रविवार, 13 सितंबर 2015

लोग हानि का अर्थ जानते भी हैं? पैसे की हानि तो कुछ होती ही नहीं, वे धातुएँ और काग़ज़ जिनसे पृथ्वी की बराबर नेमतें ग़लत हाथों में चली गईं? प्रतिष्ठा और यश? या वे छवियां जो तुम्हारी नहीं थीं तुम पर चस्पां हुईं और तुमने अपने को पहचानना बंद कर दिया? 
हानि होती हैं अपनों को खोने की, एक मुट्ठी राख़ तक नहीं बाकि रहती जिनकी, जिसे हवा उड़ा ले जाती है, लहर बहा ले जाती है।

गुरुवार, 21 मई 2015

कितने अरूणा शानबाग....और कब तक?

 अरूणा शानबाग नहीं रहीं। 1 जून को उनका जन्मदिन है किन्तु जन्मदिन से पहले हीं उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया। 42 वर्ष तक दोजख (नरक) को झेलने के बाद आखिरकार उन्हें जिल्ल्त भरी जिंदगी से निजात मिल ही गई। जाते-जाते अरूणा  पितृसत्ता का ढोल-नगाड़ा पीटने वाले तथाकथित सभ्य कहे जाने वाले आदिम मनु के वंशजों के लिए एक प्रश्न छोड़कर गयी हैं कि-"क्या एक हँसता-खेलता खुशहाल जिंदगी को नेस्तनाबूद कर देने वाला दरिंदा सिर्फ सात साल के सजा का हकदार था? एक जिंदगी की कीमत सिर्फ सात साल कारावास!" देश के कानून व्यवस्था का आलम तो देखिए कि 42 साल से लाइफ सर्पोट सिस्टम के सहारे जिंदा लाश बनी अरूणा शानबाग को सुप्रीम कोर्ट ने मर्सी किलिंग तक की अनुमति नहीं दी। न जाने कितने अरूणा और निर्भया चीख-चीखकर आज भी यह प्रश्न पूछ रही हैं कि आखिर क्यों और कब तक इस देश का कानून व्यवस्था आधी-आबादी के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करता रहेगा।
     जैसे ही अरूणा के मौत की खबर आयी समस्त मीडिया परिवार पूरे ताम-झाम के साथ अपना असला-खसला लेकर सक्रिय दिखाई दिया। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने तो अतिवादिता की सारी-सीमाओं का अतिक्रमण ही कर दिया। समाचार-संचार के इन पैरोकार से जो कि सनसनीखेज समाचार उगाही करने के लिए किसी हद तक जाने को तैयार दिखते हैं प्रश्न पूछना लाजिमी है कि इससे पहले इन्हें अरूणा की याद क्यों नहीं आयी? इस मुद्दे पर बहस क्यों नहीं हुआ। आज जितनी तत्परता से टी.आर.पी बटोरने या उगाहने के लिए ये अपनी समाचार दूकान की मंडी खोलकर बैठे है काश कि यह काम ये पहले ही कर लेते तो शायद अरूणा को कुछ और इंसाफ मिल जाता।
   1973 से खामोशी से अपनी लड़ाई लड़नेवाली अरूणा शानबाग ने 66 वर्ष की आयु में KEM हॉस्पिटल के वार्ड नं.4 में जीवन की आखिरी साँस लिया, साथ ही सभ्य सुसंस्कृत कही जाने वाले भारतीय पुरूषसत्तात्मक समाज की सोच एवं व्यवस्था की काली मर्दवादी मानसिकता पर एक तमाचा जड़ते हुए दुनिया को अलविदा कह गई।
   यह गंभीर विमर्श का मुद्‍दा है कि जो राष्ट्र कभी मातृसत्तात्मक हुआ करता था आज उस राष्ट्र एवं समाज में स्त्री को मानवी होने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। वह राष्ट्र एवं समाज उन्नत, खुशहाल और स्वस्थ कैसे हो सकता है जहाँ स्त्री विमर्श एवं सशक्तीकरण के अतिआधुनिक युग में भी स्त्री हाशिए पर पड़ी एक वस्तु से अधिक कुछ नहीं है। आखिर कितने अरूणा शानबाग और निर्भया ..... कब तक और क्यों????

मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

विवाह संस्था बनाम सपोर्ट सिस्टम



कई बार विवाह संस्था को इतना गरियाया जाता है, कि मुझे लगता है, हम ग़लत कर रहे हैं, एक कंपेनियनशिप में दरार डाल रहे हैं। एक बहुत बड़ा सपोर्ट सिस्टम, न केवल महिलाओं के लिए बल्कि पुरुषों के लिए, बच्चों के लिए है। घर एक सपोर्ट सिस्टम ही तो है।
मैं कई बार खुद पर संशय करती हूँ क्या कि मैं so called happily married के दायरे में आती हूँ इसलिए तो नहीं क्योंकि मैं इस संस्था के पक्ष में हूँ?  क्या शादियाँ हमेशा हैप्पी होतीं हैं? या इन्हें हैप्पी बनाया जाता है। हम भी भीषण तूफानों से गुज़रे हैं। पर सुबह होने पर कश्ती किनारे ही पाई है।
यह कतई सच नहीं कि अपनी शादी को हैप्पी बनाने में मैंने कोई त्याग - बलिदान किए हों! बल्कि मेरे बैटर हाफ़ ही बैटर रहे हैं हमेशा। उन्होंने ही डगमगाती नैया कि ज़्यादा पतवारें सहेजी हैं।
मैं शादी को लड़कियों की ज़रूरत या अंतिम विकल्प नहीं मानती। यह बिलकुल निजी निर्णय होना चाहिए। शादी नहीं करना भी बहुत सुखद ज़िंदगी दे सकता है अगर आप में अकेले चलने का जज्बा है तो। असफल होने पर शादी से निकल आना भी जायज़ बात है। लेकिन इसे सिरे से खारिज करना कतई उचित नहीं है।
सामाजिक विचलन, दहेज, सुंदर - असुंदर, देखना दिखाना, रिजेक्शन, घर के कामों का बंटवारा, शोषण, हिंसा आदि हमारे यहाँ विवाह से जुड़ कर इसे खारिज करने योग्य ज़रूर बनाते हैं। लेकिन अकेले चलते चलते किसी का साथ पाकर साथ चलने,  नीड़ बनाने और मां - पापा बनने के अहसास को मैं खारिज नहीं कर पाती।
हो सकता है मेरे ख्यालात पुराने हों!!

बुधवार, 8 अप्रैल 2015

पुस्तक चर्चा
स्त्री की संवेदनाओं को चित्रित करती कविताएँ : ‘पृथ्वी तन्हा है’
-डॉ. अर्पणा दीप्ति



"पृथ्वी तन्हा है" (2013) कवयित्री नीरा अस्थाना का पहला काव्य संग्रह है। इस संग्रह को पढ़ने से ऎसा प्रतीत होता है कि कविता नीरा के लिए सहज और स्वाभाविक है। मानो ऎसा लगता है कि नीरा की संवेदनाएँ बड़ी गहन हैं। वे अपनी कविताओं में स्वयं को जीती हैं, अपनी भावनाओं को शब्दों में पिरोती हैं एवं उसे काव्य का रूप देती हैं। कवयित्री की कविता में दर्द है और यही दर्द इन्हें अभिव्यक्ति के द्वार तक ले जाता है। नीरा जब तक सोचती हैं तब तक उनकी कविता व्यक्तिनिष्ठ है किन्तु जैसे ही वह सोच के दायरे से बाहर निकलती हैं कविता व्यापक जीवन-जगत के यथार्थ से जुड़ती नजर आती है। इस संग्रह की पहली कविता गरीब स्त्री के आत्मकथन में कवयित्री कहती हैं- "मुझ बदनसीब का कुछ नसीब नहीं,/ मुझ गरीब का कोई अरमान नहीं/कोई गिला नहीं, कोई शिकवा नहीं/ कोई कल्पना नहीं?"(1)


नीरा की कविता की संवेदना माँ से शुरू होकर एक आम स्त्री के संघर्ष से जुड़ जाती है। माँ’ एवं अहसास शीर्षक कविताओं  में इस दर्द एवं संघर्ष को महसूस किया जा सकता है -"जीवन में मैंने क्या पाया/ जो तूने दिया, बस वही पाया/ ऎ माँ तेरे इस प्यार के बदले/ये जग मुझसे चाहे जो ले ले।" (पृ.2, माँ)"कुछ देखा; सुना और महसूस  भी किया;/ माना जीवन का मोल, और कुछ बेगार भी किया।/.... लब कुछ बोलने को था बेकरार, दिल ने चुप इसे किया/ यूँ तो हम भी थे बेकार, किसने जीवन साकार किया। (पृ.76  अहसास)

