लज्जा
अर्पणा दीप्ति
'लज्जा' नारीवादी लेखिका 'तस्लीमा नसरीन' का बहुचर्चित विवादास्पद उपन्यास है। इस उपन्यास के प्रकाशन से न केवल बांग्लादेश में हलचल मची बल्कि भारत में काफी उफान उठा। सीमापार (भारत) के लोगों ने जहाँ इस उपन्यास को सिर माथे से लगाया वहीं बांग्लादेशी कट्टरवादी सांप्रदायिक ताकतों (कठमुल्लाओं) ने लेखिका के विरूद्ध फतवा जारी करके सजा-ए-मौत मुकर्रर कर दी। कारण यह है कि उपन्यास बांग्लादेशी हिंदू विरोधी मानसिकता तथा सांप्रदायिकता पर कठोर प्रहार करता है, एवं वहाँ के नरक का लोमहर्षक चित्रण करता है जो वहाँ रहने वाले हिंदूओं की नियति बन चुका है।
वस्तुत: 'लज्जा' को पढ़ना दुधारी तलवार पर चलने जैसा है। लज्जा जहाँ एक ओर मुस्लिम सांप्रदायिकता को बेनकाब करती है वहीं हिंदू सांप्रदायिकतावादी ताकतों की भी बखिया उधेड़ती हुई नजर आती है।
'लज्जा' की शुरूआत ६ दिसंबर १९९२ को भारत में कारसेवकों द्वारा अयोध्या स्थित बाबरी मस्जिद का ढ़ाँचा गिराए जाने एवं बांग्लादेशी मुसलमानों की आक्रामक प्रतिक्रिया से होती है।
उपन्यास की कथावस्तु सुरंजन तथा माया के इर्द-गिर्द घूमती है। सुरंजन हिंदू परिवार से है तथा मुसलमान लड़की परवीना से प्रेम करता है। लेकिन दोनों के बीच मजहब दीवार बनकर खड़ा हो जाता है एवं सुरंजन को अपने प्यार से हाथ धोना पड़ता है। माया सुरंजन की बहन है जिसका दंगाईयों द्वारा अपहरण कर लिया जाता है। सुरंजन के माता-पिता (किरणमयी तथा सुधामय) अपनी बेटी माया तथा बेटे सुरंजन से बहुत प्यार करते हैं। माया की तलाश में कथावस्तु आगे बढ़ती है। एक दस बर्षीय बच्ची मादल को देखकर किरणमयी सोचती है "काश उसकी बेटी भी दस बरस की होती तो दंगाई उसे उठा न ले जाते।"(पृ.सं १२६) सुरंजन सोचता है, "वे लोग माया को क्यों उठा कर ले गए? माया हिंदू है इसलिए? और कितने बलात्कार, कितने खून, कितनी धन-संपदा के बदले हिंदूओं को उस देश में जिंदा रहना पड़ेगा; कछुवे की तरह सिर गड़ाए। कितने दिन तक? (पृ.सं. १२६) सुरंजन अपने आप से इस प्रश्न का जबाव चाहता है लेकिन उसे जबाव मिल नहीं पाता।
सुरंजन का मित्र हैदर माया की तलाश जारी रखने से इसलिए मना कर देता है, क्योंकि वह अवामी लीग का सदस्य है तथा अपने हिंदू मित्र की मदद उसकी तरक्की के राह में रोड़े अटका सकती है। कोई भी समाज या राष्ट्र किसी व्यक्ति विशेष का देन नहीं हो सकता ठीक उसी प्रकार बांग्लादेश का उदभव भी वहाँ के नागरिकों का सामूहिक प्रयास था- "बांग्लादेश का निर्माण यूँ ही नहीं हो गया हिंदू, बौद्ध, क्रिश्चियन, मुसलमान सभी का इसमें समान त्याग है, लेकिन किसी एक धर्म को राष्ट्रधर्म घोषित करने का अर्थ होता है दूसरे व्यक्ति के मन में अलगाववाद को जन्म देना।"(पृ.सं.११२) इसका पुख्ता प्रमाण इन बातों से मिलता है जब माया स्कूली बच्चों से तंग आकर अपने भाई सुरंजन से कहती है "अब मैं हिंदू नहीं रहूँगी वे मुझे हिंदू कहकर चिढ़ाते हैं।" प्रति उत्तर में पिता सुधामय कहते हैं-"तुम हिंदू हो किसने कहा? तुम मनुष्य हो मनुष्य से बड़ा इस दुनिया में कोई नहीं।"(पृ.सं.१०२) वस्तुत: धर्म का राजनैतिक इस्तेमाल पाकिस्तान बनने के साथ ही शुरु हो चुका था लेकिन वही धर्म का बंधन पाकिस्तान को एक नहीं रख सका। यह भी अक्षरश: सत्य है कि बांग्ला-मुक्ति संग्राम धर्म निरपेक्ष संघर्ष था लेकिन धर्मनिरपेक्षता का यह सिद्धांत स्वातंत्र्य बांग्लादेश में ज्यादा समय तक टिक नहीं पाया तथा पाकिस्तान का अनुसरण करते हुए बांग्लादेश को भी मुस्लिम राष्ट्र बनाने पर जोर दिया गया।
