शुक्रवार, 10 मई 2013

लोकनायक गोस्वामी तुलसीदास की समन्वय साधना




महात्मा बुद्ध के बाद भारत के सबसे बड़े लोकनायक महात्मा तुलसीदास थे। वे युग्स्रष्टा के साथ-साथ युगदृष्टा भी थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार:-"लोकनायक वही हो सकता है जो समन्वय कर सके। क्योंकि भारतीय जनता में नाना प्रकार की परस्पर विरोधिनी संस्कृतियाँ, साधनाएँ, जातियाँ, आचारनिष्ठा और विचार-पद्धतियाँ प्रचलित हैं। बुद्धदेव समन्वयकारी थे। गीता में समन्वय की चेष्टा है और तुलसीदास भी समन्वयकारी थे।" (हिन्दी साहित्य की प्रवृतियाँ-डॉ.जयकिशन प्रसाद खंडेलवाल-पृ.सं.२२३) लोकनायक उस महान व्यक्ति को कहा जा सकता है जो समाज के मनोविज्ञान को समझकर प्राचीनता का संस्कार करके नवीन दृष्टिकोण से उसमें उचित सुधार करके जातिगत संस्कृति का उत्थान करता हो। उस युग के संदर्भ में यह कहना सर्वथा उचित होगा कि गोस्वामी तुलसीदासजी की वाणी की पहुँच मानव-हृदय के समस्त भावों एवं मानव-जीवन के समस्त व्यवहारों तक दिखाई देती है। उनके काव्य में युग-बोध पूर्णरूपेण मुखरित हुआ है।

"कलि मल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सद्‍ग्रंथ।
दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहुपंथ॥" 

इस प्रकार तुलसी अपनी समन्वय-साधना के कारण उस युग के लोकनायक थे। तुलसीदास में वह प्रगतिशीलता विद्यमान थी, जिससे वे परिस्थितियों के अनुकूल नवीन दृष्टिकोण अपना कर प्राचीनता का संस्कार कर सकें। इतनी विषमताओं में साम्य स्थापित करनेवाला पुरुष यदि लोकनायक नहीं होगा तो और कौन होगा? 
भक्ति शील और सौन्दर्य के अवतार तुलसी के राम:- तुलसी के राम सर्वशक्तिमान, सौन्दर्य की मूर्ति एवं शील के अवतार हैं। वे मर्यादापुरुषोत्तम हैं। 

"जब-जब होहि धरम के हानि। बाढ़हि असुर महा अभिमानी॥
तब-तब धरि प्रभु मनुज सरीरा। हरहिं सकल सज्जन भव पीरा॥"

अर्थात जब-जब समाज में विश्रृंखलता उत्पन्न होकर उसकी गति रुद्ध होती है तब-तब किसी एक महापुरुष का अविर्भाव होता है एवं गति-रुद्धता समाप्त होकर पारस्परिक सहयोग एवं समानता का वातावरण बनता है। रामराज्य भी इसी दिशा में एक कदम है। महाभारत के कृष्ण ने महाभारत का संचालन कर प्रतिकूल शक्तियों का उन्मूलन किया एवं ज्ञान, कर्म और शक्ति की एकता स्थापित की। कालातंर में कर्मकांड में हिंसा की प्रमुखता एवं ज्ञान और भक्ति का ह्रास होने पर बुद्ध अवतरित हुए। शांति, अहिंसा, मैत्री एवं प्रेम का विश्वव्यापी वातावरण तैयार हुआ जिसे साहित्य एवं इतिहास में बुद्धकाल के नाम से जाना गया। किंतु ८वीं शताब्दी में बौद्धधर्म भी कर्मकांड के जाल में फँसता चला गया, एवं दो शाखाओं में विभाजित हो गया व्रजयान और महायान। इन शाखाओं ने वाममार्गी साधना पर अधिक जोर दिया परिणामस्वरूप समाज में दुराचार एवं अव्यवस्था फैलने लगा। ठीक इसी समय जगदगुरू शंकराचार्य का प्रादुर्भाव हुआ। उन्होंने धार्मिक क्षेत्र में अद्वैत सिद्धांत की स्थापना की। जिससे कर्मकांड में उलझी जनता एवं समाज को थोड़ी बहुत राहत मिली, बाद में गोस्वामी तुलसीदास ने आदर्शहीन एवं विलासिता में मग्न समाज का उत्थान करने के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम राम के चरित्र को मानस में उतारा। उन्होंने विशृंखल समाज को मर्यादा के बंधन में बाँधकर समन्वय की भावना उत्पन्न की और लोकधर्म का नवीन संस्कार किया। 

राम का लोकसंग्रही रूप एवं धार्मिक समन्वय:- तुलसी ने तत्कालीन बौद्ध सिद्धों एवं नाथ योगियों की चमत्कारपूर्ण साधना का खडंन करके राम के लोकसंग्रही स्वरूप की स्थापना की। राम के इस रूप में उन्होंने समन्वय की विराट चेष्टा की है। तत्कालीन समाज में शैवों, वैष्णवों और पुष्टिमार्गी तीनों में परस्पर विरोध था।  इस कठिन समय में तुलसीदास ने वैष्णवों के धर्म को इतने व्यापक रूप में प्रस्तुत किया कि उसमें उक्त तीनों संप्रदायवादियों को एकरूपता का अनुभव हुआ। मानस में तुलसी के इस प्रयत्न की झाँकी देखी जा सकती है। राम कहते हैं-
"शिव द्रोही मम दास कहावा। सो नर मोहि सपनेहु नहिं भावा॥
 संकर विमुख भगति चह मोरि। सो नारकीय मूढ़ मति थोरी॥"

इसी प्रकार उन्होंने वैष्णवों और शाक्त के सामंजस्य को भी दर्शाया है।

"नहिं तब आदि मध्य अवसाना।अमित प्रभाव बेद नहिं जाना।
भव-भव विभव पराभव कारिनि। विश्व विमोहनि स्दबस बिहारिनि॥"

पुष्टिमार्गी के ’अनुग्रह’ का महत्त्व भी दर्शनीय है-

"सोइ जानइ जेहु देहु जनाई। जानत तुमहि होइ जाई॥
तुमरिहि कृपा तुमहिं रघुनंदन। जानहि भगत-भगत उर चंदन॥"

यह तो हो गई तुलसीदास की तत्कालीन धार्मिक वातावरण एवं उसमें समन्वय स्थापित करने की बात।  इसका दूसरा पक्ष भी था उस युग में सगुण और निर्गुण उपासना का विरोध। जहाँ सगुण धर्म में आचार-विचारों का महत्त्व तथा भक्ति पर बल दिया जाता था वहीं दूसरी ओर निर्गुण संत साधकों ने धर्म को अत्यंत सस्ता बना दिया था। गाँव के कुँओं पर भी अद्वैतवाद की चर्चा होती थी; किंतु उनके ज्ञान की कोरी कथनी में भावगुढ़ता एवं चिंतन का अभाव था। तुलसीदास ने ज्ञान और भक्ति के विरोध को मिटाकर वस्तुस्थिति स्पष्ट कर दी।

"अगुनहिं सगुनहिं कछु भेदा। कहहिं संत पुरान बुधवेदा॥
अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सी होई॥"

ज्ञान भी मान्य है किंतु भक्ति की अवहेलना करके नहीं। ठीक इसी प्रकार भक्ति का भी ज्ञान से विरोध नहीं है। दोनों में केवल दृष्टिकोण का थोड़ा-सा अंतर है। राम कहते हैं-

"सुनि मुनि तोहि कहौं सहरोसा। भजहि जे मोहि तजि सकल भरोसा॥
करौं सदा तिन्ही कै रखवारी। जिमि बालकहिं राख महतारी॥
गह सिसु बच्छ अनल अहिधाई। तह राखै जननी अरू गाई॥
प्रौढ़ भये तेहि सुत पर माता। प्रीति करे नहिं पाछिल बाता॥
मोरे प्रौढ़ तनय सम ग्यानी। बालक सुत सम दास अमानी॥
 जानहिं मोर बल निज बल नाहीं। दुह कहँ काम क्रोध रिपु आहीं॥
यह विचारि पंडित मोहि भजहि। पाएहू ग्यान भगति नहिं तजहीं॥"

हृदय की स्वच्छता पर बल:- तुलसीदास ने तत्कालीन धार्मिक संप्रदायवाद में बाह्याडंबर को प्रधानता न देते हुए हृदय की स्वच्छता पर बल दिया। तुलसी के राम ने संतों के जो लक्षण बताए हैं, उसके मूल में हृदय की स्वच्छता है। 
"निर्मल मन सोइ जन मोहि पावा। मोहि न कपट-छ्ल-छिद्र सुहावा॥"

यह उस समय की धार्मिक स्थिति की माँग थी। तुलसीदास धार्मिक नेता ही नहीं अपितु महान समाज-सुधारक भी थे। रामराज्य की कल्पना के द्वारा उन्होंने उस समय के विद्यमान राजनीतिक गंदगी को दूर करने का यथासंभव प्रयास किया। मुसलमानों की राजनीति से हिंदू जाति आक्रांत थी। इन विषम परिस्थितियों में तुलसीदास ने खलविनाशक राम के शक्तिशाली जीवन द्वारा लोकशिक्षा का पाठ पढ़ाया। किस प्रकार अत्याचार का घड़ा भरने पर अंतोगत्वा फूटता ही है, तथा उसके विरूद्ध विद्रोह होता है और शांति की स्थापना होती है, यह मानस में देखने को मिलता है। तुलसी दास ने रामराज्य की आदर्श कल्पना कर समाज के समक्ष यह उदाहारण प्रस्तुत किया कि राजा का आदर्श प्रजा-पालन एवं दुष्टों का विनाश है।
समाज की मर्यादा का निरूपण:-तुलसीदास ने समाज की मर्यादा का निरूपण लोक-जीवन के विविध संबंधों के माध्यम से दर्शाया है-’पिता-पुत्र’, ’माता पुत्र’, ’भाई-भाई’, ’राजा-प्रजा’, ’सास-बहू’, ’पति-पत्नी’ इत्यादि उन सभी की मर्यादा का वर्णन राम के महाकाव्यात्मक विस्तृत जीवन के अनेक प्रसंगों के माध्यम से किया। बदलाव युग की आवश्यकता एवं समय की माँग थी, पुरानी रूढ़ियों एवं सामाजिक मर्यादा के प्रति विद्रोह के स्वर सुनाई पड़ रहे थे।तुलसीदास ने इस विद्रोह को भली-भाँति सुना, देखा और समझा। तुलसी ने मानस में कहा भी है-
"बरन धरम नहिं आश्रम चारी। श्रुति विरोध रत सव नरनारी॥
द्विज श्रुति बंचक भूप प्रजासम। कोउ नाहिं मान निगम अनुसासन॥"

तुलसी का मानस स्वान्त: सुखाय होते हुए भी परजन-हिताय का संयोजक था। इसकी परिणति हमें संत के जीवन में देखने को मिलता है। 

’मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥"

तुलसीदास ने मानस में लोक और वेद, व्यवहार एवं शास्त्र का समन्वय प्रस्तुत किया है।

"चली सुगम कविता सरिता सो। राम विमल जस भरिता सो॥
सरजू नाम सूमंगल मूला। जाकि वेद मत मंजुस कूला॥"

चित्रकूट में भरत-राम मिलन के अवसर पर होने वाली सभा में तुलसी ने भरत के वचनों के द्वारा साधुमत, लोकमत, राजनीति एवं वेदमत के मध्य सुंदर समन्वय प्रस्तुत किया है। पं. रामचंन्द्र शुक्ल के अनुसार-" साधुमत का अनुसरण व्यक्तिगत साधन है, लोकमत लोकशासन के लिए है। इन दोनों का सामंजस्य तुलसी की धर्म भावना के भीतर है।" (हिन्दी साहित्य की प्रवृतियाँ-डॉ.जयकिशन प्रसाद खंडेलवाल-पृ.सं.२२६)
आध्यात्मिक क्षेत्र में समन्वय:-उस युग में ईश्वर प्राप्ति के साधनों की बहुलता थी। विभिन्न दर्शनों के मक्क्ड़जाल में जनता उलझी हुई थी। तुलसीदास ने द्वैत-अद्वैत, द्वैताद्वैत-तीनों सिद्वान्तों को भ्रम मानते हुए कहा-
"तुलसी दास परिहरै तीन भ्रम सो आपन पहिचानै।"

उनके ब्रह्म की मर्यादा विशिष्टाद्वैत से ही निर्मित है-

" सीया-राममय सब जग जानी। करहूँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥"

