बची रहेगी यह धरा जब
तक हम-आप इस पर चहलकदमी करते रहेंगें !!
सामान्यत: मैं कविता
लिखने से बचती हूँ | साहित्य के इस विधा में पूर्णता का अधिकार मुझे नहीं है | पर कभी-कभी शब्द घनीभूत होकर जेहन पर इतने
भारी हो जाते हैं तब मैं केवल माध्यम बन उन शब्दों को रास्ता भर देती हूँ | अपने
आस-पास के समय को जब सम्वेदनशील होकर देखती हूँ , तो शब्दों की पीड़ाओं से भर जाती
हूँ | या फिर यूँ कहूँ की शब्द जेहन में खदबदाते(उबलना) हैं जिससे हिय (कलेजा) के
भीतर कुछ दाजने (जलना) सा लगता है | उस दाज को जब शब्द का रूप देकर पन्नों पर ढालने
लगती हूँ तो मई-जून के तपते रेगिस्तान में पहली बारिश के बाद धीरे से उठती ठंढक
महसूस होती है | ये शब्द कभी कहानी, कविता, रिपोर्ताज के आकार में ढलने लगते हैं लेकिन पीड़ा बहुत निजी होती
है वह डायरी में ही उतरती है |
अर्पणा दीप्ति
अगर खुद से प्रश्न
करूँ कि मैं कविता क्यों लिखती हूँ ? तो दो-चार वजह सामने आती है-कई बार तो
कविताएँ बेहद निजी पलों की फुसफुसाहट होती है तो कुछ subtext सबटेक्स्ट होती है
जिसे कभी सीधे-सीधे बोला या कहा नहीं गया ! कुछ कविताएं हमारे आसपास में फैली अव्यस्था
और बेचैनी का प्रतिरूप होती है, तो कुछ सपाट बयानबाजी होती है, जिसमे साधारण मन के
सुख-दुःख, खुशी-पीड़ा अभिव्यक्त करती हुई नजर आती है | किसी विदेशी कवि ने कहीं
लिखा है कि “ जीवन और मृत्यु के बीच जो भी कुछ हमारा दैनंदिन क्षण होता है, वह भी
प्राथमिक तौर पर काव्यात्मक ही होता है|” यानि भीतर और बाहर का सन्धिस्थल, कालहीनता
में आंतरिक बोध और क्षणभंगुरता के बाह्य बोध के बीच |
सच कहूँ तो जब कविता
पहली बार मोबाईल,लैपटाप,डायरी और रद्दी पैम्पलेट पर उतरती है तो वह रेगिस्तानी
गाँव के लिए पहली बारिश से सनी मिट्टी की सौंधी खुशबू लिए होती | फिर धीरे-धीर
क्राफ्ट और ड्राफ्ट के ट्रीटमेंट के साथ मेट्रो के सभ्य लोगों जैसी बन जाती है |
नाईजेरियन कवि बेन ओकरी ने कहा था कि “हमे उस आवाज की जरूरत है जो हमारी खुशियों
से बात कर सकें, हमारे बचपन और निजी राष्ट्रीय स्थितयों के बंधन से बात कर सके वह
आवाज जो हमारे संदेह, हमारे भय से बात कर सके ; और उन अकल्पित आयामों से भी जो न
केवल हमें मनुष्य बनाते हैं बल्कि हमारा होना भी बनाते हैं |” इस लिए कविता मेरे
लिए स्वांत सुखाय पहले है जिसके साथ समाज,देश,और मानवता की चिंताएं सहजता के साथ
आती है | कभी भी मैंने उद्देश्य, विचारधारा या वर्ग को ध्यान में रखकर लिखने का
प्रयास नहीं किया |
तपते रेगिस्तान में
जून की भीषण गर्मी में मटके के ठंढे जल को पीते हुए तृप्ति का अहसास मुसाफिर करता
है ठीक वैसा ही अहसास बेचैन करती हुई पीड़ा रात के तीन बजे कागज पर उतरती कविता को
देखकर होती है | पुन: यही कहूंगी विपरीत समय में एक सम्वेदनशील मन को यह मासूम
कविताएँ ही ज़िंदा रखती है वरना यह क्रूर तपता परिवेश झुलसाने के लिए काफी है |
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