आप बिहार को, बिहारियों को , उसके
पर्व त्योहार , रीति रिवाज को गाली दीजिए, आलोचना करिए, कोई कुछ नहीं कहेगा. बिहारी ही समर्थन करने कूद जाएगा. सबको पोलिटिकली
करेक्ट कहलाना जो है.
बहुत दिक़्क़त है भाई. बिहार ,
बिहारी और छठ से.
होली , दीवाली आते ही भाई लोग क्यों रंगीन हो उठते हैं और जगमगा उठते हैं?
किस पर्व के मूल में स्त्री विरोध
नहीं?
होलिका दहन बंद हो. रावण दहन भी. हम
तो दोनों के विरोधी हैं.
और दीवाली क्यों मनाते हो? सीता के आगमन पर दीये जलाते हो?
कौन लौटा था विजय पथ पर?
हमको कोई विरोध नहीं.
होली मनाना जरुरी है? किसके लिए? किस स्त्री की उपलब्धि पर?
दुर्गा पूजा और गणेश पूजन में नदियों
का क्यों हाल बुरा करते हो?
बहुत आसान है बिहार की आलोचना.
क्योंकि हम सुन लेते हैं और आत्मालोचन करने लगते हैं.
मैं भी मानती हूँ कि हर पर्व के मूल
में स्त्री पक्षधरता नहीं है, उसकी
मुश्किलें हैं. सारा बोझ उसके कंधे पर है.
लेकिन छठ में मैंने जो बचपन से देखा
है, वो अनुभव बता सकती हूँ.
मेरे यहाँ छुट्टी लेकर देश परदेस से
लड़के लौटते रहे हैं.
छठ सहयोग का पर्व है सामाजिकता का |
व्रती में इतना दम कहां कि वो कोई काम कर सके.
सामूहिकता का पर्व इसीलिए कहते हैं
कि काम का बोझ सब पर पड़ता है, सिर्फ
स्त्रियों पर नहीं.
अब आते हैं - छठ के मूल भाव पर.
सूरज की पूजा, प्रकृति की पूजा, फल फूल
और नदी का साहचर्य. सब बढ़िया है लेकिन मूल भाव पुरुष समर्थक था. अब बदला है.
सिर्फ छठ ही नहीं, तीज , जितिया , करवा चौथ इत्यादि.
छठ पूजा अपने परिवार के लिए की जाती है जिसमें पुरुषों के नाम पर अरग देते रहे हैं. मैंने पिछले दस सालों में नियम बदलते देखा है. अब लड़कियों के नाम पर भी अरग देते हैं. जितिया करती हैं माँएँ.
जो धर्म और रीति रिवाज समय के साथ
नहीं सुधरते , उन्हें वक्त ख़ारिज कर देता है,
आप आलोचना का टूल लेकर बैठे जुगाली
करते रहिए. बात सुधार की होनी चाहिए, दुरदुराने
से कुछ नहीं होता.
हर पर्व में , हर पूजा -पाठ में पाखंड है. उन्हें सुधारने की जरुरत है. लेकिन कैसे?
मेरी दोस्त की एक बात हमेशा याद रहती
है- धर्म का सांस्कृतिक पक्ष स्वागत योग्य है.
जिसमें उत्सव है, चमक -दमक और सामूहिकता है.
अब अगली आलोचना क्रिसमस की करेंगे न
आप लोग?
अगले महीने ही है जब सारी दुनिया लाल
सफेद रंगों से ढँक जाएगी.
जिंगल बेल … सुनाई देगा. वहाँ भी एक
पुरुष की वापसी होगी और सारी स्त्रियाँ डिनर बनाएँगी, कुकीज़ बनाएँगी.
सैंटा आएगा …. उपहार बांटने. कितना
बड़ा हसीन फरेब है न ! बच्चे इसी में खुश ! हम उनसे ये ख़ुशियाँ कैसे छीन लेंगे ?
क्रिसमस की सुबह वे अपने सिरहाने टटोलेंगे और
उपहार ढूँढेंगे. उनको सच्चाई तब बता पाओगे?
और हाँ… मैं छठ करती हूँ जितिया और तीज भी ||
जिसको जो अच्छा लगता है, जिसमें खुशी मिलती है, वो करे.
बात जब भी हो, खूबियों और कमियों दोनों पर हो.
पूर्वग्रह से भर कर नहीं।


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