काव्य शैली में समन्वय:- तुलसी पूर्णतया समन्यवादी थे। उन्होंने काव्य की भाषा-शैली पर भी समन्वय की मोहर लगा दी। उन्होंने अपने समय की तथा पूर्व प्रचलित सभी काव्य-पद्धतियों को राममय करने का सफल प्रयास किया। यहाँ तक की सूफियों की दोहा-चौपाई पद्धति, चन्द के छ्प्पय और तोमर आदि, कबीर के दोहे और पद, रहीम के बरबै, गंग आदि की कवित्त-सवैया-पद्धति एवं मंगल-काव्यों की पद्धति को ही नहीं वरन जनता प्रचलित सोहर, नहछू, गीत आदि तक को उन्होंने रामकाव्यमय कर दिया। इस प्रकार उन्होंने काव्य की प्रबंध एवं मुक्तक-दोनों शैलियों को अपनाया। उन्होंने तत्कालीन कृष्ण-काव्य की ब्रज-भाषा और प्रेम-काव्यों की अवधी भाषा-दोनों का प्रयोग कर अपने समन्वयकारी दृष्टिकोण का परिचय दिया।
स्वानत:सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा : लोककल्याण- तुलसी के काव्य में लोकसंग्रह की भावना अविच्छिन्न रूप से व्याप्त है। इसके जरिए तुलसी ने ’सत्यं शिवं सुन्दरं’ को साकार किया है। तुलसीदास ने अपने काव्य का सृजन स्वान्त: सुखाय किया या परांत सुखाय, यह भी विचारणीय है। स्वयं तुलसीदास ने लिखा है कि मैंने रघुनाथ-गाथा ’स्वान्त: सुखाय’ लिखा है। डॉ. श्यामसुन्दर के अनुसार-"तुलसीदासजी ने जो कुछ भी लिखा है, ’स्वान्त: सुखाय’ लिखा है। उपदेश देने की अभिलाषा से अथवा कवित्त्व-प्रदर्शन की कामना से जो कविता की जाती है उसमें आत्मा की प्ररेणा न होने के कारण स्थायित्व नहीं आता। तुलसी की रचना में उनके हृदय से सीधे निकले हुए भाव है, इसी कारण तुलसी का काव्य सर्वश्रेष्ठ है।"(हिन्दी साहित्य की प्रवृतियाँ-डॉ.जयकिशन प्रसाद खंडेलवाल-पृ.सं.२२७) तुलसी ने रामकाव्य की रचना का उद्देश्य ही लोककल्याण बताया है; यथा-
"कीरति भनिति भूति भलि सोई।
सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥"


अर्पणा दीप्ति

रविवार, 21 अप्रैल 2013

समकालीन विमर्श से जुझती कहानियाँ



समकालीन विमर्श से जुझती कहानियाँ      
               
                                                              - अर्पणा दीप्ति


हिंदी साहित्य में कहानी की परंपरा काफी पुरानी एवं समृद्ध है। कहानी की उत्पत्ति कब और किस प्रकार हुई इस प्रश्न का निर्णायत्मक उत्तर देना कठिन है। हाँ ऎसी कल्पना अवश्य की जा सकती है कि कहानी की उत्पत्ति मनुष्य की उत्पत्ति तथा उसके सामाजिक रूप लेने के साथ हुई। मनुष्य की अपनी बात कहने की प्रवृति ने कहानी को जन्म दिया। इसी शृखंला की वर्तमान कड़ी है सतीश दुबे का कहानी संग्रह ’कोलाज’। हालॉकि इस संग्रह की कई कहानियाँ विगत वर्षों में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से प्रकाशित होकर पाठकों तक पहुँच चुकी है। किंतु यहाँ यह कहना आवश्यक है कि शारीरिक अक्ष्मता तथा खराब स्वास्थ्य के बावजूद पिछले तीन दशकों से कथा साहित्य में निरंतर अपनी उपस्थिति  बनाए रखना वास्तव में कथाकार के लेखकीय जिजीवषा का अद्‍भुत प्रमाण है। कथा साहित्य के तीनों विधाओं में सतीश दुबे की उपस्थिति उनकी सृजनात्मक उर्जा से परिचित करवाती है। अपनी बात ’शायद’ में लेखक कहते हैं "मैं अपने को लिक्खाड़ या आशू लेखक नहीं मानता संभवत: इसलिए लेखन में ठहराव महसूस होने से मन बैचेन होने लगता है।" इसी लेखकीय बैचेनी का प्रमाण है ’कोलाज’(२०१३) की ताजातरीन सोलह कहानियाँ।

      इन कहानियों के जरिए लेखक ने वर्तमान जीवन में संबंधों की विसंगतियाँ, आधुनिक सोच से उत्पन्न अंतरद्वंद एवं कोलाहल को बखूवी उकेरा है। ’अकेली औरत’, ’सप्तश्रृंगी’, ’सुकूनी लम्हों के बीच,’ ’ठौर’ तथा ’गर्द के गुब्बारे’ आदि कहानियाँ पात्रों के मन:स्थिति को संपूर्ण मनोयोग के साथ चित्रित करती है। इस संग्रह की अधिकतर कहानी आम स्त्री की जीवन के विविध पहलूओं को अनुभव की आँखों से देखती और बयान करती है। बल्कि यह कहना सर्वथा उचित होगा कि लेखक ने इन पात्रों के जरिए स्त्री प्रश्नों का पड़ताल किया है।

     ’अकेली औरत’ की अनपढ़ पात्र फागुनी नशाबंदी के खिलाफ उठ खड़ी होती है। वह इस बात से बिल्कुल बेपरबाह है कि हो सकता है कल वह अपने जीवन के समर में अकेली पड़ सकती है, पति का साथ उससे छूट सकता है "यह आप नहीं आपका पुरुष बोल रहा है जो औरत को अपनी इच्छा की मुट्ठी में बंद करके रखना चाहता है।"(पृ.सं.२) फ्लैट में दाई का काम करते हुए फागुनी पूरी तेजस्विता के साथ पट्‍टी की अन्य औरतों के साथ नशाबंदी के जुलूस में शामिल होती है।

      जीवन के किसी मोड़ पर जीवनसाथी का साथ छूट जाने पर अक्सर स्त्रियाँ स्वयं को असहाय तथा अबला महसूस करती है। ’सप्तशृंगी’ की पात्र सुजाता इस मिथ को तोड़ती है। पति रविप्रकाश की असामयिक मृत्यु के पश्चात दिवंगत पति के व्यापारिक कारोबार एवं पारिवारिक जिम्मेदारियों को संभालने के लिए उसे अलग-अलग भूमिकाओं का निर्वाह करना पड़ता है। " उनके इस बदलते रूपों के मद्देनजर बाजार के व्यापारी वर्गों ने उन्हें सप्तशृंगी देवी की उपाधि तक दे डाली।"(पृ.सं.१४) सुजाता अपने पौत्र रजत को कहती है "बेटा परिस्थितियाँ आदमी हो या औरत सबको मौका पड़ने पर जिंदा रहने के लिए ताकतवर बना देती है।"(वही)

      कैरियर, बॉस और विदेश के बीच विस्मृत होते माता-पिता तथा परिवार की कहानी को दर्शाती है ’सुकूनी लम्हों के बीच’। इस कहानी के पात्र कपंनी तथा पैकेज के मकड़जाल में फँस जाते हैं। इनकी जिदंगी युवावस्था में काफी थकी-थकी सी लगती है। वर्तमान संदर्भ में इसे क्वार्टर लाइफ क्राइसेस भी कहा जा सकता है। कामयाबी हासिल करने वाली आज की युवा पीढ़ी आंतरिक सुकून नहीं  मिलने के कारण सरलता से अपराधित कारनामों की ओर अग्रसर होती है। माता-पिता तथा परिवार से संबंधों में पिछड़ापन जैसी मानसिकता पनपने के कारण इनका जीवन एक बिंदु पर केंद्रित हो जाता है। शिक्षा प्राप्त करने के बाद बच्चे स्वयं को माता-पिता से उत्कृष्ट समझने लगते हैं। ऎसी शिक्षा का क्या लाभ जो व्यक्ति को मालिक से नौकर बना दे! जो विदेश तक दौड़ गया वह उच्च और जो दौड़ नहीं पाया वह निम्न हो गया। भावनात्मक लगाव से दूर इनके जीवन में धन तो है लेकिन रौनक नहीं। सीकरी का संत’ उच्च शिक्षा तथा साहित्य अकादमियों में व्याप्त भ्रष्टाचार को दर्शाता है। "तुम्हे कौन सा अपने बचत खाते से देना है। एकलव्य शोधप्रबंध पर हस्ताक्षर कराने के बदले दस हजार गुरुदक्षिणा दे गया है उसमें से दे दो...।(पृ.सं.२९) इस कहानी के माध्यम से पुन: वर्तमान शिक्षा-प्रणाली तथा सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार पर लेखक ने पाठकों का ध्यान केंद्रित किया है।

      वर्तमान संदर्भ में ईमानदारी, सच्चाई तथा कर्तव्यनिष्ठ जैसे शब्द बेमानी हैं इसका उदाहारण  है ’हलकट’ का शिव। अपनी नौकरी गँवाकर उसे अपने नैतिक मूल्यों की रक्षा करनी पड़ती है। हालॉकि कथ्य में विवरण की बाहुल्यता है। वहीं जीवन की दो राहे भँवर में फँसी पत्रकार यश की कहानी 'चेहरे' यह दर्शाता है कि संघर्षशील व्यक्ति को अगर जीवन में कोई पराजित कर सकता है तो वह है उसका परिवार। यश अपनी पत्नी द्वारा लगाए गए चरित्रहीनता के आक्षेप से टूट सा जाता है किंतु अपने मित्र सदानंद द्वारा समझाने पर वह पुन: संभलता है। "जीवन रूपी नदी में अगर तुफानी बाढ़ आ जाए तो परिस्थिति विशेष में उसमें तैरने की कोशिश करने के बजाए तट पर बैठकर बाढ़ उतरने की प्रतीक्षा सब्र के साथ करनी चाहिए।"(पृ.सं.१३१) ’गर्द के गुब्बारे’ तथा ’अंतिम परत’ कथ्य में सामान्य दिखते हुए भी पाठकों पर अपना प्रभाव डालती है।

      विवाहित लड़कियों के लिए ’ठौर’ एक भ्रम भी है और एक दंश भी जो जीवन के अंत तक उन्हें बनजारे की सी मन:स्थिति में भटकाए रखता है। ऎसे में सबसे मर्मांतक होता है मायके के तरफ से अजनबियों सा व्यवहार। उसे हर हाल में हिम्मत कर ससुराल ही लौटना होता है। मायकेवालों की सहूलियत भी इसी में है कि लड़की ससुराल को अपना घर समझे तथा परायी लड़की की तरह बर्ताब को अपनी नियति। बचपन के घर-घरवाले खेल की तरह हमेशा स्त्री के जीवन में एक सुनहरा भ्रम बना रहता है कि आखिर उसका असली घर कौन सा है? इसी भ्रम तथा उपेक्षा की शिकार है ’ठौर’ की माइली। किंतु अंतत: वह समझ जाती है कि शादी के बाद ससुराल ही लड़की का अपना घर होता है। माइली अपनी माँ से कहती है-"छ्ड़ा-गाठन बाँधकर जिस आदमी के साथ तुमनें भेजा था, तब यही तो कहा था।"(पृ.सं.१३१)

     ’अंतराल’ में पुन: विवरणों की भरमार है, किंतु इस कहानी को इस मायने में उल्लेखनीय कहा जा सकता है क्योंकि यह जेंडरिंग की प्रक्रिया को दर्शाती है। कहानी की पात्र पंखुड़ी इस जेंडरिंग की प्रक्रिया की शिकार होती है। लेकिन वह अपने अधिकारों के प्रति सजग है समझौता करने के बजाए वह जिंदगी अपने शर्तों पर जीना चाहती है एवं इसमें कामयाब भी होती है। 'एन.फार.' की नीरजा आकस्मिक दुर्घटना में पति की मृत्यु हो जाने पर जिंदगी की नई पारी की शुरूआत कर पति के अधूरे सपने को पूरा करती है। उसके जीवन का मूलमंत्र था ’न पराजयं न पलायनं’।

     समर्पित, ईमानदार तथा कामयाब कर्मचारी असीत की कहानी है ’अपने अपने द्वीप’। अपनी मेहनत तथा लगन से वह अपने मालिक मि. नेहरा की कंपनी को एक नई उँचाई पर पहुँचाता है। ’फ्रेम का चित्र’ यह दर्शाता है कि मजहब प्रेम की राह में किस प्रकार रोड़े अटका सकता है। नीरव एवं सबिहा का प्यार इसी मजहबी सांप्रदायिकता का शिकार होता है अपने प्रेम को अमर बनाने के लिए साबिहा को अपने प्राणों की बलि देनी पड़ती है। नीरव इस धार्मिक कट्‍टरता को ढोने के लिए संसार में अकेला रह जाता है।

    यहाँ यह कहना सर्वथा उचित होगा कि इनमें से अधिकांश कहानियों को लघु उपन्यास का रूप दिया जा सकता था। कथाकार ने इन कहानियों को समेटने में शीघ्रता दिखाई है। कहानी के सत्य के को लेकर निर्मल वर्मा ने कहा था कि कहानी का सत्य झाड़ी में छिपे पंछी की तरह है। जिसके बारे में निश्चित रूप से कह पाना असंभव है, जब तक की वह छिपा है और उसे जीवत बाहर निकालना भी दूर्लभ है। आलोच्य संग्रह में वह पंछी ठीक सामने आ बैठा है।

     सतीश दुबे की शक्ति उनकी बहती हुई भाषा है इसका पुख्ता प्रमाण है कथ्य में शहरी तथा आँचलिक भाषा का समिश्रण। साथ ही यह भी कहना जरूरी है कि ये कहानियाँ पेन्सिल स्केच जैसी हैं। इन कहानियों के माध्यम से वर्तमान समाज कि विसंगतियों को दर्शाया गया है। इन कहानियों में विद्यमान अधिकांश अभिव्यक्तियाँ मन को छू लेती हैं। आशा है कि लेखकीय क्षमता एवं भरपूर संवेदना के साथ जीवन के विविध कालजयी कोलाजों को रेखांकित करती ये कहानियाँ हिंदी जगत में सराही जाएँगी एवं इसका भरपूर स्वागत होगा।

समीक्षीत कृति- कोलाज (कहानी संग्रह)
लेखक- सतीश दुबे
प्रकाशक-ज्योति प्रकाशन लोनी रोड गाजियाबाद-२०११०२
प्रथम संस्करण-२०१३
पृष्ठ संख्या-१८०
मूल्य-३९०/- मात्र    

रविवार, 24 मार्च 2013

आलेख


मातृत्व वरदान या अभिशाप

मातृत्व स्त्री जीवन की परिपूर्णता है, किंतु अगर उसे व्यापार बना दिया जाए; तो ’माँ’ की पवित्रता  के साथ इससे गन्दा एवं भद्दा मजाक और क्या हो सकता है? वर्तमान दौर में विज्ञान इतना विकसित हो चुका है कि मनुष्य के पास अपना ह्रदय तक नहीं बचा; ह्रदय भी यांत्रिक हो चुका है साथ ही साथ ज्ञान एवं विज्ञान भी अपचित। आज के बदलते परिवेश, तेज रफ़्तार से भागती जिन्दगी एवं उत्तर आधुनिक जीवन शैली में कामकाजी महिलाओं के पास इतना समय नहीं है कि वे माँ बनने के लिए अपने करियर को दाँव पर लगाने का जोखिम उठाएँ। वह सोचती हैं कि अगर कुछ पैसे खर्च करने से कोख किराए पर मिल जाता है तो इसमे बुराई क्या है?

