शनिवार, 16 अगस्त 2014

“His sophism as moralist, sociologist and legislator reaches new heights…. Seduced by a false religion, beheld as a criminal, I reduce our labour to very little. Let us creat few laws; but let them be good…..”

अर्थात इस पंक्ति में साद का दर्शन यह  है कि सबसे पहले एक नैतिक शुन्य तैयार करो, फिर उसे नई चेतना से भरो-चेतना जिसे प्रभुतासंपन्न लोग अपनी सुविधा, अपनी शर्तों पर तैयार नियमावलियों से ’मैनुफैक्चर’ करते हैं। (सीवर ऎंड वेनहाउस: द माक्यु द साद, पृ.११३) हिंदी में प्राय: सब मूल्य स्त्रीलिंग ही हैं, समाज चाहता है कि इन सारे मूल्यों का निवेशन सिर्फ स्त्री में हो! क्योंकि स्त्री संस्कृति की प्रहरी है; संस्कृति जो कि संप्रभुओं की क्रीतदासी है। यह तर्क कहीं से भी न्यायोचित नहीं दीखता। अगर दुनिया की सारी उच्चशयता का ठीका स्त्रियाँ ले भी ले तो वे प्रेम करने लायक अर्थात अपनी नैतिक कद-काठी का पुरुष कहाँ से पाएँगी ? अपने से कमतर पुरुष से स्नेह तो किया जा सकता है, उस पर ममता तो लुटाई जा सकती है, किंतु प्रेम नही किया जा सकता।

शुक्रवार, 1 अगस्त 2014





जीवन की कटुताएँ

दुर्घटनाओं का गरल पिया 
स्थितियों का विष ! कितना तीखा
जीवन की कटुताएँ तीखी
इनके सम्मुख विष भी फीका
    
उफ्फ ! मन है या यह रणस्थली
घनघोर युद्ध, कैसा स्वर है
यह शोर कहाँ है ? किधर कहाँ ?
मन के भीतर या बाहर है ?

संकल्पों का वह सत्य आज मर चुका,
सत्य का यह पार्थिव स्वरूप जल जाने दो
यह सत्य अरे जो शाश्वत था किन्तु इसको 
तन और गलाने दो, कुन्दन बन जाने दो।

सन्देह नपुंसकता की एक घोषणा है,
संदेह दृष्टि का दोष,
संदेह दृष्टि का जाल नये बुन-बुनकर 
किम्वदंतियाँ नित नई गढ़ता रहता।

लांछन बनकर कहीं सिर चढ़ा तो 
कहीं पुछल्ला बन लीक पीटता रहता है
बिच्छु सा कहीं डंक से यह छू लेता
उफ्फ- पीड़ा से सारा तन दहता है।

उजला जो चरित मिला उस पर ही दोष मढ़ा
संदिग्ध अक्षरों से लिख डाले लेख नये
कुछ नई भ्रान्तियाँ देने को यह फुसफुसा रहा
इसके स्वर भी संदिग्ध !

संदेह तुम्हारा अपना हो या जनता का
संदेह अग्नि में धू-धू-धू-धू जलती हूँ मैं
लो राम अब चलती हूँ मैं

 कुछ  कारणवश ब्लाग को समय नहीं दे पा रहीं हूँ | पाठकगण  से करबद्ध क्षमा प्रार्थी हूँ  | नियमित पाठक मेरे वेबसाइट पर आलेख पढ़ सकते हैं |