सिमीं बहबहानी
मैं ऐसी स्त्री को जानती हूँ
मैं ऐसी स्त्री को जानती हूँ जो घर के कोने में
कपड़े धुलने और खाना बनाने के दरमियाँ
अपनी रसोई में गुनगुनाया करती है
मन को जगा देने वाली एक प्रेरक गीत |
उसकी आँखों में मासूमियत है पर एकाकी उदास है
उसकी आवाज थकी और लस्त-पस्त है
उसकी उम्मीदें कल की आस पर टिकी हुई हैं |
मैं एक ऐसी स्त्री को जानती हूँ
जो कुबूल करती है
अपने दिल की बाजी हार जाना उसके सामने
जाने वो इसके काबिल है भी या नहीं ?
वो धीरे-धीरे खुसर-फुसुर करती है
कि चाहती हूँ भाग जाऊं यहाँ से कहीं दूर
पर इसके फौरन बाद खुद से सवाल भी करती है ;
मेरे बच्चों के बाल कौन सवाँरेगा
जब मैं चली जाउंगी |
एक स्त्री जो दर्द से गर्भवती है
एक स्त्री जो जनती है पीड़ा के शिशु
एक स्त्री बुनती है धागेदार कपड़े
एकाकी सूनेपन के तानेबाने से |
कमरे के अँधेरे कोने में
दिए से करती है ईश्वर की प्रार्थना |
एक स्त्री जंजीरों से आदतन घुली-मिली
एक स्त्री जिसको जेल घर जैसा अपना घर लगता है
वार्डन की ठंढी निगाहें बस
कुल मिलाकर यही उसके हिस्से की प्राप्ति है |
मैं एक ऐसी स्त्री को जानती हूँ .....
मैं एक ऐसी स्त्री को जानती हूँ
जो निस्तेज और शिथिल पड़ जाती है तिरस्कारों से
फिर भी गुनगुनाती रहती है कोई न कोई गीत
इसी को कहते हैं किस्मत का फेर ......
इस स्त्री को हो जाता है अभ्यास गरीबी का
इस स्त्री को रुलाई छुटती है सोते वक्त
डाह और विस्मय से चकित स्त्री
समझ ही नहीं पाती कहाँ हुई है उस से चूक ......
एक स्त्री छुपती फिरती है
बेतरह उभरी हुई नसों वाले पैर से
एक स्त्री चौकन्ना होकर एकदम से ढांप देती है |
अपने दुखों की अन्दर अन्दर फैलती लपटें
जिससे कुछ सामने न आए दुनिया के
ये तो ऐसे ही उपरी सिरे तक लबालब होती है
घातों -प्रतिघातों से
मोड़ो-तोड़ो और ऐठ्नों से |
मैं एक ऐसी स्त्री को जानती हूँ
जो बिना नागा अपने बच्चों को
किस्से और लोरियां गा-गाकर सुलाती हैं
पर खुद अपने सीने में
जानलेवा तरकशों के गहरे ही गहरे जज्ब करती है |
एक स्त्री घर से बाहर निकलने में डरती है
कि घ का चिराग वही तो है
सोचती है कि घर कितना भुतहा लगने लगेगा
उसके चले जाने के बाद .........
ये स्त्री शर्मिन्दगी महसूस करती है
भोजन से खाली-खाली है उसका टेबुल
भूखे बच्चे को सुलाने के लिए
उसकी पसंद की गाती है मीठी-मीठी लोरी .....|
मैं एक स्त्री को जानती हूँ
जिसमे अब बची नहीं सुई भर भी जान है
कि चल पाए एक कदम भी
दिल रो-रो कर बेहाल
अब इससे बदतर और क्या होगा.......
मैं सी ऐसी स्त्री को जानती हूँ
जिसने जीता अपने अहम् को बलपूर्वक
हजारों हजार बार
और अंत में वो जब विजयी हुई तो ठहाका लगाकर हंसी
और खूब स्वांग किया ठट्ठा किया
दुष्टों का, भ्रष्टों का .....
एक स्त्री छेडती है तान
एक स्त्री रहती है सुनसान
एक स्त्री अपनी रात बिताती है
अच्छी तरह देखभाल कर किसी सुरक्षित गली में ........|
एक स्त्री मशक्कत करती है दिन भर पुरुषों की तरह
पड़ जाते हैं फफोले उसकी हथेलियों पर
उसको यह भी याद नहीं
कि वह तो पेट से है ....|
एक स्त्री अपनी मृत्यु शय्या पर है
एक स्त्री बिलकुल मौत से सटकर खडी है
उस स्त्री की स्मृति को कौन सुरक्षित रखेगा
मैं नहीं जानती
एक रात यह स्त्री बिलकुल चुपचाप
उठकर चली जाएगी बाहरी दुनिया के.......
परर दूसरी स्त्री अवतरित होगी, लेगी इसका प्रतिशोध
वेश्याओं जैसा सुलूक कर रहे मर्दों से ..........
मैं जानती हूँ ऐसी एक स्त्री को
फारसी से अंगरेजी अनुवाद :-रोया मोनाजेम
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