वैसे तो किराए पर कोख खरीदने का प्रचलन सर्वप्रथम पश्चिमी देशों में शुरू हुआ। इसके लिए यह प्रावधान था कि ऐसी महिलाएँ जो किसी घातक बीमारी के कारण अपना बच्चा पैदा करने में असमर्थ हो; दूसरी स्त्री की सहमति से उसका कोख किराए पर खरीद सकती हैं। किराए पर कोख बेचने वाली स्त्री को "सरोगेटमदर" का नाम दिया गया।

यहाँ यह प्रश्न उठना स्वभाविक है कि सरोगेसी है क्या? अगर कुछ कारणवश माता-पिता अपने संतान को जन्म देने में असमर्थ हैं तब ऎसे में इस नि:संतान दंपत्ति का gamte किसी दूसरी स्वस्थ औरत के गर्भाशय में स्थापित कर दिया जाता है इस प्रक्रिया को 'सरोगेसी' तथा गर्भधारण करनेवाली महिला को 'सरोगेटमदर' कहा जाता है। इस तकनीक का फायदा क्या है? कोई स्त्री जिस पर समाज द्वारा बाँझ होने का ठप्पा लगा दिया जाता था, वह अब बाँझ नहीं कहलाँएगी एवं इस तकनीक के द्वारा वह अपना जैविक (bilogical ) बच्चा बनवा सकती है। पुरुष भी निःसंतान नहीं कहलाएँगे।

इस प्रक्रिया में जहाँ इसका एक पक्ष सकारात्मक है वहीं दूसरा पक्ष नकारात्मक भी है। कुछ सम्भ्रांत परिवार के पुरुषों का कहना है मैं नहीं चाहता कि मेरी पत्नी का फिगर ख़राब हो जाए। या फिर ग्लैमर की दुनियाँ से जुड़ी figur concious महिलाएँ लम्बे अरसे तक आकर्षक दिखने की चाह में अपने कोख से बच्चा पैदा करना नहीं चाहती, या फिर प्रसव पीड़ा को सहन करने के डर से अपने संतान को जन्म देने के बजाए बनवाने में ज्यादा आश्वस्त दिखती हैं। ऐसा करके ये माता-पिता baby selling को बढ़ावा दे रहें हैं। वे यह नहीं जानते कि ऐसा करने से बच्चे के साथ उनका blood bonding तो ख़त्म हो ही रहा है, साथ ही soul bonding भी नष्ट हो रहा है। नौ महीने तक बच्चे को अपने गर्भ में धारण करना तत्पश्चात फिर कठिन प्रसव पीड़ा झेलने के बाद संतान को अपनी गोद में लेकर सीने से लगाकर, दूध पिलाना माँ के लिए आनंद का अलौकिक क्षण होता है। माँ गर्भधारण से लेकर प्रसव पीड़ा की प्राणांतक तकलीफ इस एक क्षण में भूल जाती हैं। क्या कोख किराए पर खरीदनेवाली माताएँ प्रक्रति प्रदत इन अलौकिक सुखों से वंचित नहीं रह जाएँगी?

जहाँ कुछ बुद्धिजीवी वर्ग का मानना है कि सरोगेसी अनैतिक ( unethical ) है, वहीं उनमें से कई लोगों का यह भी मानना है कि यह एक प्रकार का व्यापर (barter ) है। अगर शिक्षा बेची जा सकती है किताव कापीं बेचे जा सकते हैं तो जरूरतमंद औरतें अपनी कोख क्यों नहीं बेच सकती है? अगर किसी चप्पल सीने वाली स्त्री या मजदूरी करके पेट पालने वाली स्त्री को नौ महीने के लिए अपनी कोख बेचने के एवज में दस लाख रुपया मिल जाता है तो इसमें बुराई क्या हैं? उन्हें भी तो सुनहरे सपने देखने का अधिकार है, अपना भविष्य संवारने का अधिकार है। चप्पल सीकर या मजदूरी करके  उम्र पर्यन्त वह दस लाख रुपये नहीं कमा सकतीं!


जरुरतमंद के मायने में यह गलत नहीं है। वहीं दूसरी तरफ इसमे कुछ जटिलताएं भी है अगर गर्भावस्था के दौरान यह पता चलता है कि बच्चा असामान्य(abnormal ) है, या फिर माँ की जान को खतरा है तो ऐसे में कानूनी माता-पिता अपनी जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ लेते हैं। वे कहते हैं साहव हमने तो स्वस्थ एवं सामान्य बच्चे के लिए कोख किराएँ पर ली हैं न कि असामान्य बच्चे के लिए।  माँ की जान की जिम्मेदारी भी हमारी नहीं है। ऐसे में इन सब चीजों के लिए कानून बनना चाहिए। बच्चा स्वस्थ हो या अस्वस्थ, सामान्य हो या असामान्य कानूनी माता-पिता इसकी दायित्व लें। तथा गर्भावस्था के दौरान माँ की जिम्मेदारी भी कानूनी माता-पिता की होनी चाहिए। अपने दायित्त्व से पीछे हटने पर उनके लिए कानूनी तौर पर कठोर सजा का प्रावधान होना चाहिए।

भारत जैसे विकासशील देश में सरोगेसी व्यापार का शक्ल अख्तियार कर रहा है। सरोगेट इंडस्ट्री दिन दूनी रात चौगुनी फलफूल रही है। इसका मुख्य कारण यह है कि पश्चिमी देशों में जहाँ यह काफी खर्चीला है वहीं भारत जैसे गरीब देश में ब्रिटेन या अमेरिका के अपेक्षा एक तिहाई खर्चा करने पर कोख आसानी से खरीदा जा सकता है। अगर सरोगेसी को व्यापार में बदलने से रोकना है तो पश्चिमी देशों के जरिए होने वाले इस अवैध व्यापार पर भारत में कानूनी रोक लगनी चाहिए। विदेशियों पर प्रतिबंध लगने चाहिए।  भारतीय मातापिता भारत में ही सरोगेट मदर खोजें। तथा भारत में भी सरोगेसी की अनुमती उन्हें ही दिया जाए जो माँ ह्रदय रोग या किसी अन्य प्राण घातक बीमारी से पीड़ित हों। इस क्षेत्र में दान की वृहतर भावना को भी बढ़ावा मिलना चाहिए न कि इसे इकॉनोमिकली देखा जाना चाहिए। साथ ही अनाथ बच्चों को गोद लेने पर भी बल दिया जाना चाहिए। अमेरिका तथा ब्रिटेन जैसे देशों में सरोगेट मदर ही बच्चे की कानूनी माँ होती है, किंतु भारत में ऐसा प्रावधान नहीं है। विशेषज्ञों या डॉक्टरों का मानना है कि सरोगेट मदर का न तो अपना ओवेरी ( overy ) होता है न स्पर्म (sperm ) सिर्फ बच्चा माँ के गर्भाशय में पोषण प्राप्त करता है। ऎसे में बच्चे में माँ का अनुवांशिक या जेनेटिक गुण भी नहीं आता है। अगर बच्चे के जन्म के बाद माँ भावनात्मक तौर पर बच्चे से जुड़ती है तो भी बच्चे को अपने पास रखने का अधिकार उसे प्राप्त नहीं होता। अगर बच्चा बड़ा होकर जन्म देनी वाली माँ को ही अपना माँ मान बैठे, तो ऐसी परिस्थिती में बच्चा दिमागी तौर पर तनावग्रस्त हो सकता है।

कुछ लोगों का मानना यह है कि वास्तव में सरोगेसी भारतीय संस्कृति का अतिक्रमण है तथा इसके लिए भारतीय संस्कृति में कोई स्थान नहीं होना चाहिए, यह तो पाश्चात्य संस्कृति की देन है। किंतु संस्कृति को इतना संकुचित बना देना कट्टरवाद के अलावा और कुछ नहीं है। वस्तुत: सरोगेसी कांसेप्ट का विरोध नहीं करके उससे उत्पन होने वाली जटिलताओं का विरोध किया जाना चाहिए सरोगेसी मुख्य रूप से  फास्ट फ़ूड (fast food ) वाली पद्धति है, हमारे पास समय का अभाव है बाजार में बना बनाया खाना उपलव्ध है, बनाने से बेहतर खरीद लेना अच्छा है। ठीक उसी प्रकार कामकाजी महिलाएँ सोचती है बच्चा पैदा करने का समय हमारे पास है नहीं, ऎसे में बेहतर है पैसा देकर अपना बच्चा बनवा लिया जाए। ऐसी महिलाओं पर कानूनी रोक लगनी चाहिए। क्या ऐसी माँ जो समयाभाव के कारण कोख किराये पर खरीद रहीं हैं वे अपने बच्चे से भावनात्मक तौर पर कभी जुड़ पाएँगी कतई नहीं? इन महिलाओं की काउंसलिंग की जानी चाहिए एवं साफ्ट रीजन पर पाबंदी लगनी चाहिए। इस बात से बिलकुल इंकार नहीं किया जा सकता कि सरोगेसी ब्लैक &वाईट (black & white) नहीं बल्कि एक ग्रे एरिया ( grey area ) है

मंगलवार, 19 मार्च 2013

स्त्री लेखन और स्त्री की सामाजिक स्थिति


मैत्रेयी पुष्पाजी का साक्षात्कार
स्त्री के मानुषीकरण का लक्ष्य लेकर जो आवाजें हिंदी साहित्य में पूरे जोर के साथ उठी और उभरी हैं उनमें एक खास आवाज है- मैत्रेयी पुष्पा की। अपने पीएच.डी शोध कार्य के सिलसिले में विगत वर्ष मुझे मैत्रेयीजी के निवास स्थान नोयडा के महोगुनमार्फियस अपार्टमेंट में उनके साक्षात्कार का सुयोग मिला। वे इस बात से प्रसन्न थीं कि मैं हैदराबाद से उनसे मिलने आयी हूँ। यह जानकर उन्हें प्रसन्नता हुई कि मैंने उनके उपन्यास ’अल्मा कबूतरी’ एवं ’कस्तूरी कुंडल बसै’ पर एम.फिल. का शोधप्रबंध लिखा है। मैत्रेयीजी ने अपने आरंभिक जीवन तथा परिवार के बारे में बहुत सारी बातें बतायी। सरल, सहज और सादगी भरा व्यक्तित्व ऎसा लगा ही नहीं कि मैं इतने बड़े साहित्यकार से पहली बार मिल रही हूँ। हालॉकि मैं मन ही मन थोड़ी सी घबरायी हुई थी कि पता नहीं वह मुझ जैसी अदना सी शोधार्थी से बात करना पसंद करेंगी की नहीं। किंतु अपने आतिथ्य तथा स्नेह से ऎसा लगा मानो उन्होंने मुझे सर आँखो पर बिठा लिया। चाय की चुस्कियों के साथ साक्षात्कार का सिलसिला शुरू हुआ तथा मैंने अपने पूर्व निर्धारित प्रश्न उनके समक्ष रखे। वैसे तो यह साक्षात्कार हैदराबाद से प्रकाशित होनेवाली समाचार पत्र ’स्वतंत्र वार्ता’ तथा दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा खैरताबाद से प्रकाशित द्विभाषिक मासिक पत्रिका स्रवंति में प्रकाशित हो चुकी है। मेरे प्रश्न तथा मैत्रेयी पुष्पाजी के उत्तर यहाँ प्रस्तुत हैं।
अर्पणा: जब मैं विद्यालय मैं पढ़ती थी, तो साहित्य मैं स्त्री भावना जैसे कुछ प्रश्न हुआ करते थे (मैथिलीशरण गुप्त की नारी भावना, रामचरित मानस के नारी पात्र)। उसके बाद स्त्रीचेतना और स्त्रीवाद जैसे शब्द चलने लगे, फिर स्त्री विमर्श आया। इन सबमें क्या अंतर है और क्या संबंध है? कुछ ठीक-ठीक समझ में नहीं आता। आप इन सबको किस तरह देखती हैं?

