शनिवार, 26 जनवरी 2019

“भारतीय इतिहास का लोमहर्षक और काला अध्याय:- दलित महिलाओं द्वारा छाती ढंकने के अधिकार का आन्दोलन १२५ वर्ष तक चला ||”



दुनिया में जाति, धर्म, वर्ण व्यवस्था , लिंग, नस्ल,रंग के नाम पर क्रूर अमानवीय अत्याचारों का लम्बा इतिहास रहा है | भारत में अछूत, अवर्ण, दलित, छोटी जाति  काफी हद तक तक समाज के मुख्य धारा में शामिल हो चुकें हैं | लेकिन कहीं-कहीं अभी भी समाज में इन जातियों को लेकर विक्षिप्त मानसिकता विद्यमान है | हरियाणा के झज्जर में मारी गाय की खाल उतारते दलित की हत्या या फिर गत वर्ष गुजरात के ऊना की लोमहर्षक घटना, जिसमे सरेआम दलित युवक को निवस्त्र कर कार से बांधकर घसीटते हुए लाठियों से पीटा गया | आज भी कई ग्रामीण इलाकों में दलितों को घोड़ी पर न चढ़ने देना, कुँए से पानी न भरने देना तथा सार्वजनिक श्मशान में मृत शरीर को न जलाने देना जैसी प्रथा विद्यमान है |

   अछूत या अस्पृश्य महिलाओं की हालत तो समाज में और भी खराब है | दक्षिण भारत में इन्हें देवदासी के नाम पर ईश्वर को समर्पित किया जाता था और पुजारी वर्ग द्वारा निरंतर इनका यौन शोषण किया जाता था | हालांकि आजाद भारत में इस प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया है और इसके लिए सजा का प्रावधान है | उस समय के तथाकथित समाज में महिलाओं को पुरुषों से कमतर आंका जाता था | पितृसत्ता का मानना था की महिलाओं में पुरुषों से कम दिमाग होता है | शिक्षा उनके लिए वर्जित थी | तत्कालीन समाज में ऐसी अवधारणा थी कि तीन आर (R) अर्थात रीडिंग, राइटिंग और अर्थमेंटिक पढने वाली महिलाएं विधवा हो जाएंगी |

    19वीं सदी के प्रारम्भ में त्रावनकोर राज्य में अवर्ण-अछूत महिलाओं पर एक ऐसा कर लगाया गया जिसके बारे में आज भी सोचकर रूह काँप जाती है | यह भारतीय इतिहास का एक ऐसा काला अध्याय है जिसे जानकार आँखें-आत्मा शर्म  और ग्लानि से भर जाती है | त्रावनकोर साम्राज्य में एज्वा,शेनार,या श्नारस, नाडार जैसे अछूत जाती की महिलाएं थीं जिन्हें सदियों से शरीर के ऊपरी भाग पर वस्त्र पहनने की अनुमति नहीं थी उन्हें कमर से लेकर गरदन तक के उपरी भाग को अनावस्त्र रखना होता था या यूँ कहिये उन्हें छाती ढंकने की अनुमति नहीं थी | अगर इन जातियों में से कोई महिला शरीर के उपरी भाग में कोई वस्त्र पहनना या ओढना चाहे तो उसे राज्य को टैक्स देना पड़ता था | इस प्रथा को मलयालम में “मुलाक्करम” कहा जाता था | लड़कियों के स्तन विकसित होते ही उन पर इस कर की जिम्मेदारी आ जाती थी | वहीं विधवाओं को “मुंडू”  नामका मोटा वस्त्र धारण करना अनिवार्य था |

    इस पर त्रावणकोर राज्य के ‘चेरथला’ गाँव में अछूत ‘एजवा’ जाती की एक साहसी महिला  “नंगेली” ने सन 1803 में मुलाक्करम (brest tax) का डटकर विरोध किया | अपनी अपने शरीर के उपरी हिस्से को अनावृत रखने से इंकार  किया | जब राज्य के कर अधिकारी, जिसे ‘प्रथावियार’ कहा जाता था ने कर के लिए दवाब बनाया तो उस महिला ने अपने स्तन काटकर पेड़ के पत्तों पर रखकर उसे सौंप दिया | अधिक खून बह जाने के कारण एज्वा जाती के उस महिला की मृत्यु हो गई |

