गुरुवार, 1 अक्टूबर 2015

कनफेशन 
ज़िंदगी भर लोगों से दोस्ती की निभाई, अब खुद से करना सीख रही हूं।
यक़ीन मानिए यह सबसे कठिन है, मेरा आंतरिक बहुत जटिल है। अपने से दोस्ती यानि सब कुछ जानना अपने बारे में मूड्स के बारे में। और मैं यह भी जानती हूं कि जो दिखता है मेरा बाहरी बौद्धिक, सुंदर और खुशनुमा। 
वह बहुत खुशनुमा नहीं है, ईर्ष्यालू नहीं हूं पर कई बार मैं उस जगह होना चाहती हूं जहाँ और लोग हैं। मैं जितना आकर्षक खुद को दिखता हुआ महसूस करती हूं, आत्मविश्वासी।कई बार मुझे लगता है, मैं बहुत साधारण हूं बल्कि असुंदर और अात्मविश्वास डिगा कर हकलाने लगती हूं। सभ्रांत दिखते दिखते लगने लगता है कि मेरा गंवईपन लोग देख पा रहे हैं। मेरे हाथ से चीजें छूट जाती हैं। बहुत ठहरे और सहेजे ज्ञान के बरक्स भी कई बार भीतरी अज्ञानता खुद के आगे शर्मिंदा कर जाती है। सबसे खराब यह कि स्पष्ट "ना" कहना बहुत देर से सीखा।
यारबाश दिखती हूं पर भीतर का अकेलापन, दोस्तों की क्षुद्रताएं, अपरादर्शिताएं और मेरी साफ़गोई अकसर टकरा जाते है। मैं उनके मुखौटों से टकरा कर घायल हो जाती हूं।
बहुत अकेले होने पर तो मैं एकदम बिखरी और बेवकूफ़ दिखती हूं। मैं हड़बड़ा कर टकरा जाती हूं, चलते हुए लड़खड़ा भी।
मेरे एक दोस्त थे, दुनिया घूमे हुए। उन्होंने भी मुझसे एक बार कनफेस किया था, कि कई बार पांच सितारा होटल और एयरक्राफ्ट में चढ़ते हुए उन्हें आज भी लगता है, दरबान या एयर होस्टेस उन्हें भीतर आने से रोक न दे। कई बार आत्मविश्वास साथ छोड़ देता है, या पुराना कॉलेज के ज़माने की हिचक और अहसासे कमतरी आकर मन में दुबक जाते हैं।
कोई बताए तो, क्या ये सबके साथ गुज़रता सच है?
हम सब क्या हैं, ये अकेले छूटते से हम कौन हैं। ये हमारा अंतस इतना जटिल क्यों है और आजकल मेरी मुठभेड़ इससे क्यूं है?

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है.

 कुछ  कारणवश ब्लाग को समय नहीं दे पा रहीं हूँ | पाठकगण  से करबद्ध क्षमा प्रार्थी हूँ  | नियमित पाठक मेरे वेबसाइट पर आलेख पढ़ सकते हैं |