मैत्रेयी पुष्पाजी: देखो तुमने जैसा पढ़ा है वैसे ही मैंने भी पढ़ा है। मैथिलीशरण गुप्त ने स्त्रियों के बारे में काफी अच्छे विचार रखे। उन्होनें काफी कुछ अच्छा स्त्रियों के बारे में लिखा। प्रेमचंद ने तो काफी हद तक स्त्रियों को मुक्ति दिलाने की कोशिश की। लेकिन ये तो पुरुषों के कलम से आया। औरत क्या चाहती है? सुभद्रा कुमारी चौहान को पता था, महादेवी वर्मा को पता था। लेकिन उन्होंने भी अपने लेखन को पुरुषों के कलम से ही लिखा। सुभद्रा कुमारी चौहान ने ’खुब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी’ में ’मर्द-मर्दानी’ शब्द का प्रयोग किया। महादेवी ने अपनी कविताओं में अपनी पीड़ा, दु:ख एवं तकलीफ को व्यक्त किया। जिसको उन्होंने संबोधित किया उसे उन्होंने रहस्यमय ही रहने दिया। कहानी की बात लें। हालांकि प्रेमचंद ने मुक्ति दिलाने की बहुत कोशिश की। तुम देखो ’मैला आँचल’ में रेणु ने भी दो टूक बातें कही-हालांकि वे मुक्ति के लेखक नहीं थे। ’मैला आँचल’ पर मैंने लिखा है ’मेरीगंज की औरतें’। तुम देखो ’मैला आँचल’ में मठ की संस्था ध्वस्त होती है, जात-पाँत की व्यवस्था धवस्त होती है। जो नियम बनाए पुरुषों ने बनाए औरतों ने नहीं बनाए। उनसे किसी ने नहीं पूछा कि वे क्या चाहती हैं? लेकिन औरत की आवाज को सबसे शक्तिशाली आवाज में कहा कृष्णा सोबती ने। चाहे वह ’जिन्दगीनामा’ हो या ’मित्रो मरजानी’। औरत जो चाहती थी उसे उसने दर्ज करना शुरु कर दिया। पुरुषों की कहानी भी तो बिना स्त्री के पूरी नहीं होती। ’गोदान’ में क्या है? ’त्याग्पत्र’ में क्या है? ’चित्रलेखा’ में क्या है? मुझसे पूछा गया कि मैंने इन उपन्यासों को क्यों ...? ठीक है ये जो लेखन आ रहा था, उसमें स्त्री चेतना या स्त्री भावना कैसे आया? मेरा मानना है कि स्त्री ने जब अपने बारे में सोचना शुरु किया, अपनी बात पुरुषों के बीच रखना शुरू किया और आपस में अपनी बात कहना शुरू किया वह स्त्री विमर्श है।
प्रश्न: स्त्री विमर्श की जब भी चर्चा होती है, तो सीमोन द बुआ और केट मिलेट की मान्यताओं पर चर्चा अधिक की जाती है। क्या भारत में स्त्री मुक्ति के प्रश्न पर विचार करने वाली महिलाएँ नहीं हुई? अगर यह कहा जाए कि यहाँ स्त्री का दमन अधिक हुआ तो फिर उसका प्रतिकार भी यहीं से पैदा होना चाहिए था? महादेवी वर्मा के जीवन और लेखन विशेष रूप से ’शृंखला की कड़ियाँ’ स्त्री विमर्श की दृष्टि से इसकी किस प्रकार व्याख्या की जा सकती है?

मैत्रेयी पुष्पाजी: ’द सेकेंड सेक्स’ से पहले छपी थी ’शृखंला की कड़ियाँ’, लेकिन हम ’शृंखला की कड़ियाँ’ का नाम नहीं लेते! कहते हैं यह महादेवी के साथ अन्याय है! लेकिन सीमोन द बुआ ने जैसा साफ दो टूक शब्दों में लिखा वैसा महादेवी ने नहीं लिखा। उन्होंने लिखा स्त्री को ऎसे रहना चाहिए, वैसे रहना चाहिए और दूसरी बात यह कि महादेवी तो कभी गृहस्थ जीवन में थी हीं नहीं, घरेलू स्त्री के दु:ख-तकलीफ को कैसे समझ पाती? अच्छा उन्होंने अपनी जितनी भी कविताएँ लिखी, उनमें अपने जीवन के खालीपन, दु:ख, तकलीफ और पीड़ा को व्यक्त किया। फिर हम कहते हैं कि सीमोन द बुआ का नाम ले रहें हैं, वर्जिनिया वुल्फ का नाम ले रहें है लेकिन ’शृखंला की कड़ियाँ’ का नाम नहीं लेते।

प्रश्न: ऎसा क्यों है कि १९९० के बाद केवल स्त्री लेखन ही नहीं सारे साहित्य लेखन में स्त्री केंद्र में आ गई है? क्या वास्तव में भारतीय समाज की स्त्री के प्रति दृष्टि में परिवर्तन हो रहा है?

मैत्रेयी पुष्पाजी: हाँ बिल्कुल १९९० के बाद साहित्य लेखन में स्त्री केंद्र में आ गई। स्त्रियों ने स्वयं कलम उठाई। अपनी आपबीती अपने अनुभव को उन्होंने स्वयं लिखना शुरू किया । पहले लड़की शादी के लिए पढ़ा करती थी, लेकिन बाद में उन्होंने कहना शुरू किया-मुझे पहले कैरियर बनाना है, बाद में शादी करनी है आज तुम देखोगी अच्छे से अच्छे क्षेत्रों में लड़कियाँ या महिलाएँ सबसे आगे हैं। तुमने तो ’चाक’ पढ़ा है; ’चाक’ की नायिका सारंग नैनी घरेलू स्त्री है, लेकिन अपने ऊपर हुए अत्याचार को वह झेल नहीं पाती तथा बाद में ग्रामीण राजनीति में आती है।

प्रश्न: स्त्री विमर्श की दृष्टि से किसी उपन्यास में आपके विचार से किन चीजों का होना जरूरी है?
मैत्रेयी पुष्पाजी: स्त्री विमर्श की दृष्टि से मेरे उपन्यास में जो है, वह सब कुछ होना चाहिए...(हँसते हुए)। हाँ मेरे विचार से स्त्रियाँ राजनीति में होनी चाहिए, क्योंकि तुम देखो आज भी पंचायत स्तर पर तो महिलाएँ आ चुकी हैं, प्रधान का पद उनके लिए प्रधानमंत्री के पद के बराबर है। लेकिन आज भी संसद में महिलाओं का ३३% आरक्षण का मुद्‍दा अधर में लटका हुआ है, लेकिन जल्दी ही उन्हें यह अधिकार भी मिल जाएगा।

प्रश्न: क्या काम जीवन से संबंधित पारंपरिक मानदंडों का उल्लघंन करना स्त्री विमर्श की अनिवार्य शर्त है? क्यों?

मैत्रेयी पुष्पाजी: देखो ये सब प्राकृतिक है। अगर काम नहीं होगा तो पति-पत्नी का संबंध नहीं होगा, सृष्टि का विकास रूक जाएगा। यह तो जरूरी है। अगर परंपरा का उल्लंघन किसी बहुत ही अच्छे काम के लिए किया जाए तो इसमें कोई बुराई नहीं है। 

प्रश्न: क्या लेखन को पुरुष लेखन और स्त्री लेखन के रूप में बाँटना उचित है? इससे क्या हासिल होता है? 

मैत्रेयी पुष्पाजी: पुरुष और स्त्री लेखन-दोनों का अपना क्षेत्र है। भावनात्मक तौर पर एक पुरुष जो अनुभव करेगा वह स्त्री कैसे समझ सकती है। मान लो कोई पुरुष किसी लड़की को देख रहा है, देखने पर उसके मन में क्या विचार उत्पन्न होता है-स्त्री इसकी अभिव्यक्ति नहीं कर सकती। ठीक उसी प्रकार स्त्रियों के मन में प्रेम की क्या परिभाषा है तथा मातृत्व के भाव आदि को पुरुष अभिव्यक्त नहीं कर सकता।

प्रश्न: क्या पुरुष कथाकारों और स्त्री कथाकारों के भाषा प्रयोग में कोई अंतर होता है?

मैत्रेयी पुष्पाजी: हाँ, बिल्कुल भाषा में अंतर होता है। अभी मैंने कहा है-फिर से कहती हूँ स्त्रियाँ भुक्त्भोगी होती हैं, अपने ऊपर हुए अन्याय और अत्याचार को जिस प्रकार वह व्यक्त कर सकती हैं, पुरुष नहीं कर सकता। ’कस्तूरी कुंडल बसै’ मैं तुमने पढ़ा होगा, मेरे पास विद्यालय जाने के लिए एक रुपया होता था और मैं उसे बस के कंडक्टर या ड्राइवर को नहीं देना चाहती थी ताकि दूसरे दिन भी स्कूल जा सकूँ। बदले में वे लोग मुझे इतनी बुरी तरीके से तंग किया करते थी कि मैं रो पड़ती थी। थोड़ी दूर जाने पर पुलिस स्टेशन आता था, मैं खिड़की से झाँका करती थी कि यहाँ उतरकर इनकी शिकायत पुलिसवालों से कर दूँगी। खिड़की से झाँककर मैं देखती थी, दो-तीन पुलिसवाले हाथ में बंदूक लिए घूमते रहते थे। उस जमाने में कोई महिला पुलिस नहीं हुआ करती थी। मैं सहमकर फिर से चुप बैठ जाती थी। मेरी हिम्मत नहीं होती थी कि मैं उतरकर उनकी शिकायत दर्ज करा सकूँ। 

सोमवार, 10 दिसंबर 2012

अल्मा कबूतरी में सामाजिक यथार्थ


अर्पणा दीप्ति

यथार्थ मानव जीवन की सच्ची अनुभूति है जिसके द्वारा हम अपने जीवन में घटित होने वाले घटनाओं एवं भावनाओं का अनुभव करते हैं। अपनी इन्द्रियों के द्वारा समाज में होने वाले सभी प्रकार के क्रियाकलापों का अनुभव करना एवं ज्यों का त्यों कहना यथार्थ है। सामाजिक यथार्थवाद का अर्थ होता है-समाज की वास्तविक अवस्था का यथार्थ चित्रण।साहित्य लेखन और जीवन का यथार्थ दरसल एक ही कोण की दो भुजाएँ हैं। अगर मन का भावनात्मक रूप सहित्य है तो उसी की बुद्धिगत परिकल्पना यथार्थ है। युगीन यथार्थ को पहचानने के लिए जीवन के मूल स्रोतों से संबंध स्थापित करना पड़ता है।, उनसे उलझना पड़ता है। इसे सिर्फ बाहर से बाहर समझना मुश्किल है। यथार्थ हमेशा समाज से जुड़ा रहता है। वह व्यक्तिगत, समाजगत और विश्व से संबंधित है। व्यक्ति का अस्तित्व समाज से और समाज का अस्तित्व विश्व से है। डॉ. त्रिभुवन सिंह के अनुसार 

"सामाजिक यथार्थवाद का अर्थ होता है समाज की वास्तविक अवस्थाओं का यथार्थ चित्रण। परंतु साहित्य के अंदर किसी भी वस्तु का चित्र उतार कर रख देना कठिन होता है क्योंकि सहित्यिक चित्र कैमरा द्वारा लिया गया चित्र नहीं होता है, बल्कि वह साहित्यकार की सूची के द्वारा चित्रित किया गया ऎसा चित्र है जिसमें साहित्यकार के अनुभव एवं कल्पना के सुंदर रंग ढले होते हैं। सामाजिक विषमताओं, भ्रष्टाचारों तथा वैयक्तिक स्वार्थों से आक्रांत, पीड़ित समाज की दयनीय परिस्थितियों को उसके वास्तविक रूप में समाज के सामने प्रस्तुत करना सामाजिक यथार्थवाद का प्रधान लक्ष्य है। सामाजिक यथार्थवादी साहित्यकार समाज और व्यक्ति के पारस्परिक संबंधों उसके प्रत्येक आचार-विचारों तथा उसकी राष्ट्रीय, आर्थिक एवं नैतिक अवस्थाओं का मूल्याकंन तत्कालीन परिस्थितियों के आधार पर करता है। वह केवल समाज जैसा है, वैसा ही उसका वर्णन मात्र नहीं कर देता, बल्कि उसको इस रूप में प्रस्तुत करता है जिससे पाठक युग के सत्य एवं समाज में होने वाले कार्यव्यापारों के औचित्य तथा अनौचित्य को सरलता से परख कर सकें और उन मर्यादाओं का अनुकरण कर सकें, जिस पर चलकर एक आदर्श समाज की स्थापना हो सके।" ( हिंदी उपन्यास और यथार्थवाद : प्रो. त्रिभुवन सिंह-पृ.१७) 