      उसका पति चिरुकंदन इस घटना से अत्यंत दुखी हुआ | उसने भी इस कुप्रथा तथा अपनी पत्नी के वियोग में अपनी पत्नी के चिता में कूदकर प्राण त्याग दिए | इस घटना के बाद इस घृणित प्रथा का विरोध शुरू हुआ | कई आन्दोलन हुए तब जाकर राजा ने स्तन टैक्स को समाप्त किया | उस महिला के निवास स्थान का नाम ‘मुलाचिमारम्बू’ पड़ा, मलयालम में इसका अर्थ होता है छातीवाली महिला का निवास | प्रसंगवश केरल के इस चेरथला कस्बे से हमारे आज के नेता ए.के.एंथनी, व्यालार रवि और क्रिकेटर प्रसन्ना आते हैं |

  राजा द्वारा नंगेली से टैक्स वसूली के बदले स्तन काटकर देने की यह घटना 1803 की है | कुछ इतिहासकार मानते हैं कि जब इस टैक्स का व्यापक विरोध शुरू हुआ तो 1812 में टैक्स लेना बंद करा दिया गया लेकिन स्तन ढंकने पर रोक जारी रही | नंगेली के वियोग में उसकी चिता में जलकर मरनेवाला उसका पति पहला सती पुरुष था | आज नंगेली की स्मृति में चेरथला में कोई स्मारक नहीं है जिस जगह पर वह निवास करती थी वह जमीन टुकड़ो में बंटकर कई लोगों की सम्पत्ति हो गई है |

       इस घृणित प्रथा पर पड़ताल करने पर पता चलता है कि इस प्रथा के पीछे सामाजिक वर्ण व्यवस्था थी | निम्न वर्ग की महिलाओं को सार्वजनिक रूप से शरीर का उपरी भाग अनावृत रखना होता था साथ ही वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत कुछ उच्च समुदाय जैसे नायर आदि की महिलाएं अछूतों के सामने शरीर का उपरी वस्त्र धारण कर सकती थीं लेकिन उन्हें नम्बूदरीपाद ब्राहमण समाज के सामने शरीर के उपरी हिस्से का वस्त्र धारण करने की अनुमति नहीं थी |वहीं उच्च नम्बूदरीपाद ब्राह्मण केवल और केवल भगवान की मूर्ति के समक्ष उपरी वस्त्र नहीं पहनते थे |

  महिलाओं को उपरी वस्त्र धारण करने के अधिकार को लेकर निम्नजाति के समुदाय को 125 सालों की लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ी | इस कुप्रथा को निरंतर जारी रखनेवालों के अपने एक तर्क थे | आखिरकार इस घृणित कुप्रथा का अंत हुआ तथा कैसे एक समाज को मानवीय गरिमा मिली, इसका इतिहास जानना समझना और पढ़ना वास्तव में एक अनुभव होगा |

  ब्रिटेन से ईस्टइण्डिया कम्पनी के भारत में आने के बाद ईसाई मिशनरियों का आगमन हो चुका था | वर्ण व्यवस्था की क्रूरता से समाज के निचले तबके की हालत बेहद दयनीय थी | वे मिशनरियों के माध्यम से ईसाई बनने लगे | उस समय के ईसाई समाज में धार्मिक तथा समाजिक रूप से बराबरी, सेवा, और समाजिक समरसता थी |

