजराज मीरां के व्यवहार से क्षुब्ध हुए, उनके मन में अनेक प्रकार की शंकाए उठीं जो बाद में शांत हो गईं । मीरां की संतान का उल्लेख कहीं नहीं मिलता; शायद पति से मीरा का समागम न हुआ हो। ससुरालवालों का मानना था, मीरां ’कुलबोरनी’ तथा ’लोकलाज बिसारने’ वाली है। लोक मान्यता के अनुसार कुँवर भोजराज की मृत्यु 1528 में राणा सांगा के जीवन काल में हो गई थी। मीरां का वैवाहिक जीवन मुश्किल से दस वर्ष रहा। राणा सांगा के बाद रतनसिंह मेवाड़ का राजा बना । मेवाड़ की परंपरा के अनुसार उसने मीरां को सती होने का आदेश दिया । मीरां ने कभी लौकिक जीवन में भोजराज को अपना पति नहीं माना तो अपने आपको उसकी विधवा कैसे मान सकती थी! उसका विवाह तो बालपन में ही ’गिरिधर गोपाल’ से हुआ था जो अविनाशी थे,यों वह तो चिर सुहागन थी -
"जग सुहाग मिथ्या री सजनी, होवां ही मिट जासी।/
गिरिधर गास्यां , सती न होस्यां मन मोहयो घनघामी॥"
"लोग कहयां मीरां भई बाबरी, सासू कहयां कुलनाशी ।"
मीरां ने रतनसिंह के आदेश को ठुकरा दिया। फिर क्या था! मीरां पर अत्याचारों का सिलसिला बढ़ता ही गया। चरणामृत के नाम पर विष और शालिग्राम की मूर्ति के नाम पर विषैला नाग भेजा गया। इन अत्याचारों से तंग आकर सन 1534 के आसपास मीरां मेवाड़ त्यागकर मेडता चली गई । जनश्रुतियों के अनुसार मीरां वृंदावन गई। जीवन के अंतिम पड़ाव में गुजरात का द्वारका मीरां का निवास स्थान रहा।
1888 में कर्नल टॉड ने प्रामाणिक दस्तावेजों के अभाव में किंवदंतियों का सहारा लेकर राजस्थान के समग्र इतिहास पर केंद्रित पुस्तक ’एनल्स एंडेंटिक्वटीज आफ राजस्थान’ लिखी। इसमें मीरां को महाराणा कुंभा की पत्नी बताया गया। टॉड की इस मान्यता को विद्वानों ने सिरे से खारिज कर दिया है। डॉ.सी.एल.प्रभात के अनुसार मीरां के गुरु शायद रैदास या रैदासी रहे होंगे। किंतु पुनः विभिन्न धर्म संप्रदायों का अध्ययन करने पर डॉ.प्रभात इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मीरां का कोई एक दीक्षा गुरू नहीं रहा होगा। मीरां के ही शब्दों में ’मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई।’ पद्मावत शबनम ने ’मीरां : व्यक्तित्व एवं कृतित्व’ में यह दर्शाया है कि सरकारी तौर पर जो मीरां की प्रामाणिक तस्वीर है वह राजस्थानी विधवा की नहीं है, न ही राजसी है - गले में तुलसी माला किंतु कलाइयों में चूड़ियाँ हैं। भजन में मग्न सादगीपूर्ण यह चित्र भक्त स्त्री का है न कि विधवा का। इन सभी विद्वानों के विवरण का अध्ययन करने पर एक प्रश्न उभरकर सामने आता है - आर्थिक आधार का प्रश्न।
इसके अतिरिक्त लेखिका ने मीरां की भक्ति साधना पर निर्गुण तथा सगुण भक्ति के प्रभाव को भी दर्शाया है। मीरां सगुण उपासिका तथा कृष्ण की भक्त थीं। लेकिन उनकी इस उपासना पर नाथ मत का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है-