मैत्रेयी पुष्पा कृत ’अल्मा कबूतरी’ (२०००) में यथार्थ पानी में तेल की तरह साफ दिखता है।इस उपन्यास के माध्यम से कथाकार ने एक ऎसे विषय को उठाया है जिससे अधिकांश लोग अपरिचित हैं। अगर परिचित हैं तो उनके डरावने और अपराधित कारनामों से, उनके भीतर छिपी मानवीय संवेदनाओं और उत्पीड़न से नहीं। यह उपन्यास बुंदेलखंड की कबूतरा जनजाति के माध्यम से समाज में ’जन्मजात अपराधी’ घोषित की गई तमाम जनजातियों का ’दस्तावेज’ प्रस्तुत करता है। १८७९ ई. के अधिनियम के तहत अंग्रेजों ने इन्हें जन्मजात अपराधी घोषित कर दिया था। वास्तव में अपने देश को अपनी नागरिकता को बचाने के लिए वे अपनी ताकत भर अंग्रेजों से लड़े थे। इसलिए इन्हें सजा के तौर पर १८७९ ई. के अधिनियम के तहत अंग्रेजों ने इन्हें ’जन्मजात अपराधी’ घोषित कर दिया था।  यह प्रथा आज तक चली आ रही है। डॉ. डी. एन मजमूदार के अनुसार-

"नर विज्ञान और रक्त विज्ञान द्वारा जो भी आँकड़े प्राप्त हुए हैं उन से केवल यह पता चला है कि वे विशुद्ध जातियाँ नहीं हैं, अन्य जातियों के मिश्रण से बनी है और उनमें ’बी’ रक्त का बाहुल्य है। इसके अतिरिक्त उनकी शारीरिक बनावट और शारीरिक रक्त का कोई दोष नहीं है, क्योंकि उनकी शारीरिक बनावट और शारीरिक रक्त में अन्य जातियों की अपेक्षा कोई विशेष अंतर नहीं है।"(भारत की जन जातियाँ-डॉ.शिव तोष दास-पृ.सं.१७४)

मैत्रेयी पुष्पा ने 'अल्मा कबूतरी' की कथावस्तु के लिए एक ऎसी जनजाति को चुना जिन्हें समाज मे अब तक कोई स्थान नहीं मिल सका है। कथावस्तु का चयन करते समय मैत्रेयी पुष्पा के मस्तिष्क में शायद यह बात रही हो कि हिंदी कथा साहित्य में इस विषय की ओर कम ध्यान दिया गया हो। यह ठीक है कि प्रेमचंद ने अपने कथा साहित्य में अपेक्षित वर्ग को स्थान दिया। लेकिन उन लोगों में और आदिवासियों में बहुत फर्क है। साथ ही मैत्रेयी पुष्पा ने अल्मा कबूतरी  में नायक को न चुनकर नायिका को चुना है।

’अल्मा कबूतरी’ नायिका प्रधान उपन्यास है अत: लेखिका ने इस उपन्यास को लिखते समय समाज के यथार्थ चित्रण के साथ-साथ आदिवासियों खासकर महिला आदिवासियों की समस्याओं को मुख्य रूप से रेखांकित किया है। मुख्य रूप से उपन्यास का ताना-बाना स्त्री शोषण तथा स्त्री संघर्ष से बुना गया है। इसके अलावे उपन्यास की अन्य प्रमुख समस्याएँ द्रष्टव्य है यथाः-
१.जात-पात तथा ऊँच-नीच की समस्या
२.अनैतिक संबंधों की समस्या
३.अंधविश्वास की समस्या
४.निर्धनता एंव बेरोजगारी की समस्या
५.अशिक्षा
भारत में आज भी कुछ ऎसी अभागी जनजातियाँ हैं जो आजादी का अर्थ नहीं जानती उनके पास न तो अपना जमीन है और न ठिकाने का घर। औपनिवेशिक शासन ने उन्हें ’जरायमपेशा’ जाति घोषित कर न केवल तथाकथित ’सभ्य समाज’ के नजरों में उपेक्षा और घृणा का पात्र ही नहीं बल्कि पुलिस अत्याचार का नरमचारा भी बना दिया। यद्यपि देश के आजाद होने के बाद इन जातियों को समान नागरिकता का अधिकार प्राप्त तो हो गया, पर जीविकोपार्जन का कोई सम्मानजनक साधन उपलब्ध नहीं होने के कारण इनके पुरुष अपराधकर्म और स्त्रियाँ देह व्यापार के लिए विवश होती है। मैत्रेयी पुष्पा ने ’अल्मा कबूतरी’ में इस कटु यथार्थ को गहरी संवेदना तथा जबर्दस्त सृजनात्मकता के साथ प्रस्तुत किया है।
१९३६ में जनजातियों की संपूर्ण स्थिति को देखते हुए जवाहरलाल नेहरू ने एक अधिनियम बनाने की घोषणा की जिसमें उन्हें अपराध से मुक्त घोषित किया गया था। १९५२ में प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने इस घोषणा को लागू भी किया। देश को स्वतंत्र होकर ६२ वर्ष बीत चुके हैं लेकिन स्थिति आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है। ’अल्मा कबूतरी’ को पढ़ने के बाद पाठक वर्ग का यथार्थ की एक ऎसी दुनियाँ से साक्षात्कार होता है जँहा स्त्रियाँ अपने आपको बेचकर अपने बच्चों का पालन पोषण करती हैं और इनके पुरुष इन बच्चों की सलामती के लिए अपना जान तक कुर्बान करने से पीछे नहीं हटते। वहीं समानातंर में स्त्रियों का एक ऎसा वर्ग भी है जो ऎशो आराम से जीता है जिन्हें लेखिका ने ’कज्जा’ का नाम दिया है। ये कज्जा वर्ग के पुरुष अपनी कामवासना की पुर्ति के लिए कबूतरी स्त्रियों का इस्तेमाल करते हुए उनका शोषण करते हैं और उन्हें मुहरे की तरह बाजी पर भी लगा देते हैं। उपन्यास पढ़कर ऎसा प्रतीत होता है कि अपराधी कबूतरा जनजाति नहीं बल्कि अपराधी अपने को सभ्य कहनेवाला असभ्य और बर्बर समाज है जो इन जनजातियों को ’अपराधी’ बने रहने पर विवश कर देता है; वे उठना चाहे तो न उठने दे, पढ़ना भी चाहे तो न पढ़ने दे। सभ्य समाज का कानून और पुलिस उन्हें अपराधी और असभ्य इसलिए बनाए रखना चाहती है ताकि उन्हीं के रू-ब-रु वे अपने को सभ्य और सुसंस्कृत कर सके।

(अ) "हम लोग न खेतों के मालिक न मजूर सो गोह खाते-खाते होंठ चिपचिपा गए हैं। देखें तो धरती मैया कैसी-कैसी चीजें देती हैं? जमीन में हमारा हिस्सा नहीं।"(अल्मा कबूतरी-मैत्रेयी पुष्पा-पृ.सं.५८)
(आ)"बच्चे गाँव से दूर पड़े घूरों को कुरेद आए। कुछ चिथड़े उखाड़ लाए। उन्होंने ने चिथड़े घर के भीतर माँ-काकियों के पास फेंक दिए। नहीं देखा कि वे चिथड़े गंदगी में लिथड़े है या माहवारी.....। फायदा भी क्या था दूसरा सहारा न था। माँ-काकियों के नंगे बदन रह-रहकर आँखों में छा जाते।"(वही-पृ.४७)

मुख्यत: बुंदेलखंड में बसनेवाली कबूतरा जनजाति के जीवन को उपन्यास का विषय बनाया गया है, जो अपनी वंश की परंपरा रानी पद्‍यमिनी और झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की अंगरक्षिका झलकारी बाई से जोड़ते हैं।

"हम सब एक लकड़ी नहीं बँधे हुए गट्‍ठर हैं। तोड़ने से न टूटेंगे! चित्तौड़ से लेकर झाँसी की रानी का साथ निभाने की सजाएँ भोगो। भोगेंगे।"(पृ.सं.१७५)

 इसके साथ ही लेखिका ने समानांतर ’सभ्य’ समाज से जिन्हें वे ’कज्जा’ कहकर पुकारती हैं, शोषकवर्ग के रूप में इनका चित्रण बड़ी ही सफलता से किया है। वस्तुत: ’कज्जा’’कबूतरा’ का द्वंद ही ’अल्मा कबूतरी’का केंद्रीय विषय है। भूरी उसके बेटे रामसिंह और उसकी बेटी अल्मा की कहानी उनके अपमान, संघर्ष और पीड़ा की कहानी है। इन पात्रों ने सभ्य समाज से संघर्ष कर अपना सबकुछ दाँव पर लगा देने के बावजूद ’लहूलुहान’ कबूतरा ही रहते हैं। इसका कारण यह है कि पूरी व्यवस्था ही अपनी पूरी शक्ति के साथ उनके विरोध में खड़ी है। भूरी कज्जा समाज से टक्कर लेती है। वह शरीर का सौदा करके भी अपने बेटे को पढ़ा लिखाकर इस योग्य बनाना चाहती है, कि वह समाज मे सम्मान की जिंदगी जी सके।

"पतिविरता लुगाई अपने आदमी के संग सती होती है। मैं अपने मर्द की ब्याहता खुद को तब माँनूगी, जब रामसिंह को पढ़ा लिखाकर इसी कचहरी के दरवाजे खड़ा कर दूँगीं। भले इस सफर में मुझे दस मर्दों के नीचे से गुजरना पड़े।"(पृ.सं.७४)

 भूरी विद्या को महत्त्व देते हुए कहती है कि

 "विद्या रतन के आगे देह का खजाना कुछ भी नहीं।"(वही)

 बस्ती की सबसे पहली माँ थी भूरी जिसने बेटे को कुल्हाड़ी-डंडा नहीं थमा कर पोथी-पाटी पकड़ाया। अपने बेटे को सभ्य बनाने के लिए भूरी कबुतरा जीवन तथा बदनामी का बोझ ढ़ोने को तैयार थी। पर ऎसा नहीं हो पाता है। भूरी का बेटा रामसिंह कबूतरा बनकर ही जीने को अभिशप्त है। वह धीरे-धीरे अपनी संघर्ष की क्षमता खोकर पुलिस का दलाल बन जाता है और बेटा सिंह डाकू के नाम पर पुलिस द्वारा प्रायोजित मुठभेड़ में मारा जाता है। एक कबूतरा के ’सभ्य’ बनने की कोशिश का यह अंजाम दिखाकर लेखिका ने यथार्थ को उसके ’नग्नतम’ रूप में पेश करने का प्रयास किया है। 

 अल्मा की कहानी इस स्थिति के प्रति नारी के विद्रोह की कहानी है। वह अपने पिता के साथ रहती है, अपने साथ रहते राणा को बच्चे से मर्द बनाती है।, कुँआरी माँ बनने का साहस दिखाती है, आततायियों को साहस के साथ झेलती है, पशुओं से भी बदतर जिंदगी जीने को बाध्य होती है पर हार नहीं मानती।

(अ)"इज्जत बचानी नहीं गँवानी है, जान रखनी नहीं देनी है....भागकर कहाँ तक जाएगी फिर कोई ऎसा खतरनाक हाथ आएगा  नए नंगा करेंगे। हर आदमी की एक ही भूख।"(पृ.सं.३०७)
(आ)"पाप के खिलाफ लड़ने के लिए अपने देह से पाप को गुजार देना कितना जरूरी था।"(पृ.सं.३६८) उसकी कहानी को एक आकस्मिक मोड़ देकर अल्मा कबूतरी से श्रीमती अल्मा शास्त्री तथा बबीना विधानसभा सीट का संभावित प्रत्याशी बना दिया जाता है।

वस्तुत: ’अल्मा कबूतरी’ की नायिका अल्मा नहीं भूरी-कदमबाई तथा अल्मा का समुच्च्य है, जिसमें तमाम अन्य स्त्री पात्र भी सिमट जाते हैं। इस तरह कुल एक और एक ही स्त्री मूर्ति प्रतिष्ठित होती है ’अल्मा’। यह नामकरण तक प्रतीकात्मक है-अल्मा यानि ’आत्मा’

अब प्रश्न यह उठना स्वभाविक है कि क्या भूरी, कदम, अल्मा दलित है? क्या अल्मा कबूतरी दलित गाथा है? नहीं! दरअसल अल्मा, कदम, भूरी दलित नहीं हो सकती। ये तीनों हीं स्त्रियाँ महाकाल से टकराने में सक्ष्म है। ये तीनो पग-पग पर उत्पीड़ित होती हैं, उनका एक-एक सपना टूटता है फिर भी वे चुनौतियों से टकराती हुई संघर्ष करती है। भूरी, कदमबाई तथा अल्मा तीनों एक ही किरदार के विभिन्न अवस्थाओं के रूप हैं। जहाँ शुरूआती नायिका कदमबाई बदलाव की हताशा भरी छटपटाहट को खोलती है, वहीं भूरी विद्रोह का अंकुर प्रस्फुटित करती है, लेकिन उसे तार्किक बिंदु पर पहुँचाती है अल्मा। जहाँ वह सत्ता को वरण करने से इंकार नहीं कर पाती है। वही सत्ता जिसने भूरी और कदम ही नहीं अल्मा का भी अमानवीय शोषण किया; अस्मिता को कुचला तब भी इनकी संघर्ष यात्रा को रोक नहीं सकी। अंतत: अल्मा भी सत्तासीनों के दायरे में शामिल होकर उसी का हिस्सा बन जाती है। वही सत्ता जिसने रानी पद्‍मिनी से लेकर झाँसी की रानी की विश्वास पात्र झलकारीबाई तक की बलि ली तो यह विजय है या आत्मसमर्पण! विजय भले ही नहीं सही पर आत्मसमर्पण कतई नहीं। हालाँकि इस बिंदु पर आकर अल्मा कबूतरी की कथा विश्राम ग्रहण करती है।