    इसे लेकर वहां पुराने परम्परा और रीति-रिवाज तथा नवाचार से तनाव और टकराव बढ़ गया | नाडार और एज्वा आदि महिलाओं के हकों के लिए इनके  समाज में बैचेनी थी | लोगों के इस बैचेनी को भांपकर त्रावनकोर के राजा के दीवान कर्नल जान मुनरो ने 1813 में धर्मान्तरित अछूत ईसाई महिलाओं को कमर से उपरी भाग गर्दन तक कपड़े पहनने की इजाजत दे दी | कर्नल जान मुनरो के इस आदेश को उच्च वर्ण के लोगों ने राजा के परिषद में चुनौती दी | तर्क यह दिया गया कि इससे वर्ण-भेद के सामाजिक प्रथा का ताना-बाना टूट जाएगा | नीची जातियां ऊँची जातियों की बराबरी करेगी | अत: इन महिलाओं को कमर के उपर वस्त्र पहनने की अनुमति नहीं दी जा सकती है | उधर अनुमति नहीं मिलने से नाडार ,एजवा जाती की महिलाओं ने ईसाई धर्म स्वीकार करना शुरू कर दिया और उन जैसे लंबे वस्त्र भी पहनना शुरू कर दिया |

  1822 में अछूत ईसाई महिलाओं को सार्वजनिक रूप से बुरी तरह से प्रताड़ित किया गया | मामला फिर से राजा के कोर्ट में गया | प्रश्न था कि पूरा कपड़ा पहनना ईसाई धर्म का अनिवार्य हिस्सा है ? मिशनरी चार्ल्स मिड ने यह साबित किया कि यह जरूरी है | कोर्ट ने बात मान ली और इन महिलाओं को उपरी वस्त्र पहनने की अनुमति मिल गई |

  1827 में फिर से इन महिलाओं को सरेआम प्रताड़ित किया गया | उनके वस्त्र उतारे गये उन्हें बेइज्जत किया गया | मारा-पीटा गया, ईसाई मिशनरी,चर्च और स्कूलों को जलाया गया | मिशनरियों ने त्रावणकोर के राजा से न्याय की मांग की |1829 में त्रावनकोर की रानी ने घोषणा की इन धर्मान्तरित नाडार ,शेनार और एज्वा महिलाओं को कोई राहत नहीं दी जाएगी | अन्य दलित महिलाओं के समान इन्हें भी सामाजिक व्यवस्था में उपरी कपड़े पहनने का कोई अधिकार समाज में नहीं है | समाज में जबर्दस्त बैचेनी थी आन्दोलन हो रहे थे | उधर समाज में ऊपरी हिस्सा ढकने वाले वस्त्रों को पहनने का चलन भी अछूत महिलाओं में बढ़ता जा रहा था और उनपर आक्रमण भी बढ़ते जा रहे थे | मिशनरियों पर भी हमले बढ़ गए | लेकिन कुप्रथा ज्यों की त्यों रही | राजा के तात्कालिक दीवान ने दो टूक शब्दों में कह दिया कि 1829 का रानी का आदेश ही लागू माना जाएगा | ऊपरी वस्त्र पहननेवाले महिलाओं को दंडित किया जाएगा |

  इस आदेश के विरुद्ध लोग पुन: राजा के पास गये | राजा से असंतुष्ट होकर 1859 में (तब देश में कई स्थान पर अंग्रेजों का शासन था) मद्रास के गवर्नर चार्ल्स ट्रेवेलियन के पास मिशनरी के अधिकारी जेम्स रसेल, जान एब्स ,जान काक्स और फ्रेडरिक ने अपील की | अंग्रेज गवर्नर चार्ल्स ट्रेवेलियन ने इस पर अपना आदेश दिया, उस आदेशानुसार त्रावनकोर के राजा के दीवान ने राजज्ञा का प्रकाशन 26 जुलाई 1859 किया | आदेशानुसार अछूत नाडार,शेनार, और एज्वा तथा अन्य अछूत महिलाएं भी ईसाई नाडार,शेनार और एजवा महिलाओं की तरह कपड़े पहन सकती हैं या तो ये नीची जाति की मुकावटीगल (मछुआरनों) के समान मोटे कपड़े से ऊपरी भाग ढंक सकती है | लेकिन फिर भी उन्हें ऊँचे स्वर्ण वर्ण की महिलाओं के समान कपड़े पहनने का अधिकार नहीं होगा |  

