शुक्रवार, 20 सितंबर 2024

प्राइड एण्ड प्रेजूडिस [2005] Pride and Prejudice

 

तकरीबन 15 दिन पहले NETFLIX पर अपनी इस पसंदीदा फिल्म को देख रही थी मैं , 19 साल पहले यह फिल्म बनी थी | आज भी उतनी ही बेहतरीन और शानदार |

हालाँकि जेन आस्टिन के इस उपन्यास पर अलग-अलग भाषाओँ में कई फिल्में बन चुकी हैं, धारावाहिक बन चुके हैं, लेकिन 2005 में आई ‘प्राइड एंड प्रेजुडिस’ फिल्म मेरी पहली पसंद है | क्योंकि औपन्यासिक कथा के वातावरण को पूरी तरह जीवंत करने वाली ऐसी सिनेमेटोग्राफी मुझे कम फिल्मों में ही नज़र आई है | इस फिल्म के दृश्य हमारे समक्ष कुछ ऐसे खुलते हैं मानो उपन्यास के पन्ने पलटे जा रहे हों | पहला ही दृश्य है- जिसमें लिज़ (कीरा नाइटली) एक किताब के पन्ने पलटते हुए बाहर से अपने घर में आती है | उस रास्ते और घर को देखते हुए हम उपन्यास में वर्णित समय, वर्ग और जीवन-शैली सबको सजीव साकार होते हुए देखते हैं | फिल्म के अंतिम क्षण का एक दृश्य है- लेडी कैथरीन द्वारा अपमानित लिज रात भर बैचैन और उनींद रहने के बाद भोर के झुटपुटे में बाहर निकलती है और दूर क्षितिज से सूरज के साथ एक बिम्ब उभरता है | लॉन्ग शॉट में मि. डार्सी (मैथ्यू मैक्फेडेन) उसकी ओर लम्बे डग भरते हुए दिखते हैं | उन्हें लिज की तरफ आते हुए देख उसके साथ दर्शक का दिल भी धड़कने लगे तो आश्चर्य नहीं! इस फिल्म में शायद ही कोई ऐसा दृश्य है जो अपना प्रभाव न छोड़ पाता हो | खैर, समूची फिल्म की नहीं, इसके एक खास दृश्य की बात करते हैं जो मुझे विशेष प्रिय है |

लिज़ अपनी नवविवाहित सहेली शार्लट के पास गई है जहाँ उसके होने की खबर पा कर मि. डार्सी भी आते हैं | कहानी से अपरिचित दर्शकों को यह महज संयोग लग सकता है. वहीं चर्च में डार्सी के करीबी फिट्ज़ विलियम से बातचीत के दौरान लिज़ को पता चलता है कि उसकी सबसे सुन्दर और प्यारी बहन जेन के टूटे हुए दिल के पीछे इसी शख्स का हाथ है जिसे वह अब नफ़रत जैसा कुछ करने लगी है. बावजूद इसके उसे समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर कोई ऐसा कैसे कर सकता है? प्रेम में डूबे दो लोगों को अलग करने वाले मि. डार्सी के प्रति अपने गुस्से, अपमान-बोध और जेन के दुखों का तीव्र स्मरण उसे ऐसे भावोद्वेग में डालता है कि वह चर्च से भागती है | एलिज़ाबेथ एक पुल के ऊपर दौड़ रही है, उसके भीतर के दाह को शांत करने के लिए ही मानो बाहर तेज़ बारिश हो रही है जिसमें भींगती हुई वह विशाल खम्भों और दीवारों वाले प्रांगण में पहुँच जाती है | दूर-दूर तक फैले हुए लम्बे पेड़ों से घिरी बारिश के कोमल सांवले अँधेरे के बीच, पानी से बेतरह तर-ब-तर लिज़ की आँखों से धारासार आंसू बह रहे हैं |मानो उसका संतप्त हृदय बरस रहा हो, तभी सामने दीखते हैं मि. डार्सी! उन्हें वहां देख लिज़ चौंकती है, और उसके साथ दर्शक भी |

मि. डार्सी के चेहरे पर कुछ अलग किस्म का रूमानी तनाव है; जैसे कोई किशोरवय लड़का पहली बार प्रेम-निवेदन करने को प्रस्तुत हो | गहन आत्म-संघर्ष के बाद वह कह पाता है कि उसके इस जगह पर आने का मूल कारण एलिज़ाबेथ का वहां मौजूद होना है | मि.डार्सी का कहना है कि वह लिज़ के जादू में बिंध कर यहाँ आए हैं , फिर भी अपने भावों को बयां करना बेहद मुश्किल है | बहुत कोशिश करने पर जिन शब्दों को वह कह पा रहा है, उन्हें सुन कोई भी स्वाभिमानी स्त्री उसके प्रेम निवेदन को स्वीकार नहीं करेगी | जबकि लिज़ तो पहले ही भरी पड़ी थी अपमान-बोध और वेदना से | जब वह उसके निम्न स्तर और अपने उदीप्त प्रेम की बात करता है, फिर उसके परिवार की निम्नता के बाद भी विवाह के प्रस्ताव की उदारता दिखाता है तब लिज़ एक ठंढी साफगोई और चुभती हुई व्यंग्य कुशलता से उसे मना कर देती है |