’अल्मा कबूतरी’ स्वातंत्र्योत्तर भारत में निरंतर राजनैतिक नैतिकता के क्षरण की कहानी है। वस्तुत: जहाँ पुलिसवाले अपनी अंगुलियों और हथेलियों से डंडा खेलने में व्यस्त हैं, जहाँ ज्ञान पाकर नफरत कमाई जाती है, सच्ची बातों से बचकर समाचार पत्र ईमान बेचने लगे हैं। पढ़े-लिखे लड़के कुत्तों से ज्यादा वफादार है तथा पेट की आग बुझाने के लिए अपना जमीर तक बेचने को तैयार हैं, जहाँ खुबसूरत शरीर बदसूरत भविष्य गढ़ता है वहाँ आक्रोश तक निरर्थक है। इन सभी पहलुओं को मैत्रेयी पुष्पा ने बड़े ही बेबाक तरीके से अल्मा कबूतरी में दर्शाया है।

वहीं इस उपन्यास में कई पात्रों में द्वंद दिखाई देता है। मुख्य रूप से अनेक संदर्भों में मंसाराम, कदमबाई, राणा, भूरी, रामसिंह आदि पात्र द्वंद में पड़ जाते हैं। इस उपन्यास में जहाँ एक तरफ समाज शास्त्र मौजूद है तो वहीं दूसरी तरफ यथार्थ का दस्तावेज भी अपने पूर्ण साक्ष्य के साथ उपलब्ध है। मैत्रेयी पुष्पा के लेखन की सबसे बड़ी विशिष्टता यह है कि वे लोक जीवन एवं सामान्य-जीवन से कथा वस्तु का चुनाव करती हैं तथा स्त्रीपात्र को उसके केंद्र में रखती हैं। मैत्रेयी पुष्पा ने अपने सभी उपन्यासों में नायिकाओं को विजय की स्थिति में पहुँचाया है अल्मा भी इनसे अछूता नहीं रहती। यह उपन्यास अपराधी जनजाति यानी क्रिमिनलाइब्स से संबंधित है एवं अपराधी जनजाति कबूतरा के समाज की मुख्यधारा में शामिल होने की प्रक्रिया पर आधारित है। यदि गैर समाजशास्त्रीय शब्दों में कहा जाए तो इनकी नियति उस ’त्रिशंकु समाज’ की है जो अवांछित बने रहकर गुजरबसर करते हैं। इन्हीं अवांछित लोगों की कथा है ’अल्मा कबूतरी’’अल्मा कबूतरी’ में अल्मा चाहे जितना संघर्ष करती है, लेकिन अंतत: एक मुकाम हासिल करती है। इस प्रकार वह किसी जनजाति विशेष की नहीं रह जाती। उसकी आशा-आकांक्षा -जिजीविषा जाति से भी आगे जाकर लिंग भेद तक को लाँघती है|

संदर्भ:
हिंदी उपन्यास और यथार्थवाद-डॉ. त्रिभुवन सिंह, ओमप्रकाशबेरी प्रकाशन, बनारस-१९५५
भारत की जनजातियाँ-डॉ. शिवतोष दास, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली १९८३
अल्मा  कबूतरी में सामाजिक यथार्थ-एम.फिल शोधप्रबंध-२००८-अर्पणा दीप्ति 



बुधवार, 26 सितंबर 2012

इतिहास एवं समय की दस्तक ....कितने पाकिस्तान?


इतिहास एवं समय की दस्तक ....कितने पाकिस्तान?

हिंदी के तमाम उपन्यासकारों की श्रेणी में युगचेता कथाकार कमलेश्‍वर का उपन्यास ’कितने पाकिस्तान’ समकालीन उपन्यास जगत में मील का पत्थर साबित हुआ है। इस उपन्यास ने हिंदी कथा साहित्य तथा साहित्यकारों को वैश्विक रूप प्रदान किया। विष्णु प्रभाकर के अनुसार "कमलेश्‍वर ने उपन्यास के बने बनाए ढाँचे को तोड़ कर लेखकीय अभिव्यक्ति के लिए दूर्लभ द्वार खोलकर एक नया रास्ता दिखाया।" इस रचना में लेखक ने इतिहास और भूगोल की सीमाओं को तोड़ने का प्रयास कर मनुष्य की वास्तविक समस्याओं एवं चिंताओं को सामने रखने का सफल प्रयास किया है। इस पुस्तक के प्रथम संस्करण की भूमिका में कमलेश्‍वर ने लिखा है कि ’मेरी दो मजबूरियाँ भी इसके लेखन से जुड़ी है। एक तो यह कि कोई नायक या महानायक सामने नहीं था, इसलिए मुझे समय को ही नायक, महानायक और खलनायक बनाना पड़ा।’ इस उपन्यास ने आज के टूटते मानवीय मूल्यों को सँजोने तथा दहशत की जिंदगी में मानवता की खोज की है।

       कमलेश्‍वर ने इतिहास की गहराई में जाकर तथ्यात्मक सामग्री एवं वर्क के आधार पर तटस्थता और निष्पक्ष रूप से बँटवारे की समस्या का हल ढूँढकर नवमानवता की कल्पना को साकार रूप प्रदान करने का प्रयास किया है। आज के दहशतवाद और पूँजीपतिवाद की दुनिया से नवमानवतावाद रूपी हीरे की तलाश की है जो केवल अपने चमक के बलबूते पर दुनिया को अचंभित करता है। 

       धर्म मनुष्य को सच्चाई एवं मानवता की राह दिखाता है। पर धर्म के ठेकेदारों ने धर्म की राह  को पूरी तरह बदलकर इसका प्रयोग स्वार्थ सिद्धि के लिए किया। इस संदर्भ में धर्म सच्चाई एवं मानवता का मार्गदर्शक न होकर कट्‍टरता एवं क्रुरता का प्रतीक बन गया। भारत का इतिहास गवाह है कि इस विशाल महाकाय देश का बँटवारा भी धर्म ने ही किया है। अगर इस धार्मिक कट्‍टरता को नहीं रोका गया तो पाकिस्तान बनने का सिलसिला यूँ हीं चलता रहेगा।

        ’कितने पाकिस्तान’ एक ऎसे समय की सच्ची दास्तान है जब धार्मिक उन्माद ने लाखों हिंदू-मुसलमान के खून की नदियाँ बहाई, उनके घर लूटे एवं जलाए गये तथा माँ-बहन एवं बहू-बेटियों के आबरू लूटे गए। ये जख्म इतने गहरे थे कि इसे न हिंदू भूल पाए न ही मुसलमान। पाँच हजार वर्ष की सभ्यता एवं संस्कृति को फिरंगियों तथा सौदागरों ने रेगिस्तान बना दिया एवं जाते-जाते भारत के सीने में विभाजित पाकिस्तान रूपी खंजर भी भोंक दिया। भारत में जो भी विदेशी आए भारतीय सभ्यता ने उनको आत्मसात किया। मुसलमान आए उन्हें अपना धरती पुत्र मानकर भरण-पोषण किया किंतु आगे चलकर वे शासक बन बैठे, इसे भी स्वीकार किया। इतिहास इस बात का गवाह है कि मुगल शासकों ने सत्ता के लोभ में अपने ही परिवार के लोगों का कत्लेआम किया। कमलेश्‍वर ने इसे आधार बनाकर बाबर से लेकर औरंगजेब के क्रूर काल को गवाह के रूप में उपस्थित कर उन मुर्दों को इंसानी समय के अदालत में पेश किया जिन्होंने भारतीय इतिहास और संस्कृति को एक नया मोड़ दिया। वस्तुतः हिंदू-मुस्लिम झगड़े की नींव बाबरी मस्जिद में छिपी थी। "बाबर बर्बर था! दरिन्दा था... उसने आते ही अयोध्या में हमारा रामजन्म भूमि मंदिर तोड़ा था और वहीं बाबरी मस्जिद बनबाई थी। पाकिस्तान बनना तो उसी दिन से शुरू हो गया।"(पृ.सं.६६)  कमलेश्‍वर ने इस बात को सामने लाने का प्रयास किया है कि हम बाबर को बड़ा गुनाहगार मानते है किंतु झगड़े का जड़ बाबर न होकर इब्राहिम लोदी था। इस झगड़े ने १९४७ तक आते-आते देश के अखंडत्व को खंडित कर दिया।

      कमलेश्‍वर ने इतिहास के उस समय का बयान लिया है जहाँ मानवता बार-बार कराह रही थी। अत्यंत बर्बरता एवं कट्‍टरता के साथ मानवता को सूली पर चढ़ा दिया गया। "औरगंजेब अगर अकबर के रास्ते पर चला होता तो आज हिंदुस्तान का ही नहीं दुनिया का नक्शा दूसरा होता और इस्लाम  विश्व धर्म की एक सर्वव्यापी शक्ति का अगुआ होता, लेकिन औरंगजेब यह नहीं कर पाया...।" (पृ.सं.१३३) बर्बर बादशाह औरंगजेब ने सत्ता के हवस में अपने पूरे परिवार को जीते जी सूली पर लटका दिया। दाराशिकोह जैसे मानवतावादी भाई को काफिर कहकर सिर धड़ से अलग कर दिया लेकिन दाराशिकोह फिर भी जनता के नजरों में जनराजा ही बना रहा। "हर समय ऎसे ही होते रहा है कि हर सदी में एक दाराशिकोह के साथ एक औरंगजेब भी पैदा होगा। इस दस्तूर को बदलना होगा, नहीं तो मेरे साथ-साथ तुम सबका भविष्य भी डूब जाएगा।.....अगर मैं मर गया तो तुम्हारे सारे सपने समाप्त हो जायेंगे।" (पृ.सं.२५२) कमलेश्‍वर ने इस बात पर चिंता व्यक्त किया है कि यदि हमनें इस सच्चाई के साथ झूठे दस्तूर को नहीं बदला तो कल हमारे अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह उपस्थित हो जाएगा, हमारा भविष्य अंधकारमय होगा। औरंगजेब ने जिसका सहारा लेकर सत्ता भोगी वही राह अंग्रेजों ने चुनी और हिंदू-मुसलमान को लड़वाते रहे।

