चित्र साभार ;-अनुराग सिंह के कैमरा से
मेरा
मानना है कि छठ महापर्व एक डीटाक्स प्रासेस है मानसिक और शारीरिक दोनों | अंत में
यह कठिन व्रत आपको बिलकुल शांत सरल और तरल कर देता है मानो जैसे आपके भीतर उगी हुई
नागफनी समतल हुई जा रही है हौले हौले ........तमाम नुकीलापन जो आपके वजूद में
मौजूद है, आहिस्ता-आहिस्ता चिकना हुआ जा रहा है |
मुझे आज भी याद है;-आज से पांच साल पहले जब
मैंने छठ शुरू किया यह बिल्कुल अनप्लांड था | मेरी बचपन से आदत है मैं कोई भी चीज
पहले से प्लान नहीं करती हूँ | बस चंद घंटे और मैंने निर्णय लिया मुझे छठ व्रत
करना है | पहली बार छठ करने के बाद मेरी अनुभूति कुछ ऐसी थी मेरे आँख, मन और रूह
को खाद.....पानी मिला हो ! हाँ .....मैं भूख से बेहाल अवश्य हुई थी |
चित्र साभार-डा.पूजा किशोर कुणाल के कैमरा से
इस पर्व को
करते समय मुझे मेरी दादी का मुस्कुराता चेहरा:-सब चीजों को अमनिया(पवित्र) बनाए रखने
से लेकर दौउरा,सूप, सुपली, कुरनी, कोसिया,कसार,ठेकुआ, उखियार (sugarcane) केला, नारियल
मौसम में मिलनेवाले सभी फल तथा सब्जी मटिया सेनुर, पीपा सेनुर के इंतजाम में
व्यस्त अकेली परेशान होती मेरी माँ मुझे याद आती है | उन दिनों में मेरा लड़कपन,अल्हड़पना
या नादानी जो भी कहिए पर्व त्यौहार या लोकरिवाज
में बिल्कुल विश्वास नहीं करती थी | अपनी माँ को परेशान होते देख दादी को पोंगा
पंडिताइन कह देती थी | माँ-दादी दोनों समवेत स्वर में कह बैठती थी ई साधारण पवनी
नहीं है हाथ जोड़ो;धीरज रखो आदित्य बाबा से गोहार लगाओ | हमारे साथ बैठकर गीत गाओ |
हमेशा की तरह इसबार भी कार्तिक मास में छठ
पवनी समाप्त होने के बाद मैं मुड़-मुड़कर छठ घाट को देख रही थी ......लौटते हुए
मैंने घाट पर क्या छोड़ा है ?....... आश्वस्त हूँ कुछ मिट्टी के दीए, फूल-माला चावल
का बना पिसा हुआ अइपन, कुछ हवन की आम की लकड़ियाँ कुछ मूर्ति विसर्जित नहीं की.... पॉली
पैक नहीं.... इतना इकोफ्रेंडली कोई त्यौहार नहीं | बीतता हुआ छठ उदास कर जाता है .....सजे
सूप दौउरा खाली औंधे पड़े हैं........दीए बुझ गए हैं ....मगर कपूर,घी, धूप मिली
हुई; गमगम महकता हुआ छठवाला कमरा जरा सा सूना लग रहा था | छठ गीतों की थकी हुई
टेर..... सुखा हुआ घोरुआ सिंदूर एवं अइपन का कटोरा .....घर में बड़े,बूढ़े या बच्चे के
जमात में हम तीन ही तो हैं जो की अलसाए पड़े हुए हैं |
चित्र साभार;-मणिशंकर सिंह
दादी तो अब हमारे बीच में नहीं है लेकिन छठ के
गीतों से मेरा ख़ास जुड़ाव है एक नास्टेलजिया (nostalgia) से गुजरती हूँ इन गीतों को
सुनते हुए | संझा पराती गाने के लिए फुआ मुझे हमेशा पकड़ने के फिराक में रहती थी ............गीत
की लम्बाई इसके हाईस्केल और धीमे पेस को देखते हुए परिवार के बांकी बच्चे भाग लेते
थे लेकिन मैं इत्मीनान से दादी,चाची के बगल में बैठ उनके चैलेन्ज को स्वीकार करती
थी| आज स्मिता राजन के स्वर में यह गीत सुनकर पुनः यादें ताजा हो गई |
छठ लोक गीत;-आदरणीय स्मिता राजन दीदी
....जाने कौन सा टीस हम सबके कंठ से समवेत फूटता ..... और यह गीत हम सबके बीच
तरल सा बहता रहता | एक और गीत था आदित्य होऊ न सहाय........दीनानाथ होऊ न सहाय |इन गीतों को सुनकर अब ऐसा महसूस होता है
की पानी में खड़ी वह तिरिया मैं हीं हूँ ....अंचरा पसारकर अहिवात की कामना करते हुए
......या फिर गोद गजाधर पूत ....हाँ रूनकी-झुनकी धिया तो नहीं है इस बात का मलाल
आज भी कलेजा को सालता है ......नैहर सासुर की सुख-शान्ति की कामना..... भाई-भतीजा ....मांगती
हुई निर्मल काया से मनसा पूरन की आस लगाए भाव से आदित्य होऊ न सहाय गीत सुनती हूँ | टोका-टाकी के बंधन से आजाद हो चुकी हूँ जिम्मेदारी अब स्वयं के कंधे
पर आन पड़ी है |
अर्पणा दीप्ति
विलक्षण शब्द चित्र
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सादर
जवाब देंहटाएं