भावात्मक तनाव के इस दृश्य में एक-दूसरे पर कर रहे कठोर व्यंग्य-प्रहारों के परे हमें प्रेम के पाश में बंधे एक जैसे दो लोग दिखाई देते हैं. दोनों बहुत हद तक एक जैसे अक्खड़ और स्वाभिमानी हैं. यह स्त्रियोचित मान नहीं, बल्कि व्यक्ति की गरिमा और अपने स्वतंत्र अस्तित्व का प्रदर्शन है | उनके नाटकीय साक्षात्कार की निकटता जो , दर्शक के मन के ऊपर दो छाप छोडती है- मि. डार्सी का वाकई सज्जन होना | कीरा और मैथ्यू ने वाकई जेन के एलिज़ाबेथ और मि. डार्सी को सजीव कर दिया है | बेहतरीन सिनेमेटोग्राफी शानदार अभिनय , उम्दा संवाद एवं पटकथा ने फिल्म को आज भी उतना ही सजीव बनाए रखा है जितना की 19  साल पहले |

अर्पणा दीप्ति




 

 

सोमवार, 9 सितंबर 2024

निर्मोही कृष्ण (जन्माष्टमी विशेष ) विलंब पोस्ट

 



हाथी घोड़ा पालकी जय कन्हैया लाल की | कान्हा आ  रहें हैं , माता देवकी पुत्र बिछोह में रो रहीं हैं | पिता वसुदेव यमुना नदी से होकर अपने पुत्र को लेकर जा रहे हैं | सभी प्रतीक्षारत हैं कृष्ण आ रहें हैं | 

यहाँ हमें यह भी याद रखना होगा कि कृष्ण याद रखना नहीं अपितु भूलना सिखाते हैं ,गोकुल को ..  फिर मथुरा को..और अंत में द्वारिका को भी | ये सब तो मात्र पड़ाव है -कहते रहिए हम आप उन्हें निर्मोही लेकिन जब-जब दिखेगा उनका रत्नजड़ित मुकुट में मोर पंख तब-तब याद आएगा ब्रज का वनप्रान्त  जो द्वारिकेश के यशस्वी भाल पर विराजमान है , कृष्ण बांधना नहीं छोड़ना सिखाते हैं  | वह पलट कर नहीं आते न यशोदा और न राधा के पास , लेकिन जब-जब देखेंगे उस छलिया को नहीं दिखेगा प्रचंड  रिपुरारि सुदर्शन चक्र , बस गूँजेगी मुरली की मीठी तान जो सदा उनके संग रही |


कृष्ण सिखाते हैं लेना , माखन .. गोपिकाओं का मन .. राधा का सर्वस्व .. मथुरा तो कभी द्वारिका |


पर अंत में छोड़ देते हैं सब, यहीं  रह जाने के लिए अंत समय में निर्बाध एकांत में मर जाने को |

कृष्ण छोड़ते हैं रण .. कहलाते हैं रणछोड़ पर नहीं छोड़ते कर्ण  की अनकही पीड़ा को.. भीष्म के कठोर तप को .. और गांधारी के शाप को |

सब जानते हैं कृष्ण करते हैं लीला , रचाते हैं रास , छुपाते हैं स्नान करती गोपिकाओं के वस्त्र |

पर कितने लोग जानते हैं उन एक हजार विवाहलीला के पीछे का सच |

कृष्ण नहीं है सत्यव्रत ---अर्धसत्य --- मिथ्यावचन बोलने के लिए उकसाते हैं ,लेकिन कब कहा उन्होंने अपने आप को सत्यवादी |

वे सत्य के नहीं मानव कल्याण के साथ रहे  जो किसी भी सत्य या धर्मवाक्य से ऊपर हैं | वे जीवन के व्यवहारिक सत्य के साथ रहते हैं  फिर चाहे वो द्रोपदी का हो या बर्बरीक का |

वस्तुत: कृष्ण याद को भूलना और पाए को छोड़ना सिखाते हैं |

वो हरबार एक नई व्याख्या से भ्रमित करते हैं , पर इस भ्रम के पार ही सत्य है , काले बादलों के पट में ढंके हरिणय सा सत्य |

ठीक उनके नीलाभ वर्ण की तरह , जिस से राधा रूपी स्वर्ण आभा का प्राकटय होता है----जो उनके मूल का सार सत्य है और अंतिम रूप से सिखाता है कि सबके अलग-अलग जीवन है ---जीवन सत्य है |


वस्तुत: अपनी समग्रता में कृष्ण 'भगवान की अवधारणा' को भूलने ---भक्ति का त्याग---लोक कल्याण को भजने और प्रेम को ध्यायने का पाठ है |


अर्पणा दीप्ति 

 कुछ  कारणवश ब्लाग को समय नहीं दे पा रहीं हूँ | पाठकगण  से करबद्ध क्षमा प्रार्थी हूँ  | नियमित पाठक मेरे वेबसाइट पर आलेख पढ़ सकते हैं |