       भूख और अपमान दुनिया के दो मूल दुख हैं लात पेट पर परे या पीठ पर चोट बराबर लगती है। वस्तुत: भूखा रखना भी एक राजनीति है घर में और घर के बाहर भी। यदि भर पेट भोजन मिले तो संभव है, मन मस्तिष्क स्वस्थ होकर अपनी सामाजिक स्थिति पर विचार करे। समता और क्षमता का प्रश्न उठ खड़ा हो। भारतीय जनमानस को कंगाल बनाकर अंग्रेजों ने भूख, जाति और नस्ल की राजनीति बखूबी खेली। अंग्रेज भिखारी की तरह आए और यहाँ की तमाम जनता को भिखारी बनाकर चले गए। जाते-जाते देश के दो टुकड़े भी कर गए। लेखक ने अंग्रेजों की इस मनोवृति पर करारा प्रहार किया है। "इन अंग्रेजों के बच्चों को सोचना चाहिए ... सदियों पहले सौदागर की तरह सलाम करते आए थे, वैसे ही सलाम करो और अपने मुल्क लौट जाओ पर.... जो कमा लिया वो तुम्हारी किस्मत ले जाओ पर... जो हमारा वो तो खुशी-खुशी छोड़ जाओ।" (पृ.सं.२८७)
        इस देश की विडंबना यह रही है कि माउंट बेटेन तथा उनके सहायकों ने जिस देश की सभ्यता, संस्कृति और इतिहास को न कभी देखा और न जाना तो देश का बँटवारा किस आधार पर किया।  "वर्ग तो बड़ा यथार्थ है ही पर जाति, लिंग, नस्ल और धर्म भी शोषण के भयावह हथियार रहे हैं।"(स्त्री-मुक्ति:साझा चूल्हा ; अनामिका ; पृ.सं.९) सच्चाई तो यह है कि अंग्रेज विभाजन चाहते थे। इस तथ्य से जिन्ना भी अवगत थे कि अंग्रेजों के चले जाने के बाद पाकिस्तान नहीं मिलेगा। इसलिए मजहब की नस्ल का बखूबी उपयोग कर नफरत का पाकिस्तान बना "वक्त गवाह है जिन्ना की नसों में बहता खालिस हिंदुस्तानी खून जम गया था और उन्होंने एकाएक महसूस किया था कि आपसी जिदों छोटे-छोटे अपमानों और प्रतिस्पर्धात्मक अहंकार से जन्मी खालिश कैसे एक चुनौती बन जाती है और वह कौम के सपनों को तोड़ कर जाती एक मुकाबले को छुपाते हुए, अपने तरफदारों को कैसे एक विकलांग और धर्मांध सपना सौंप देती है।" (पृ.सं.५६) वस्तुतः वे भूल चुके थे कि नफरत की बुनियाद पर कोई भी मुल्क अधिक दिनों तक नहीं टिकता। पाकिस्तान एक मजहबी उसूलों की मिसाल ही तो है। मजहब के नाम पर लुटा गया एक इलाका! जिस मुल्क कहा गया। मुल्क तो टूटेगा, टूटकर रहेगा और वही हुआ बांग्लादेश का जन्म! जिन्ना को कामयाबी मिली! विभाजन हुआ पर क्या मिला आम आदमी को, उनके नसीब में तो भीख माँगना ही लिखा था। विभाजन के बाद बचा क्या सिवाय भूखमरी एवं बेरोजगारी के? "यही तो दो हिस्सों में बँट गए। भिखमंगे कबीर की विरासत है और तकसीम हो गए मुल्कों का नसीब बँटवारे ने मानवता को दफन कर दिया। यह दफन की परंपरा औरंगजेब से आज तक हम सँजोये हुए हैं। बदले की भावना तीव्र से तीव्रतर होती गयी। मजहब की आग ने चिंगारी का रूप लेकर इंसानियत का हवन किया है। जब तक हम मजहब के नफरत को दफनाएँगे नहीं, तब तक मानवतावादी विश्व नहीं बनेगा।"(पृ.सं.२५८)  इनसान की पहचान मजहब के सहारे करने की इच्छा मनुष्य में बलवती हो रही है। इनसान और इनसान की कुदरती पहचान के बीच यह हिंदुस्तान और पाकिस्तान,सीरिया, लेबनान जैसे नाम कहाँ से आ जाते हैं? अब तक हमने कई आघात सहे हैं अगर इस नफरत की आग को अभी भी नहीं रोका गया तो अनेकानेक पाकिस्तान का जन्म होगा। विश्व के अधिकतर देशों में नफरत का एक पाकिस्तान बनाने की कोशिश जारी है! क्या हुआ बोस्निया में? क्या हुआ साइप्रस में? क्या हुआ तब के टूटे सोवियत युनियन में और अब के बने रशियन फेडरेशन में? क्या हो रहा है आज के अफगानिस्तान में? हर व्यक्ति नफरत के सहारे अपने ही लोगों के खिलाफ एक दूसरा पाकिस्तान को जन्म देने की तैयारी कर रहा है। विश्व का इतिहास इस बात का गवाह है कि पाकिस्तान से पाकिस्तान पैदा होता है। पता नहीं आज की मानवता किस दिशा में कदम बढ़ा रहा है। अपने ही लोगों के खिलाफ लड़कर सफलता के कौन से शिखर को छूना चाहता है! मजहब के सहारे नए देश का निर्माण की यह भूख वड़ा ही वीभत्स रूप लेगी। जब तक धर्म, जाति एवं नस्ल की सर्वोच्चता तथा विश्व शक्ति बनने का नशा नहीं टूटता तब तक दूसरा पाकिस्तान बनने का सिलसिला यूँ चलता रहेगा। परिणामस्वरूप वही होगा जो नागासाकी और हीरोशिमा में हुआ था। धर्म और सत्ता को सियासी कानून के लिए नफरत में बदला जाता है तो एक नहीं तमाम पाकिस्तान पैदा होते हैं। कमलेश्वर बार-बार यह कह रहे हैं कि अगर हमनें समय की दस्तक और मानवता की कराह को नहीं सुना तो बहुत महँगा पड़ सकता है। जितना जो कुछ टूट गया है उसे भूल जाँए जो बेहतर जो टूटने के बाद बचा है उसे टूटने से बचाएँ। देश इंसानियत के आधार पर बने न कि धर्म के आधार पर। जरूरत से ज्यादा इस दुनिया का बँटवारा हो चुका है अब और नहीं।

       विगत तिरसठ वर्षों का इतिहास गवाह है कि हिंदुस्तान में पाकिस्तान से ज्यादा मुसलमान हैं और पाकिस्तान से ज्यादा इस्लाम समझने वाले लोग हैं। हिंदुस्तान इन मुसलमानों को अपना धरती पुत्र मानकर सहेजे हुए है। इस देश ने धर्मनिरपेक्षता की नई संस्कृति का पाठ पूरे विश्व को सिखाया है। यहाँ की विविधता में एकता, सामयिक संस्कृति ने विश्व के सामने एक नया आदर्श उपस्थित किया है।

       कमलेश्‍वर ने बड़े ही कठोर शब्दों में अंग्रेजों के कूटनीति का भी पर्दाफाश किया है। अंग्रेजों ने व्यापार के साथ अपनी आत्मा को मुक्ति देने का झूठा नाटक किया। आत्मा मुक्ति का अभियान इन पांखडियों ने घोड़ों पर बारूद लादकर किया। वास्तव में ये तो आत्माओं को गुलाम करने निकले थे। इनके इसी हवस ने पुरातन सभ्याताओं को ध्वस्त किया। अगर इतिहास के पन्नों को खंगाला जाए तो बौद्ध धर्म भी भारत से निकलकर समस्त एशिया में फैला था लेकिन कहीं भी खून की एक बूंद तक नही गिरी। बौद्ध साधु घोड़ों पर चढ़कर बारूदी आक्रमण करने वाले योद्धा नहीं थे। वे हिमालय जैसा पर्वत पैदल पार कर चुके थे। उनके हाथ में भाले, तलवार और बंदूकें नहीं थीं। उनके पास था शांति, अहिंसा और करूणा का संदेश एंव हाथ में बौद्धि वृक्ष।

       कमलेश्‍वर ने वर्तमान में बढ़ता हुआ बाजार, मुक्त व्यापार के नाम पर नव साम्राज्यवाद की स्थापना पर भी गहरी चिंता व्यक्त किया है। भुमंडलीकरण के इस दौर में मानवता तो नदारद हो गयी है। विदेशी सौदागरों की जमात ने अपना साम्राज्य फैलाकर हिंदुस्तान को जकड़ लिया था, वे ही फिरंगी अब विश्व को अपने शिंकजे में लेना चाहते हैं। सभी को ज्ञात है कि बाजार के लिए ही साम्राज्य बनाए जाते हैं एवं बाजार की नाभि साम्राज्य से जुड़ी होती है। इस साम्राज्य का मुख्य आधार है बाजार ! बाजार! और बाजार!  वर्तमान दौर में इसका नाम बाजारवाद है। बाजारवाद के नाम पर फिर से नये जाल फैलाकर मानवता की आत्मा को गुलाम बनाया जा रहा है। क्या हुआ जापान के उस दो नगरों का जिनको अणु परीक्षण करके उड़ा दिया गया। आज भी हीरोशिमा की कराह सुनाई देती है। "मेरे ऊपर जो परमाणु बम गिराया था वह दुर्घटना नहीं युद्ध समाप्त करने के नाम पर सोचा समझा परीक्षण था। मानव जाति पर किया गया जघन्य आक्रमण.... अरे दरिंदो ! देखो मेरे इस क्षार-क्षार हुए शरीर को। नागासाकी के क्षत-विक्षत भूगोल को, माँ के कोख में विकलांग हो गई संतानों को, प्रचण्ड तापमान में पिघलकर वाष्प की तरह उड़ जाने वाले लाखों मनुष्यों को, जल-जलकर मुँह तक आकर न निकलने वाली मृत्यु की चीत्कारों की .... घुटती साँसों में दम तोड़ती बेबस उसाँसों को, हिचकी लेती हिचक-हिचक करती जिंदगी को, देखो मुझे मैं हीरोशिमा हूँ। मैंने खुद झेला है मानव विनाश के मृत्यु को। परमाणु नाभकीय संकट को जन्म देने वाले जितने अपराधी हैं, मैं उन्हें उनकी कब्रों में चैन से सोने नहीं दूँगा। वे सभी वैज्ञानिक चाहे फ्राँस के हो या जर्मनी, ब्रिटेन या रूस के वे मानवद्रोही और जघन्य अपराधी हैं इन्हें कब्रों मै चैन से सोने की ऎय्याशी बख्शी नहीं जा सकती।"(पृ.सं.३०५) भौतिक विकास के नाम पर काफी नुकसान किया जा रहा है। आज संसार की तमाम प्रयोगशालाओं में भीषणतम मौत का उत्पादन शुरू करने की होड़ लगी हुई है। सफल परीक्षण के बाद अब युद्ध में रत राजनीतिक सत्ताएँ मौत का थोक उत्पादन करना चाहती हैं। कुछ करना होगा नहीं तो ब्रह्मांड से पृथ्वी का नामोनिशान मिट जाएगा, क्योंकि, सृष्टि के नियमों के अनुसार जो जन्म लेता है वह मरता है, जो जिस काम के लिए बना है उसे वह पूरा कर जाता है, वैसे ही परमाणु बम जो बना रहें है वह शांति के लिए न होकर विध्वंस के लिए ही है, जितने भी बम बनेंगे वे सब के सब इस पृथ्वी को नेस्तानाबूद करने के लिए काफी हैं।

       अंत में यही कहा जा सकता है कि हम उस भयावह विभाजन को रोकने में कामयाब नहीं हो पाये पर अब हमें मजहब का, बाजार का, व्यापार का तथा परमाणु परीक्षण का नकाब पहनकर मौत का मंजर तैयार करने वालों को बेनकाब करना जरूरी है। भले ही देश का बँटवारा सरहद से हुआ है पर मानवता तथा नैतिकता को दुनिया की कोई भी सरहद विभाजित नहीं कर सकती। इसलिए मानवता तथा नैतिक मूल्यों का जतन करना आज की प्रमुख माँग है। जिससे मानवता एवं भाईचारे का बीज पुनः अंकुरित हो जाए। बौद्धिक विमर्श पर लिखा गया इस उपन्यास को आखिरकार कहीं रूकना तो था सो रूक गया पर मन का जिरह अभी भी जारी है। हालॉकि अच्छी पुस्तकें हर काल में सामने आती हैं, आती रहेंगी, इस पुस्तक के लिए यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि जिस मुकाम पर यह पहुँची है, वहाँ हमेशा बनी रहेगी। 

        

अर्पणा दीप्ति
समीक्षित कृति : कितने पाकिस्तान
लेखक  :  कमलेश्वर
 संस्करण-२००८
प्रकाशक: राजपाल एंड सन्ज,
कश्मीरी गेट नई दिल्ली-०६



सोमवार, 27 अगस्त 2012


आत्म सत्य का औपन्यासिक दस्तावेज : कस्तूरी कुडंल बसै

अर्पणा दीप्ति

हिंदी कथा-लेखन के क्षेत्र में जिन कतिपय महिला लेखिकाओं ने सर्वाधिक ख्याति अर्जित की है उनमें मैत्रेयी पुष्पा एक सम्मानित नाम है। १९९० में प्रकाशित ’स्मृति दंश’ तथा १९९३ में प्रकाशित ’बेतवा बहती रहे’ जैसे उपन्यासों के माध्यम से पुरुष वर्चस्व प्रधान समाज में अत्याचार झेलती स्त्री की करूण गाथा प्रस्तुत की तो १९९४ में ’इदन्नम्म’ में उस करूणा को जुझ और संघर्ष में बदलते हुए दिखाया। १९९७ में प्रकाशित ’चाक’ की नायिका सारंग नैनी शोषण और अत्याचार को चुनौती देने के लिए ग्रामीण राजनीति में प्रवेश करती है एवं ’झूलानट’ की शीलो विवाह संस्कार की निरर्थकता को समझकर अपनी नियति को बदलने वाली अद्‍भुत जिजीविषा संपन्न स्त्री है। २००० में प्रकाशित ’अल्मा कबूतरी’ में लेखिका ने सभ्य कहे जाने वाले असभ्य और बर्बर समाज का तल्ख चित्रण किया है। विजन, अगनपाखी और औपन्यासिक आत्मकथा ’कस्तूरी कुडंल बसै’ २००२ में पुरुष समाज की रूढ़ियों से तय की गई नियति के प्रति स्त्री का विद्रोह एक स्पष्ट विमर्श के रूप में उभरकर सामने आया है।

      जैसा कि इस उपन्यास के आवरण पर लिखा है ’हर आत्मकथा एक उपन्यास है और हर उपन्यास एक आत्मकथा।’ दोनों के बीच सामान्य सूत्र है ’फिक्शन’। जो तत्त्व किसी आत्मकथा को श्रेष्ठ बनाता है वह है उन अंतरंग और लगभग अनछुए अकथनीय प्रसंगों का अन्वेषण और स्वीकृति जो व्यक्ति की कहानी को विश्‍वसनीय और आत्मीय बनाते हैं। हिंदी साहित्य में महिला रचनाकारों की गिनी-चुनी आत्मकथाएँ ही सामने आई हैं। इन्हें पढ़ते हुए कबीर की उक्ति ’सीस उतारै भूंई धरै’ की याद आती है यह साहसिक तत्त्व ’कस्तूरी कुडंल बसै’ में दिखाई देती है। 