"म्हारे घर रमतो ही आई रे जोगिया।/काना बिच कुंडल,गले बिच सेली, अंग भभूत रमाई रे ।"
वहीं संत मत का प्रभाव भी द्रष्टव्य है-
"राम नाम रस पीजै!/
मनवा! राम नाम रस पीजै/
तजि कुसंग सतसंग बैठि हरि चरचा सुनि लीजै/
काम क्रोध मद मोह लोभ कू, चित से बहाय दीजै/
मीरां के प्रभु गिरिधर नागर,ताके रंग में भीजै।"
मीरां की कुछ मार्मिक पंक्तियों में संतो का फक्कड़पना तथा सूफ़ियों की दीवानगी दिखाई देती है-
"हेरी मैं तो दरद दिवाणी मेरो दरद न जाने कोई/
घाइल की घाइल जाणै कि जिन लाइं होई॥"
मीरां ने राम भक्ति के पद न के बराबर गाए किंतु मीरा के पदों में राम का उल्लेख अनेक रुपों में बार-बार आया है-
"मैंने राम रतन धन पायो/
वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु करि किरपा अपनायो।"
मीरां की कृष्ण भक्ति के स्वरूप की मुख्य विशेषता लेखिका के अनुसार यह है कि न तो वह गोपी है और न राधा है, वह सौ फीसदी मीरां है तथा अपने गिरिधर नागर से उसका सीधा संबंध है।
मीरां के काव्य विषयों का वर्गीकरण करते हुए लेखिका ने मीरां के आराध्य, मीरां की साधना के स्वरूप और मीरां के भावजगत का मनोवैजानिक विश्लेषण भी किया है। इस विश्लेषण से एक बात स्पष्ट तौर पर उभरकर सामने आती है कि मीरां ने ’स्त्री-मुक्ति’ का सूत्रपात ही नहीं किया अपितु अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए अस्तित्व की बाजी लगाकर उसने स्त्री के मान सम्मान को बढ़ाया। अतः उसे ’स्त्री-स्वतंत्रता’ का सूत्रपात करनेवाली प्रथम वीरांगना माना जाना चाहिए।
आगे मीरां के साहित्य का भाषिक विश्लेषण करते हुए दर्शाया गया है कि मीरां ने भाषा को कलात्मक विशिष्टताएँ देने का प्रयास कतई नहीं किया, न ही काव्यशास्त्रीय नियमों का कड़ाई से पालन किया। मीरां के फुटकर पद साधारण लोकगीतों की तरह बोलचाल की भाषा में हैं लेकिन इन पदों में शृंगार, मधुर तथा शांत रस के पदों की प्रचुरता आसानी से देखी जा सकती है।
अंत में लेखिका ने हिंदी गीति पंरपरा में कबीर, रैदास, सूरदास और तुलसीदास के साथ मीरां की तुलना करते हुए मीरां को इन सबमें सबसे ऊपर स्थान दिया है। भारतीय संगीत-संपदा को समृद्ध करने में मीरां के पदों का योगदान अतुलनीय है। कुल मिलाकर यह कहना सर्वथा संगत होगा कि डॉ.हेमा रंगन ने अपनी इस कृति द्वारा मीरां के स्त्री रूप की प्रतिष्ठा की है और स्त्री विमर्श के भारतीय संदर्भ का सूत्रपात करने में उनकी भूमिका का सप्रमाण प्रतिपादन किया है।
समीक्षित कृति - संत मीरांबाई का रचना संसार :एक स्त्रीवादी विमर्श
लेखिका - डॉ.हेमा रंगन
संस्करण - जनवरी 2011
प्रकाशक - शुभंकर प्रकाशन, रामकुंज, आर के वैद्य रोड,दादर,मुंबई-400028
पृष्ठ संख्या- 315
मूल्य - 250रुपये मात्र.
बढिया समीक्षा- आज भी स्त्री की स्थिति शायद ही भिन्न है॥
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