-अर्पणा दीप्ति
श्री टी. वल्ली
राधिका की कहानी संग्रह “पायोजी मैंने...” मूलतः तेलुगू कहानी संग्रह है इसका हिन्दी अनुवाद आर.चन्द्रशेखर ने
किया है | अनुदित हिन्दी संग्रह की भाषा बहुत ही सरल है | कपोल कल्पना से परे इसे
दिन-प्रतिदिन की घटनाओं से लिया गया है | लेखिका स्वयं विज्ञान तथा टेक्नालजी की छात्रा
तथा आईटी उद्यमी हैं | अत: इनकी कहानी के पात्र फैंटसी के ताम-झाम से पड़े बिना
लाग-लपेट के निर्विकार दिखते हैं | संग्रह की कहानियों को पढने के बाद ऐसा प्रतीत
होता है कि ये हम सब की कहानी है | कहीं न
कहीं हम भी इस कहानी के किरदार हैं | किसी कहानी का पात्र अमरुद का पेड़ है, तो
किसी कहानी का पात्र दो दशक से काम करनेवाली घरेलू नौकरानी तो कहीं जीवन रूपी रथ
को सहजता से खींचते हुए तथा सामंजस्य बिठाते हुए दम्पति है, तो कहीं मितव्यता का
गुण सीखती ननद-भाभी | इस संग्रह में कुल मिलाकर बारह कहानी है | हर कहानी में
स्त्री लैंस से भोगा तथा जीया गया समाज का वृहत्तर अंश है |
“सहधर्मचारिणी”
गृहस्थ जीवन के ताने-बाने से बुनी हुई कहानी है तो “गुरुत्व” कहानी में यह दर्शाया
गया है की किसी भी चीज पर विश्वास न करना, परिहास उड़ाना सामान्य सी बात है |
किन्तु जब मनुष्य का सामना सच से होता है तो वह उस आलोक से आलोकित हो उठता है |
यही इस कहानी की विशेषता है | चारदीवारी के पार खड़े अमरुद के पेड़ को कथा नायिका
देखती है और नाराज होती हैं | एक दिन वह जब शाम को घर जल्दी लौटती हैं और सर उठाकर
अमरूद के पेड़ को देखती हैं तो दंग रह जाती हैं-
“किस तरह वह कई जीव-जन्तुओं को
आशियाना दे रहा.......सुरक्षा प्रदान कर रहा है......”(पृ.10)
यानी कि किसी भी
वस्तु को मात्र उसकी सतह से परखना उसके तलछट का सत्य नहीं है | उस सत्य से तभी परिचित
हुआ जा सकता है जब उसे निकट से देखा-परखा जाए | यह कहानी गहरे सन्दर्भों में
पर्यावरण के महत्ता को दर्शाती है |
“पायोजी मैंने....”
की नायिका नित्या श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ के मिथक को तोड़ते हुए उपनिवेशिक मानसिकता से
मुक्त होने की दरकार रखती है | नित्या आत्मविश्वासी, तेजस्वी, सुलझे हुए विचारोंवाली
निर्भीक और बेबाक स्त्री है | जाहिर है वह मात्र स्त्री देह नहीं मस्तिष्क भी है |
नित्या ने हंसते हुए कहा-“मैं होती तो लाखों नहीं करोड़ों रूपये दिए जाएँ उस तरह
डांस करने के लिए तैयार नहीं होती |” (पृ.74)
“मुक्ति” कहानी की
भूमि कॉर्पोरेट जगत से निर्मित है | कहानी के दो मुख्य पात्र प्रिया और विनीत एक
कम्पनी में प्रोजेक्ट मैनेजर हैं | यह कहानी यह दर्शाता है कि महत्वाकांक्षा के
उड़ान को अतिस्वछंदता दे दी जाए तो उसका कोई अंतिम पड़ाव नहीं होता | सम्पूर्ण कहानी
का मूलमंत्र एक वाक्य है-
“चपलताओं और इच्छाओं का सांगत्य करने वाला मन.....इन्द्रियों
का गुलाम बना मन.......क्रोध और लोभ का कारण बनता है |” (पृ.110)
अन्य कहानियाँ भी
जैसे ‘सत्य के साथ’ ,’सीमाओं के बीच’ , ‘सत्य’ , ‘चयन’ , आदि अपनी सम्वेदनाओं के
विस्तार और मूल्यों को अपनाने की ओर अग्रसर करती दिखाई देती हैं | कहानी के मुख्य
छ: तत्व होते हैं-कथा-वस्तु, पात्र , चरित्र-चित्रण, भाषा-शैली, पूरक घटनाएँ,
वार्ता और परिस्थितियां | इन छ: तत्त्वों का समावेश लेखिका ने अपनी कहानी में
बखूबी किया है | इनकी हरेक कहानी एक संदेश लेकर खड़ी है जो आधुनिक परिवेश की
विसंगतियों,विकृतियों विडम्बनओं एवं दरकते रिश्ते से जूझने के लिए जीवन का स्केच
तैयार करती है | कहानी में कहीं भी भाषा का भदेशपना तथा किलिष्टता नहीं झलकता |
जीवन में व्याप्त सहजता, मानवीय सम्वेदना, पारिवारिक सम्बन्धों की छावं, राग-द्वेष,
खीझ-झुंझलाहट का का मनोवैज्ञानिक चित्रण इस कहानी संग्रह की विशेषता है | या यूँ
कहिये मानवीय व्यवहार का मनोविज्ञान कहानी संग्रह में सर्वत्र विद्यमान है | भाषा की
कड़ी भी जीवंतता तथा समग्रता से जुड़ी हुई है | श्रीवल्ली राधिका की कहानी भौतिक जगत
से ली गई है | इनके स्त्रीपात्र कहीं भी स्त्रीपना से उठकर दैवी रूप धारण नहीं
करती | आज के परिवेश में जब समाज दामिनी, गुड़िया,इमराना, भंवरीदेवी, निर्भया पर
हुए अन्याय का बदल लेने के लिए सड़कों पर हैं वही श्रीवल्ली के स्त्रीपात्र बड़े ही
साफगोई से अपने अस्तित्व को स्थापित करने में लगे हुए हैं | समग्र कहानी से जो
निकलकर आया है वह यह कि समाज के साथ जो ‘स’ से जुड़ा हुआ है उसकी सकारात्मकता से हम
क्यों अलग होते जा रहें हैं | हमारे पास अपार और अगाध है | कहानी संग्रह उम्दा तथा
पठनीय है |
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