      ’कस्तूरी कुडंल बसै’ अपने लिए जगत बनाती विद्रोही स्त्री कस्तूरी के जीवन संघर्ष  की दास्तान है। पुरुष वर्चस्वीय सामाजिक बंधन में, स्वतंत्र और आत्मनिर्भर होने के प्रयास में स्त्री को किन-किन समस्याओं से गुजरना पड़ता है, स्त्री के इसी जद्‍दोजहद का आख्यान इस उपन्यास में प्राप्त होता है। कस्तूरी अभावग्रस्त ब्राह्मण परिवार की छोटी लड़की है। संग सोने और बैठने की शर्त पर जो खाने ओढ़ने का प्रबंध करता है, वह पति है। ऎसी रूढ़िगत मर्यादाओं के तहत कस्तूरी की मर्जी के खिलाफ उसकी शादी बूढ़े एवं बीमार हीरालाल से हो जाती है। पति के मौत पर रेशम कुँवर की तरह सती होने के बजाए वह ढ़ाई मील दूर इग्लास की पाठशाला में पढ़ने जाती है। डेढ़ साल की बच्ची को बूढ़े और अपाहिज ससुर को सौंपकर वह निडर अपनी राह बनाती है। इस निडर, बहादुर, दृढ़ संकल्पी माँ की बेटी के रूप में मैत्रेयी, इस उपन्यास में अपनी अलग भूमिका निभाती है।
      उपन्यास का आरंभिक वाक्य है- ’मैं ब्याह नहीं करूँगी’ सोलह वर्षीय लड़की कस्तूरी का यह वचन माँ के कानों पर धमाका मारता है। रात में अपनी चाची द्वारा पूछे जाने पर वह कहती है-"डर! डर ही तो लगता है ब्याह से बड़ा डर लगता है।" (पृ.सं.१०) ये दोनों वाक्य विवाह रूपी संस्था की संरचना में जो खोखलापन और खोट है, इसकी ओर इशारा करते हैं। अंतत: सामाजिक मान-मर्यादाओं के पालन, कुल परिवार की हिफाजत के लिए विवश होती कस्तूरी की शादी हीरालाल से होती है।

      ससुराल में मुँह दिखाई रस्म में औरतों से वह चिढ़ जाती है। एक बूढ़ी का कथन उसे आतंकित करता है-"ओ आठ सौ की घोड़ी, तू मुँह नहीं दिखाती तेरी यह मजाल! कस्तूरी सब कुछ समझ लेती है कि ब्याह के नाम पर जो खरीददारी चलती है, उसमें वह कैसे बिकाऊ चीज बन गई है। वह खरीदी गयी घोड़ी से ज्यादा कुछ नहीं, यह सोचते ही घोड़ी घूँघट नहीं मारा करती, झटके से घूँघट उतार फेंका। औरतें सन्न रह जाती हैं।"(पृ.सं.१७) औसत भारतीय स्त्री की भूमिका अदाकर अपने आपको गुलामी के बोझ तले दबाना वह पसंद नहीं करती। असल में रीति रिवाजों और आचार-व्यवहार के व्यवस्था के समर्थन में बेटियों को ’कंडीशनिंग’ करने में माँ रूपी ’सिस्टम’ का बड़ा हाथ है। 

      कस्तूरी औसत नारी के रूप में जीवनयापन करना नहीं चाहती। अपने पति की मृत्यु के पश्चात घर की सारी जिम्मेदारी कस्तूरी पर आ जाती है। ऎसे में एक जोखिम भरा निर्णय कस्तूरी के पढ़ाई का प्रण। "बिना घूँघट के बहू हाथ में किताब कापी भरा झोला"(पृ.सं.३०) लोग जो चाहे सोचे, कस्तूरी बेफिक्र है। आत्मविश्‍वास से भरा पूरा निर्णय। स्त्री मुक्ति के दौर में अपमान और शोषण के खिलाफ लड़ने के लिए लड़ैत और कठकरेज होना आवश्यक है। "नंगे पाँवो रास्ता नापती स्त्री की सारी दौलत किताब-कापियाँ हो गईं, जिन की झोली लटकाए वह सूरज और चंद्रमा के साथ समय की परिक्रमा करती रही और धरती के सारे दोषों से दूर होती जाती।"(पृ.सं.३२)

      पितृसत्तात्मक समाज की स्त्री के प्रति जो अनीतियाँ हो रही हैं, उसकी शिकार रही कस्तूरी उनके विरोध की शक्ति अर्जित करती है उसके लिए शिक्षा ही एकमात्र उपाय रहा। अपने पैरों पर खड़े होने की अदम्य आकांक्षा उसे अब मुसीबतों को झेलने के लिए सुसज्जित करती है। आत्मनिर्भर होने का यह निर्णय उसके परिवार की भलाई पर लक्षित है। अति संकटपूर्ण रास्ते से वह अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए कटिबद्ध है। "यह राँड क्या हुई, साँड हो गई। न बच्ची पर ममता न बूढ़े ससुर का रहम। पढ़ाई-लिखाई का भजन करती हुई दोनों को रौंद रही है।"(मिथिला की लोकोक्ति का अनुवाद) यह गाँव की स्त्रियों की प्रतिक्रिया है। लेकिन पढ़लिखकर जब वह नौकरी पा जाती है तो उनकी नजर में देवी बन जाती है।

     ’कस्तूरी कुडंल बसै’ की आरंभिक टिप्पणी में लेखिका कहती है, "यह हमारी कहानी है। मेरी और मेरी माँ की। आपसी प्रेम, घृणा, लगाव और दुराव की अनुभूतियों से रची कथा में बहुत सी बातें ऎसी हैं जो मेरे जन्म के पहले घटित हो चुकी थी, मगर उन बातों को टुकड़े-टुकड़े में माताजी ने जब तब बता डाला इसकी फलश्रुति स्वरूप यह उपन्यास पाठकों के सामने है।" कस्तूरी और मैत्रेयी के बीच के संबंधों में जो कुछ घटित होता है, उसके द्वारा जो कथा-विस्तार संभव होता है, असल में स्त्री अस्मिता के तहत होनेवाली आकांक्षाओं और संवेदनाओं का आख्यान है यह। ’कस्तूरी कुडंल बसै’ एक कठकरेज लुगाई के रूप में बेरंग कपड़े, उजरा सूना चेहरा, नंगे बूचे हाथ, बैरोनक खुरदरे पाँव कस्तूरी का यह रूप दरसल में स्त्री के साज शृंगार के खिलाफ एक मुहिम है। "सुख पति के जमाने में क्यों नहीं था ? इस सवाल से कस्तूरी अक्सर जुझने लगती है। स्त्री के जीवन में बचपन से लेकर म्रुत्युपर्यंत पुरुष का साया ही सुख माना जाता है जबकि उसको कभी सुरक्षा तक महसूस नहीं हुई।" (पृ.सं.३५) क्या ये मान्यताएँ कस्तूरी के संदर्भ में झुठी थी या फिर मान्यता केवल मानने भर तक ही सीमित थी?

      कस्तूरी स्त्री संघर्ष का जो बीड़ा उठाते है उसे कहीं अंजाम पर पहुँचा देने में वह सफल होती है। उसे अपनी बेटी पर बड़ी आशा-अभिलाषाएँ थी- वह स्त्री के सशक्तिकरण की मशाल अपने हाथ में ले लेगी। लेकिन यह गलत साबित हुआ। बी.ए. में पढ़ने वाली मैत्रेयी माँ से कहती है-"माताजी मेरी शादी करा दो।"(पृ.सं.५८) कस्तूरी के सारे सपने, संकल्प टूट जाते हैं। कस्तूरी चाहती है कि उसकी बेटी पढ़ लिखकर स्वावलंबी बने। पुरुष सत्तात्मक समाज के दकियानूस आचार-विचारों के खिलाफ लड़ती कस्तूरी बेटी की परवरिश में असफल हो जाती है। "कस्तूरी के जीवन में बहुत शोरगुल मचे हैं, मगर ऎसा हंगामा कभी हुआ नहीं। तब भी नहीं हुआ जब वह विवाह के योग्य लड़की थी और घरवालों ने उसे दो पीतल के कलशों के तरह ही बेच दिया था, कलशे बनिया को कस्तूरी आदमी को। इसके बाद भी नहीं, जब मुँह दिखाई के समय औरतों ने उसे आठ सौ में खरीदी घोड़ी कहा था। उस दिन भी नहीं जब बीस दिन जीकर उसका बेटा मर गया था और उस रात को पति उसी घर में पर स्त्री के संग.... तब भी नहीं जब पति का स्वर्गवास हो गया और तब भी नहीं जब भाई दिलासा देने की जगह लूट मचाने लगा। इतनी  इतनी विपदाएँ टूटीं वह न दहलीं न हिलीं। फिर आज क्या हुआ? क्या उनके जीवन में मैत्रेयी ही सबसे बड़ा स्थान पा गई है?"(पृ.सं.११४) बढ़ती उम्र में बेटी के लिए माँ की ओर से जो कुछ शारीरिक और मानसिक विकास के लिए आवश्यक है, वह सब ढ़ोने में कस्तूरी पराजित हो जाती है। वह अपने जीवन संघर्ष में यह भूल जाती है कि स्त्री के रूप में एक ’करेक्टर कोड’ जो माताएँ अपनी बेटियों को बचपन से देती आ रही है, वह चाहे गलत हो या सही उसे देने में कस्तूरी पिछड़ती रही।

      मैत्रेयी के व्यक्तित्व निर्माण में माँ के रूप में कस्तूरी का रोल कहाँ तक सही रहा, यह सोचने का विषय है। बचपन से ही माँ की ममता और प्यार से मैत्रेयी वंचित रही। पढ़ाई-लिखाई में उसकी रूचि नहीं रही। ग्रामीण परिवेश में अनियंत्रित और बेसहारा मैत्रेयी के लिए जीवन संघर्षपूर्ण रहा। माँ अपनी तरह बेटी अपनी तरह। मैत्रेयी के लिए बड़ी समस्या यह रही कि वह लड़की है। कस्तूरी ने जिस जगह में रहकर मैत्रेयी के लिए पढ़ने का इन्तजाम किया वहाँ उसका अपना कोई नहीं था। इस स्थिति में उसका बिगड़ जाना स्वाभाविक था। बचपन से वह जिन पुरुषों के संपर्क में आई, इन सबने उसका शोषण किया। साइकिल वाला जगदीश से लेकर डी.बी. कॉलेज के प्रिन्सिपल तक। इसी परिवेश में मैत्रेयी माँ से अपनी शादी की अपील करती है।

      बेटी के लिए वर की तलाश में निकली कस्तूरी के सम्मुख बहुत सारी मुसीबतें खड़ी होती है। पहले ही हमारा समाज ब्याह जैसे सामाजिक रस्मों के प्रति सामंती मूल्य मर्यादाओं का पक्षपाती है। लेकिन मैत्रेयी के प्रसंग में माँ कस्तूरी प्रगतिशील विचारधारा की स्त्री है। वह ग्रह, कुंडली तथा खानदान के बदले लड़के की डिग्री और पेशे के बल पर शादी करा देना चाहती है। किंतु एक विधवा होने के नाते और अपने नये विचारों के नाते कस्तूरी को जगह-जगह अपमानित होना पड़ता है। इंजीनियर अयोध्या प्रसाद के साथ शादी तय होती है किंतु मैत्रेयी के स्वस्थ विचार पर वह रिश्ता टूट जाता है। और अंत में डाक्टर के साथ शादी हो जाती है। लेकिन यहाँ विडंबना यह है कि लड़की को देखे बिना डाक्टर ब्याह के लिए हाँ कर देता है दहेज के बारे में वह बेफिक्र है। क्योंकि मैत्रेयी इकलौती बेटी है, यह उसको पता है। यहाँ शोषण का तरीका बिल्‍कुल साफ है, किंतु सलीके से किया जाता है।

      उपन्यास के आरंभ में कहा गया है कि हम माँ बेटी की कहानी है। किंतु इसमें माँ और बेटी का चरित्र बिल्कुल अलग है। जहाँ माँ एक तरफ स्त्री की स्वतंत्रता और अस्मिता की मुहिम चलाती रही है तो वहीं दूसरी ओर बेटी इसके विपरीत विवाह संस्था की सुरक्षा में आकर्षित होकर पूर्णता और आत्मविस्तार की कामना करती है। माँ की ममता और प्यार की अभाव में बचपन से पलती आयी मैत्रेयी का पुरुषों से कोई परहेज नहीं रहा। उनके लिए जीवन की सारी चेतना और विद्रोह प्रेम एवं देह संबंधों के इर्द-गिर्द घूमता रहा। कहीं अन्यत्र लेखिका कहतीं हैं "श्‍लीलता की रक्षा के लिए मैं जिंदगी तबाह कर दूँ, ऎसा दबाब मानने से मैं इनकार करती हूँ" (सुनो मालिक सुनो, लक्ष्मण रेखा की चुनौतियाँ, पृ.१) 

        ’कस्तूरी कुंडल बसै’ स्त्री पक्षधरता के उपान्यासों में ऊँचा स्थान अलंकृत करता है। स्वतंत्रता, समता, स्वत्वानवेषण और स्वालंबन की जो चर्चा स्त्री मुक्ति आंदोलन के प्रसंग में जोरों पर हो रही है उस वैचारिक मुद्‍दो को अपनी नायिका के जीवन संघर्षों के माध्यम से उजागर करने में मैत्रेयी पुष्पा पूर्णतः सफल रहीं हैं। दो पीढ़ियों  के विचार, मूल्य संकल्पनाएँ, धर्म, जाति, कुलसंप्रदाय आदि धारणाएँ इस उपन्यास में सर्वत्र बिखरी पड़ी हैं।  स्त्री की शक्ति उसके अपने अंदर ही छिपी हुई होती है जैसे कस्तूरी मृग के नाभि में। किंतु इस शक्ति को पहचाने बिना जीवन में जो कुछ घटित होता है उसे नियति मानकर गुलाम की जिंदगी नारी के लिए अभिशाप है। जागो, शक्ति संभालो और जीवन जियो स्त्री के लिए मैत्रेयी का यही संदेश है।





        

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