अजब है कैफियत मन की
बिना बादल बरसता है ,
बिना बोले गरजता है ,
कभी तो राख हो जाता है
कभी ज्वाला कभी चन्दन |
कभी बहता है पानी सा ,
कभी ये आग हो जाता ,
न हो तो कुछ नहीं होता ,
जो हो तो हिमालय हो |
कभी कहता नहीं कुछ भी ,
कभी बेलाग हो जाता है
कभी दिखता है सिंदूरी ,
कभी होता कस्तुरी |
कभी ये मैं भी हो जाता ,
कभी ये तू भी हो जाता,
कि सब कुछ व्यर्थ सा लगता ,
कभी मोह में पड़ता |
नया हर अर्थ सा लगता ,
कभी हंसता है होठों सा ,
कभी नयनों की जलधारा ,
कभी संसार को जीता ,
कभी खुद ही से सब हारा ,
क्योंकि अजब है कैफियत मन की ....
अर्पणा दीप्ति
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