ये वही सुधामय थे जिन्होंने चौंसठ में अयूबशाही के विरूद्ध नारा लगाया था "पूर्वी पाकिस्तान डटकर खड़े होओ।" (पृ.सं. १०२) लेकिन बदले में देश से उन्हें क्या मिला? किरणमयी ने पचहत्तर के बाद सिंदूर लगाना छोड़ दिया तथा सुधामय ने धोती पहनना छोड़ दिया। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद स्थिति और भी बद से बदतर होती गयी एवं वहाँ के हिंदूओं ने यह मान लिया की उनकी नियति में अब अपमान तथा आँसूओं के सैलाब के सिवा कुछ भी नहीं है। "हिंदूओं का बलात्कार के लिए अब किसी गली कुचे में जाने की जरूरत नहीं पड़ती वह खुलेआम किया जा सकता है।"(पृ.सं. १४५)
स्त्री विमर्श की दृष्टिकोण से उपन्यास की पात्र किरणमयी का चरित्र एक परंपरागत स्त्री का है जिसे अपने पति ने भी कम दुख नहीं दिए। उसे पुजा करने तथा गाना गाने का शौक था लेकिन सुधामय ने साफ शब्दों में कह दिया था इस घर में यह सब नहीं चलेगा। "इक्कीस बर्षों से वे किरणमयी के सतीत्व का पहरा भर देते रहे। उन्हें क्या जरूरत थी अपनी पत्नी के सतीत्व का उपभोग करने की?"(पृ.सं.१३०)
प्राय: युद्ध तथा दंगों की आखिरी शिकार औरतें ही होती हैं। अपनी बहन माया के प्रतिशोध का बदला लेने के लिए सुरंजन एक मुस्लिम वेश्या शमीमा को घर ले आता है। सुरंजन की आँखों के सामने चलचित्र की भाँति दृश्य उभरने लगता है किस प्रकार दरिन्दों ने माया का बलात्कार पशुवत किया होगा। शमीमा के साथ वह उसी क्रुरता से पेश आता है। "शमीमा के गले की खरोंच से खून निकल रहा है। कातर दृष्टि से शमीमा कहती है दस ही रुपया दे दीजिए सुरंजन पहले उसे फटकार लगाता है लेकिन अंतत: उसे दया आ जाती है दरिद्र लड़की पेट की आग बुझाने के लिए शरीर बेचती है। पैसों से एक मुट्ठी भात तो खा लेगी पता नहीं कितने दिनो से भूखी होगी।"(पृ.सं.१६४)
उपन्यास का अंत हताशा से भरा है। सुरंजन सुधामय से कहता है हम भारत जाएँगे। सुधामय सुरंजन को फटकार लगाता है "अपना देश छोड़कर भागने में लज्जा नहीं आती है? देश! देश को धोकर पानी पीयेंगे पिताजी? देश ने आपको क्या दिया है? क्या दिया है? क्या दे रहा है मुझे? माया को क्या दिया है आपके देश ने? माँ को क्यों रोना पड़ता है? आपको क्यों रात-रात भर कराहना पड़ता है? मुझे क्यों नींद नहीं आती है?"(पृ.सं. १७३) यह हताशा सुरंजन तथा उसके देशभक्त पिता सुधामय की ही नहीं बल्कि संपूर्ण मानवता की हताशा है।
इस उपन्यास को पढ़ने पर मन में बार-बार एक प्रश्न उठता है आखिर कब तक धर्म और राजनीति का अनुचित समिश्रण होता रहेगा। धार्मिक बर्बरता का शिकार आखिर कब तक लाखों-कड़ोरों निसहाय एवं निरपराध लोग बनते रहेंगे। मानवता के लिए इससे बड़ी लज्जा और क्या हो सकती है। क्यों इस उपमहाद्वीप की आत्मा एक नहीं है? हमें एक दूसरे की भावनाओं का ख्याल रखते हुए प्रेम तथा सौहाद्र्पूर्ण समाज की रचना करनी होगी जिसमें सभी संप्रदाय के लोग शांति एवं सम्मानपूर्वक जी सकें।
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