-अर्पणा दीप्ति
कविता
का सीधा सम्बन्ध ह्रदय से होता है | अगर कोई बात सामान्य रूप से न कहकर काव्य की
भाषा में कही जाए तो उस बात का असर फलीभूत और स्थाई होता है | अपने कोमल शब्दों के
द्वारा जहां कवि आनन्दमयी लोक की रचना करता है वहीं इन रचनाओं में लौकिक जीवन के
सुख-दुःख, प्रेम-घृणा, करुणा के भाव भी शब्दबद्ध होते हैं | ’सूँ साँ माणस गंध’ लोक
जीवन में घटित होने वाली घटनाओं का उद्बोधन है | ऋषभ देव शर्मा की इस काव्य संग्रह
को पढने से स्पष्ट पता चलता है कविता से गायब होते आदमी, पेड़, मौसम, गाँव, पर्व-त्यौहार,
और देश की तलाश में जुटे कवि की अभिव्यक्ति ‘सूँ साँ माणस गंध’ है |
"दुलहिनों ! मंगलाचरण
गाओ नया वर्ष आया ..........आरती उतारो नए पाहुनों की |" (स्वागत नववर्ष पृ.19)
भाषायी
अस्मिता को बचाने की जद्दोजहद भी है –
“मेरे
पिता ने बहुत बार मुझसे बात करनी चाही, मैं भाषाएँ सीखने में व्यस्त थी |”(भाषाहीन
पृ.13)
जहां इन कविताओं में सभ्यता, संस्कृति,
भाषा और देश को बचाने की संघर्ष का स्वर मुखर है वहीं विश्वास भी है जो परीलोक की
कल्पना से परे है |
“इसके बाद परी मुस्कराई
/ मेरे पास आई / जादू की तलवार से धीरे-धीरे मेरे पंख रेत दिए /..................अब
मैं फिर धरती पर रेंग रहा हूँ |”(परी की कहानी पृ.33 )
26 जनवरी, संक्रातितथा प्रभात
जैसी कविताएँ चुनौती देते हुए मुक्ति की आकांक्षा को स्वरबद्ध करते हुए संभावामी
युगे-युगे की ओर ले जाती है |
आज के दौर में बड़ी काया वाले काव्य ग्रन्थ
पढ़ने का न तो लोगों के पास समय है और न ही धैर्य | समय के दबाव में रचनाकार की
छोटी-छोटी सम्वेदनाएँ भी काव्य रूप धारण कर सकी | प्रस्तुत काव्य संग्रह में
विचारों तथा सम्वेदनाओं को उद्वेलित करती लघु कविता भी प्रचुर मात्रा में हैं-पछतावा,
कंगारू, और कब तक, अतिवादी की चुप्पी, एक चट्टान दूध की, झिल्ली, पेय, चवर्णा,
मुलाकाती आदि इन कविताओं में कवि की बैचेनी सहज रूप से देखी जा सकती है |
इस काव्य
संग्रह के हरेक कविता में भावनाओं तथा विचारों को आंदोलित करने की वह क्षमता है जो
पाठकों को एक नई चेतना नया दृष्टिकोण प्रदान करता है-
“स्वर्णकमलों की वाटिका में/
मेरा साम्राज्य है / तब मैं जीवित लाश था आज मैं शासक हूँ |” (कपाल स्फोट:भूख और
कुर्सी पृ.81)
“भूख और
प्यास के मुखौटे अब मुझे याद नहीं / मैंने शासन करना सीख लिया |” (वही पृ.81)
कवि अपने कवि कर्म के प्रति बहुत ही सजग और
सतर्क दीखता है वह समाजिक विद्रूपताओं और विषमताओं पर कटाक्ष करने से भी नहीं चूकता
है इससे पहले की कोई हमें फिर पिंजरे में बंद करके चूहे की मौत दे और पूंछ पकड़कर
नालियों के किनारे फ़ेंक दे हमें सजग होना ही पड़ेगा | पंगू अंधी तथा लाचार राजनीति
पर भी कवि खुलकर कलम चलाने से नहीं चूकता है –
“केवल
कुर्सी पगलाई है, बांकी सब कुछ ठीक-ठाक है / भोली-भाली जनता भरमाई बांकी सबकुछ ठीक-ठाक
है |” (केवल कुर्सी पगलाई पृ.135)
“हर तरफ
अंधे धृतराष्ट्र हैं /गान्धारियों ने / आँखों पर पट्टी बाँध रखी है |/.............भरे
देश में क्या हुआ ?क्या न हुआ ?”
जहाँ कवि
ने सामाजिक विसंगतियों पर खुलकर कलम चलाई है वहीं “जगदीश सुधाकर” कविता में कवि का कोमल हृदय दोस्त की तलाश करते दिखाई
देता है | दोस्त तो कहीं नहीं दिखता, लेकिन उसका तब्लक बत्तीस हर जगह मौजूद है |
दोस्त भी तब्लक बत्तीस में हीं हैं-
“उस औघड़
यार ने /डायरी तो कभी रखी नहीं /फाइल या कापी भी नहीं / सब या तो जबान पर हैं या
कागज के मुट्ठे में |” (जगदीश सुधाकर पृ.114)
इस काव्य संग्रह अनोखी विशेषता यह दिखती है
की कवि का आलोचक एक अनपढ़ किसान है जो शहरी पढ़े-लिखे लोगों की सो कॉल्ड (so called)
सभ्य भदेशी काव्य भाषा को सिरे से खारिज करता है| सही मायने में यह किसान ब्रांडेड
समालोचकों के लिए चुनौती ही तो है |
“सूँ
साँ माणस गंध” जीवन की समता-विषमता, आशा-आकांक्षा, सुख-दुःख, सहजता-जटिलता, भय-प्रेम,तनाव-संघर्ष
एवं क्षीण होती जा रही मानवीय मूल्यों से पाठकों को रु-ब-रू करवाती है, वहीं दर्शन
प्रकृति और सूक्ष्म सम्वेदनाएं भी कविता में सवर्त्र दिखाई देता है | कवि का बेबाकपना
कविता को ह्रदयग्राही और मर्मस्पर्शी बनाता है | लोक जीवन से लिए गए बिम्ब, प्रतीक
और उपमान काव्य संग्रह को जीवन्तता प्रदान
करती है तो भाषा और शिल्प दोनों का अद्भुत मेल इस काव्य संग्रह में हर जगह देखने
को मिलता है | “सूँ साँ माणस गंध” लोक की भाषा है, समय की बैचेनी है, परिवर्तन की
आकांक्षा है | कवि के सवाल न तो नींद से आँखे चुराते हैं और न दर्द से | कवि का
संघर्ष लोक को बचाए रखने की जद्दोजहद है | निर्णय हमें करना है कविता को नहीं, कवि
को भी नहीं | आने वाली पीढियों को हम विरासत में क्या देंगे लोक या लोक विहीन समाज
?
अच्छी अभिव्यक्ति
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