गुरुवार, 27 दिसंबर 2018

“तुम मिली......जीने को और क्या चाहिए”





था बिछोह दो दशकों का भारी,
विलग हो हुई अधूरी;
बस साँसे थी तन में ,
शक्तिहीन मन-प्राण |

थे कुछ शिकवे और शिकायत ,
उस अनंत सत्ता से ;
बनी फरियादी किया फरियाद ,
याद किया तुम्हें जब-जब ,
नयन-नीर-सजल
अधीर मन प्राण |

हुई आज पुनः सम्बल
पाकर तुमको-
एक क्षण सहसा चौंकी !
कहीं दिवा स्वप्न तो नहीं !!


बातें कर तुमसे बहुत रोई ,
होती जो तुम साथ मेरे ;
मिलकर हम देते जग को नई दिशा,
एक नया क्षितिज एक नया उजियारा ||

हाँ ! वो तुम्हीं तो थी
करती थीं मुझमे नव उर्जा का संचार ;
विलग हो हुई स्वप्न विहीन आँखे |


थे पथ दिशाहीन;
था संघर्षरत तन,
पथ पर थे अंगारे ,
झुलस रहा था मन-प्राण,

काश होती जो तुम ,
पथ के शूल बनते फूल ,
अंगारे देती शीतलता |

उहापोह में नन्हा अंकुर आया भीतर ;
हुआ नाभिनाल आबद्ध ,
हुई ममत्व से सम्बलित |

क्या भुलूँ क्या याद करूं ?
कहाँ-कहाँ से गुजर गई ?
अस्तित्व के जद्दोजहद में,
वय के चार दशक बीत चुके हैं,
पांचवे की दहलीज पर हूँ खड़ी |


शब्द तुम्हारे मैंने सहेजे
बना सम्बल जब-जब टूटी मैं;
अश्रुपूरित नयन पढ़ती थी संदेशा ,
गिरती थी, बिखरती थी, बढ़ती थी आगे ;
बस है यही कहानी ||

तुम नहीं बदली बिल्कुल;
आज भी हो वैसी हीं,
विधि के ये एहसान नहीं कम;
पाया तुमको फिर से

आओ बैठे कुछ क्षण;
मैं बोलूं तुम सुनना ,
दो दशकों का दूँ ;
तुमको लेखा-जोखा,
तुम कुछ अपनी कह लेना;
मैं सुनाऊं सबसे ज्यादा ||

तुम्हारी चंद पंक्तियाँ पुन: तुमको-
“जब याद आए मेरी मिलने की दुआ करना|”

मेरी दुआ कुबूल हुई |

तुम्हारी मानस की चौपाई-
“जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू / सो तेहि मिलहि न कछु संदेहू ||”

और तुम मुझे मिली |

“तुमने कहा था ये बातें सिर्फ दोस्ती के सम्बन्ध में नहीं सपनों के सम्बन्ध में भी लागू होती है , सपने देखना कभी नहीं छोड़ना |”
दिनांक -4-6-1998 (महरानी रामेश्वरी महिला महाविद्यालय छात्रावास दरभंगा)
अर्पणा दीप्ति




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