अर्पणा दीप्ति
जीवन के सारे रिश्ते
नाते नेह ही तो है जिसे हम प्रेम कहते हैं | जहाँ प्रेम नहीं वहां कुछ भी नहीं |
जैसे रचना के लिए सामाजिक सरोकार जरुरी है वैसे ही जीवन के लिए प्रेम जरुरी है |
जिस दिन मानव जीवन से प्रेम को अलग कर दिया जाएगा उस दिन करूणा वेदना और सम्वेदना
का संसार विलुप्त हो जाएगा | प्रेमविहीन व्यक्ति, समाज, व्यवस्था, अर्थ तथा भौतिक
कंक्रीट के बढ़ते जंगल के समान है |प्रेम को भूषण या विभूषण पुरस्कार तो चाहिए
नहीं, यह सही मायने में समर्पण, निष्ठा और त्याग ही तो चाहता है | यह एक सांस्कृतिक
प्रक्रिया है जो विभिन्न परिस्थितियों में संचालित होता है | सही अर्थों में यह
मनुष्य की शाश्वत भावना है जो स्त्री और पुरुष दोनों में विद्यमान है | इसे जायज
या नाजायज ठहराना बस एक सामाजिक फंडा है |
आज इच्छाओं के भीड़ में मनुष्य का संतुलन
बिगड़ रहा है | वह प्रेमविहीन होता जा रहा है | छायावादोत्तर तथा वर्तमान कविताओं
में सामाजिक विसंगतियां कविता का मुख्य सरोकार रही है | ऐसे में 2012 में प्रकाशित
ॠषभ देव शर्मा का काव्य संग्रह “प्रेम बना रहे” अर्थ तन्त्र के कुचक्र से निकलकर
प्रेम को स्थापित करती दीखती है | इस संग्रह में कुल मिलाकर छोटी तथा बड़ी काया
वाली 68 कविताएँ हैं | जैसा की पुस्तक के आरम्भ में लिखा गया है कि यह कविता विवाह
की 28 वीं वर्षगाँठ पर कवि न अपनी पत्नी को ससंकोच समर्पित किया है | जाहिर है की यह
काव्य संग्रह दाम्पत्य जीवन के मधुर प्रेम को दर्शाती है | काव्य संग्रह में प्रेम
जहाँ झील की तरह शांत है वहीं नदी की तरह कलकल छलछल भी करती है –
“तुम झील हो / जितनी
शांत / उतनी ही गहरी |” (झील पृ .12)
तुम नहीं / आवेग में
/ छलछलाती उद्दाम | (नदी पृ. 13)
यहाँ
कबीर के दोहे की तुलना इस काव्य संग्रह के एक कविता से की जा सकती है | कबीर ने
कहा है “पोथी पढि पढि जग मुआ पंडित भया न
कोई ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय |” इस बात को दर्शाती एक लम्बी कविता (असमाप्त
प्रेम कविता) है | इस कविता को पढ़कर ऐसा कहा जा सकता है कि कवि ने इसे समेटने में
जल्दबाजी दिखाई | अगर इसको विस्तार दिया जाता तो यह अवश्य ही खंडकाव्य का रुप ले
सकती थी |
“अक्सर
हम दोनों / पास-पास रहते / पर चुप रहते / हमारी किताबें आपस में बात करती / और हम
प्रेम मुदित होते |” (असमाप्त प्रेम कविता पृ.69)
स्त्री
शृंगार प्रिय तथा आभूषण प्रिय होती है | शृंगारमना स्त्री के शृंगार को दर्शाती
कविता है “वाली सोने की”
“कानों
में इतराय कामिनी वाली सोने की “ (वाली सोने की पृ.1O8)
भाषिक
जुगलबन्दी का अनूठा संगम भी देखने को मिलता है –
“मेहंदी
बेंदी चुनरी कजरा गजरा फूलों की / किस पर यह गिर जाय दामिनी वाली सोने की |”
(वही)
प्रेम
का डगर कभी भी आसान नहीं था न है प्रेम के
रास्ते पर चलाना मानो दो धारी तलवार पर चलने जैसा है |
“कोई न
साथ दे सका इस परम पन्थ में / तलवार धार पर सदा चलना हुआ |” (पृ.114)
जीविकोपार्जन लिए चाहे हम हो या आप सभी को अपनी माटी से बिछोह
सहना पड़ता है | एक-एक बार तो मन:स्थितियां ऐसी हो जाती है कि “रहना नहीं देश
बिराना है “ माटी के बिछोह तथा लोक संस्कृति में रची बसी कविता भी इस संग्रह में है ‘यह गाँव
खो गया’ ‘गोबर की छाप’ आदि लोक से पूरित रचनाएँ हैं |
“गाँव
की सौंधी गंध तो / कभी की जाती रही / लेकिन / गोबर सनी हथेली की / इस छाप का क्या
करूं / जिसका रंग पीठ पर / दिन-दिन गहराता जाता है |” (गोबर की छाप पृ.28)
संग्रह
की सभी कविताएँ मिलन-बिछोह, आशा-निराशा तथा चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में भी प्रेम
के लौ को जीवित रखती दिखाई देती है | सूफी संतों ने भी प्रेम को एक अबूझ पहेली माना
है तो रहस्य कहाँ नहीं है ? क्षणभंगुर जीवन में अगर ईश्वर के बाद कोई शाश्वत सत्य
है तो वह है प्रेम | शब्द तो बस एक माध्यम है | इससे भावनाओं का इतिश्री नहीं हो
सकता | यह भी अकाट्य सत्य है की प्रेम में जहाँ उद्देश्य बीच में आता है वहाँ पर
भावनाएं कठोर हो जाती है | प्रेम भी प्रेम नहीं रह जाता वह अपाहिज हो जाता है या
उसकी अकाल हत्या हो जाती है | आज इच्छाओं के भीड़ में जहां कविताएँ असंतुलित हो रही
हैं वहां निसंदेह ही यह काव्य संग्रह प्रेम रूपी वटवृक्ष के भाँति शीतलता प्रदान
करती दिखाई देती है | अकविता, कुंठा और तनाव के दम घोंटू वातावरण से यह काव्यसंग्रह
मुक्त है |
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