  नाडार महिलाओं ने इन प्रतिबन्ध को अनदेखा किया और वस्त्रों की ऐसी शैली विकसित की जो की उच्च वर्ग की हिन्दू महिलाओं के जैसी थी | उच्च वर्ग मिशनरियां और दलित वर्ग सब 26 जुलाई के आदेश से संतुष्ट नहीं थे | सबों ने इसका विरोध किया | ईसाई इसे समानता के अधिकारों के विरोध में मानते थे ,ब्राह्मण इसे धर्म में दखल मानते थे | मद्रास के तात्कालिक गवर्नर ने उस वक्त सामाजिक सुधार और चेतना पर जो आदेश दिया उसमें लिखा कि इन अछुत महिलाओं के सन्दर्भ में सतत जारी यह प्रक्रिया अन्यायपूर्ण प्रकृति की है | आने वाली दुनिया हम पर रोएगी कि हमने इस अवसर को अपने हाथों से जाने दिया |आखिरकार1865 के आदेश द्वारा सबको ऊपरी वस्त्र पहनने की आजादी मिली |
           
      अछूत महिलाओं को उचित वस्त्र न पहनने देने के विरोध में दलित समाज सुधारक अयंकली ने (1863-1941) ब्रिटिश शासन में त्रावनकोर में खूब काम किया | उन्होंने लोगों को संगठित कर सशक्त तरीके से इस कुप्रथा का विरोध किया | समाज में जागृति के लिए स्कूलों की स्थापना पर जोर दिया |
    
     एज्वा समुदाय में पैदा हुए अधायात्मिक संत नारायण गुरु (1854-1928) ने भी केरल समाज के वंचित तबके की महिलाओं के उत्थान के लिए खूब काम किया | उन्होंने सुधार आन्दोलन का नेतृत्व किया, जातिवाद को खारिज किया और अधायात्मिक स्वंत्रता और समाजिक समानता के नए मूल्यों को बढ़ावा दिया | नारायण गुरु ने धार्मिक तीर्थयात्रा का लक्ष्य वंचितों में शिक्षा,स्वच्छता, भगवान की भक्ति, समाजिक संगठन, कृषि, व्यापार,हस्तशिल्प,और तकनीकी प्रशिक्षण का प्रचार करना बताया | 1822 में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने नारायण गुरु से मिलकर कहा कि उन्हें ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिला जो नारायण गुरु से अधिक या उनके समकक्ष भी अध्यात्मिक प्रतिभा रखता हो |

   ऐसे लोगों के अथक प्रयासों,कानून बनने के वाबजूद भी महिलाओं के ऊपरी वस्त्र पहनने का विरोध 1924 तक होता रहा | सामाजिक व्यवस्था की बेडी में जकड़े एक बीमार समाज में एक आन्दोलन 125 सालों तक महिलाओं के ऊपरी वस्त्र पहनने के लिए आंदोलित रहा क्या यह हमारी अंतरात्मा को झकझोरता नहीं है ?

       समय के अंतराल से दक्षिण भारत की इन अस्पृश्य जातियों में से कई धर्म परिवर्तन कर ईसाई बने | कई जाति परिवर्तन कर क्षत्रिय बनने से उच्च जाती में आ गए | आर्थिक स्थिति बेहतर होने से नये काम धंधे, बेहतर नौकरियों आदि के कारण अब नाडार, एज्वा, जैसी जातियां और इनके सरनेम दक्षिण भारत में दलित नहीं माने जाते हैं | समय तो बदला लेकिन आज भी देश में कई स्थानों पर इन दलित जातियों पर अत्याचार, उत्पीड़न, के समाचार आते रहते हैं | इन जातियों के विभिन्न क्षेत्रों में आरक्षण से जहां उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर हुई है, वहीं राजनैतिक कारणों से समाज में गहरा तनाव भी बढ़ा है |

अर्पणा दीप्ति            
    
    

2 टिप्‍पणियां:

  1. मुझे इस घृणित कुप्रथा के विषय मे पता तो था लेकिन इतने विस्तार से नही। आज की पीढ़ी शायद विश्वास भी नही कर पाएगी कि ऐसा भी हो सकता है। इतने विस्तार से जानकारी देने के लिए धन्यवाद।

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  2. हाँ मनुष्यता को शर्मसार तथा भारतीय संस्कृति को कलंकित करने वाली कुप्रथा........

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