-अर्पणा दीप्ति
ॠषभदेव शर्मा एक सम्वेदनशील कवि हैं, उनकी कविता
संग्रह “देहरी” स्त्री के बहुआयामी समस्याओं का पड़ताल तथा विरोध का तीव्रतम रूप है
| “देहरी” का मुख्य स्वर वह स्त्री है जो
अशिक्षित है, निर्धन है, साधनहीन है, दलित है, मजदुर हैं | इन स्त्रियों का जीवन
आक्रोश, कर्मठता, तथा विद्रोह से ओत-प्रोत है | इनके अन्दर स्वाभिमान है , वेदना
की चिंगारी है जो हमेशा सुलगती रहती है |
“देहरी” का कवि चेतनशील है, जागरूक है, समकालीन
आर्थिक, समाजिक, तथा राजनितिक परिस्थितियों पर पैनी नजर बनाये हुए है | कवि न तो
स्त्री के प्रश्न को दरकिनार करता है न ही उसके शोषण और उत्पीड़न को | कवि सजग है,
बदलाव की आकांक्षा की जिजीविषा लिए सतत प्रयत्नशील है | मानवीय मूल्यों का पक्षधर
है | न तो वह अपनी कविता को सौन्दर्य का जामा-जोड़ा पहनाता है न ही अलंकार का
लाग-लपेट | पाठकों के सामने जस की तस स्थिति में अपनी बात रखता है |
“परसों तुमने मुझे / चीखने वाली गुड़िया समझकर /
जमीन पर पटक दिया /.........नहीं!/ मैं गुड़िया नहीं / मैं गाय नहीं / मैं गुलाम
नहीं | (गुड़िया-गाय-गुलाम पृ.1)
भाषा और भाव जब एक दुसरे से मिलते हैं तो वह
काव्य का रूप लेता है | कवि ने स्त्री के चहूँमुखी शोषण को बड़े ही साफगोई से काव्य
का रूप दिया है | कविता में उपस्थित स्त्री कहीं भी अपने आप को महिमामंडित नहीं
करती है मानवी के रूप में ही पाठकों के सम्मुख आती है |
“ वे पृथ्वी हैं-/सब सहती हैं / चुप रहती हैं |
(परम्परा पृ.77)
कवि ने बड़े ही बेवाकपना से उस स्त्री के आवाज को
शब्द्वद्ध किया है जो सभ्यताओं के खंडहर होने की आशंका से शंकित है |
“क्यों अलगाते हो / पर्वत घाटी से / भाई को बहन
से / माँ को बेटी से ??/ मुझे मेरा पीहर लौटा दो / मेरी मां मुझे लौटा दो / मेरा
निंगोल चाक्कौबा | (निंगोल-विवाहित लड़कियों को घर बुलाना | चाक्कौबा-भोजन कराना )
मणिपुरी शब्द
अगर हम सभ्य हैं, सजग हैं, सतर्क हैं तो शोषण और
अन्याय के खिलाफ प्रतिकार करना हमारा कर्तव्य है | सजगशील कवि भी अपने कर्तव्य से
विमुख नहीं है | काव्य की भाषा प्रतिरोध की भाषा भी है |
“मैंने किताबें माँगी / मुझे चूल्हा मिला /
........मैंने सपने मांगे / मुझे प्रतिबन्ध मिला / मैंने सम्बन्ध मांगे मुझे
अनुबंध मिला / ........./ कल मैंने धरती माँगी थी / मुझे समाधि मिली थी / आज मैं
आकाश मांगती हूँ / मुझे पंख दोगे | (मुझे पंख दोगे पृ.18 )
जब शोषण अपने चरम पर पहुँचता है तो अबला भी सबला बनती
है शक्ति का अवतार लेती है |
“मैंने कितने रावणों के नाभिकुंड सोखे / कितने
दुर्योधनों के रक्त से केश सींचे / कितनी बार महिषमर्दिनी से लेकर दस्यू सुन्दरी
तक बनी / कितनी बार......./ कितनी बार..../ -यमदूतों मुझे नरक में तो जीने दो !!
(न कहने की सजा पृ.87-88 )
कहने को तो ये कविताएँ स्त्रीवादी है लेकिन इस
संग्रह की विशेषता यह है कि यह केवल स्त्री के इर्द-गिर्द न घुमकर पारिवारिक
संरचना के बदलते स्वरूप, सामाजिक ढाँचे और मूल्यों के विघटन का स्वर है | इन
कविताओं में स्त्री अपने-आपको अलग इकाई के रूप में न स्थापित करके धूरी की तरह
चित्रित दीखती है |
“औरतें औरतें नहीं हैं / औरतें हैं संस्कृति /
औरतें हैं सभ्यता | (औरतें औरतें नहीं हैं पृ. 93)
स्त्री की अनेक छवि इन कविताओं में देखने को
मिलती है आदिवासी से लेकर घर-परिवार की महानगरों की गाँवों की कस्बों की –
“माँ धौंक रही / हवा से फुलाकर / धौकनी लगातार /
भट्टी भी तप रही है / तप रहे हम दोनों /”
(गाड़िया लुहारिन का प्रेमगीत पृ. 112)
इन स्त्रियों के भीतर एक घुटन है, एक उबाल है, एक
ललकार है जो चुनौती में बदल जाती है |
“ सुनो,सुनो / अवधूतों ! सुनो / साधुओं ! सुनो / इन
चीखों को सुनो / इतिहास के खंडहर को चीरकर / आती हुई ये चीखें औरतों की हैं |
(औरतें पृ.69 )
इस कविता संग्रह में यथार्थ है, प्रामाणिकता है, साहित्यक
ईमानदारी है | समकालीन समस्याएं हैं | मानवीय सम्वेदना का आग्रह है, वर्तमान और
भविष्य के लिए परिवर्तन की आकांक्षा है | कविता संग्रह में संकलित कविताएँ समाज और
राष्ट्र में घटित आधी-आबादी के सम्वेदनाओं का व्यग्रतम अनुभूति है |
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