मंगलवार, 20 मार्च 2018

सामाजिक सरोकार से जुड़ती गजलें



                                               अर्पणा दीप्ति 

हिन्दी साहित्य में अन्य भाषाओं से आई विधाओं में से गजल भी एक महत्वपूर्ण विधा है | उर्दू साहित्य में गजल जहाँ जुल्फ और हुस्न के दांव-पेंच में उलझी रही वहीं हिन्दी साहित्य में वर्तमान परिस्थितियों में ढलकर इसने बागी तेवर अपनाया | परिणाम स्वरूप हिन्दी गजलों में आक्रोश तथा विद्रोह अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम बनकर उभरा |
       जहाँ हिन्दी में गीत के लिए भाव अनिवार्य है और गीत के एक अंश से सम्पूर्ण भावों की अभिव्यक्ति सम्भव नहीं होती, वहीं गजल का हरेक शेर स्वतंत्र होने के साथ-साथ भाव तथा अभिव्यक्ति में भी परिपूर्ण होता है |
            हिन्दी साहित्य में गजल के सशक्त हस्ताक्षर रहे दुष्यंत कुमार के अलावा वर्तमान परिवेश में जिन गजलकारों ने अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज करवाई उनमें प्रकाश ‘सूना’, गौतम राजऋषि, प्रवीण प्रणव आदि प्रमुख हैं | गजल शब्द का शाब्दिक अर्थ है “प्रेमिका से वार्तालाप” | किन्तु आज के दौर में गजल अपने इस शाब्दिक खोल से बाहर निकलकर एक नई पहचान बना चुका है | अब यह प्रेमिका से बातचीत का माध्यम न होकर सामाजिक सरोकारों एवं मुद्दों से जुड़ गया है | प्रकाश सूना का गजल संग्रह “ख्यालों के पंख” में यह विशेषता स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है | इस संग्रह की विशेषता यह है की इसकी भाषा सरल, बोधगम्य एवं ह्रदयस्पर्शी है |

“अहसान है मुझ पर जो तूने जिन्दगी बख्शी /
तेरा जो फैसला होगा मुझे मंजूर है या रब |” (पृ.12)

वहीं इन गजलों में वियोग, आशा-निराशा भूख-भय, बेकारी और तनाव आदि सभी समाजिक एवं व्यक्तिगत सरोकार भी देखने को मिलता है-

“चीख रहें हैं जाने कब से /फुटपाथों पर जो रहते हैं / सदियों से सहते आए हैं / फिर भी उनके होठ सिले हैं |”(पृ.33)
“कौन किसका इस शहर में /देखना है आदमी कितने बंटेंगे / रोटियों को तरसते इस जमी पें / लोग कहते हैं चाँद पर भी घर बनाएंगें |” (पृ.25)

लोक के बिना साहित्य की कोई भी विधा क्यों न हो वह निष्प्राण हीं तो है, मानो शरीर है किन्तु आत्मारहित | लोकविहीन साहित्य सम्प्रेषण रहित होता है एवं सुधी पाठकों में अपनी पैठ बनाने में असफल होता है | प्रकाश ‘सूना’ ग्रामीण अंचल में रचे-बसे साहित्यकार हैं | ’ख्यालों के पंख’ में संकलित गजलें लोक तथा संस्कृति से पूरित है | इस संकलन की गजल का हरेक शेर पीड़ा, घुटन, आक्रोश और परिवर्तन की आकांक्षा से ओत-प्रोत है |  इस संग्रह में समाहित हरेक गजल विशुद्ध भारतीय परिवेश की गजल दीखती है यथा-

“ऊँचे महलों को मत देखो ये तो ढोल सुहाने हैं|” (पृ.52)

कुछ गजलें ऐसी भी हैं जिन्हें पढ़ने-सुनने का आनंद वर्षा की शीतल फुहार में भींगने जैसा है-

“जब-जब प्यासी होगी धरती /फिर-फिर बादल आएंगें / गाँव-गाँव हरियाली से शीतल होगी जलधारा |” (पृ.52)

प्रकाश सूना के गजलों में जहां लोक तथा सामाजिक सरोकार है वहीं आध्यात्म भी देखने को मिलता है|

“कोई काशी में कहता है, कोई काबा में कहता है / मगर तू हर जगह, हर चीज में मस्तुर है या रब |” (पृ.12)

प्रकाशजी ने अपना उपनाम ‘सूना’ लगाया है | ‘सूना’ उपनाम की सार्थकता इनके गजलों में स्पष्ट दीखती है | गजलकार के जीवन में एक खालीपन, एक शुन्यता है जो संग्रह के गजलों के माध्यम से द्रष्टव्य है |
इस गजल संग्रह की विशेषता यह है की इसमें हरेक स्वाद की गजलों को समाने की कोशिश की गई है | कथ्य, भाव तथा शिल्प की दृष्टि से यह संकलन ताजगी से पूरित है संकलन की यही ताजगी इसकी लोकप्रियता का आधार है | इसे पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है मानो तब और अब के दौर को आईने में समेटकर उसे रू-ब-रू दिखाया गया हो | हालाकि कि किसी भी क्षेत्र में परिपक्वता की कोई सीमा निर्धारित तो नहीं होती किन्तु और बेहतर करने की इच्छाशक्ति हमेशा बनी रहनी चाहिए | संग्रह की गजल पठनीय एव उम्दा है |  पाठकों तथा गजल प्रेमियों के बीच यह संकलन लोकप्रिय होगा |



          



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