बड़ा है इतना संसार कविता में कवयित्री समस्त विश्व की पीड़ा को चित्रित करती नजर आती हैं-"बड़ा है इतना यह संसार बड़ा/ पर लगता क्यों इतना निस्सार!/ क्यों इसमें हँसी के कहकहे भी/ दिखते दु:ख की सिसकियों में लिपटे? (पृ.3)मन-गगरीकविता में कवयित्री ने मन के दर्द को चित्रित किया है-"मन-गगरी है इतनी भारी/ उठा पाना है जिसको मुश्किल।/ जब हिली तो छलक पड़ी ये/ आँखों के रस्ते निकली ये। (पृ.6 )’वसंत के फूलकविता में काव्याकुल अधीर मन मानो बेसब्री से वसंत का इंतजार कर रहा हो-"जीवन के इस निस्सार पतझड़ में/ वसंत के फूल कब महकाओगे? (पृ.5)

इस काव्य संग्रह में कवयित्री का प्रकृति से जुड़ाव वसंत के फूल, कोयल, नदियाँ, झरने आदि के रूप में यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होता है यथा-"एक सुहाना क्षण/ श्यामल उषा का शृंगारित वर्ण/ सुहाना मौसम और तारों का रंग/ सहसा प्रकट हुआ दिवस का स्वर्ण रंग।" (पृ.82, प्रकृतिमय)
वर्तमान समय की ज्वलंत समस्या बेरोजगारी तथा उससे भ्रमित हो रही युवा पीढ़ी की विडंबना को भी कवयित्री ने बेरोजगार नवयुवकमें दर्शाया है-"वह मुझे मिला/फटे हाल-सा/ जर्जर होता कुर्त्ता/ टूटी हुई चप्प्ल/....... कभी आतंकित और कभी आतंकवादी-सा!/हाथों में डिग्रियों का बडंल लिये,/ वह आज का बेरोजगार नवयुवक था।"(पृ.86 )

बाजारवाद एवं भूमंडलीकरण के दौर में नैतिक मूल्यों का अधोपतन अपनी चरमसीमा पर पहुँच चुका है। मानवता की आत्मा मानो मर चुकी है- “मानव मूल्यों को बिखरते हुए देखा है।/मानव को मानवता में गिरते हुए देखा है।/ रोशनी की उँगलियों के निशान बनते हुए देखा है।/ तुम्हें उन निशानों में बिलखते हुए देखा है।" ( पृ.88, मैंने देखा है) मानव जीवन क्षणभंगुर है। जीवन और मृत्यु सृष्टि का नियम है किंतु यह भी उतना ही शाश्वत सत्य है कि इन घटनाओं से प्रभावित हुए बिना सृष्टि चक्र निर्बाध रूप से चलता रहता है- "फूल खिलते रहेंगे/ पक्षी गाते रहेंगे/.....नदियाँ कलकल करती बहती रहेंगी/ सूरज क्षितिज पर यूँ ही मुस्कुराता रहेगा।/.....सिर्फ.....मैं न रहूँगी/ मैं न रहूँगी..... ( पृ.  91 मैं न रहूँगी )

नीरा एक जागरूक कवयित्री हैं| वे प्रदूषित होते पर्यावरण के प्रति चिंतित हैं। कवयित्री का मानना है वृक्ष  है तो जीवन है तथा समस्त धरा सुंदर है। खासकर भारतीय संस्कृति में पीपल के पेड़ का अपना पौराणिक एवं धार्मिक महत्त्व है। मुझे याद आता है पीपल कविता में कवयित्री ने पीपल के वृक्ष के धार्मिक महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए यह दर्शाया है कि पीपल का वृक्ष पर्यावरण को स्वच्छ रखने में काफी मददगार है। वहीं देश के कर्णधार कविता में कवयित्री  युवापीढ़ी को प्रेरित करती नजर आती हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं होनी चाहिए कि यह काव्य संग्रह स्त्री के अन्तर्मन को अलग-अलग पहलुओं में विचारों का मंथन करवाता नजर आता है। स्त्री जो बोल नहीं पाती है उसे शब्द का रूप देती है। पृथ्वी यहाँ स्त्री का प्रतीक ही तो है। पृथ्वी की तन्हाइयों का अहसास करवाना इस काव्य संग्रह की विशेषता है। स्त्री के दु:ख को अभिव्यक्त करती ये कविताएँ स्त्री विमर्श के वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अपनी एक अलग पहचान बनाएगी।
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पृथ्वी तन्हा है/ कवयित्री- नीरा अस्थाना/ मंगल प्रकाशन, दिल्ली/ प्रथम संस्करण 2013/ पृ.संख्या-111/ मूल्य-150 रु.


बुधवार, 25 मार्च 2015

आज के डेक्कन क्रानिकल समाचार पत्र में दक्षिण की प्रख्यात अभिनेत्री से YSR congress  की नेत्री बनी रोजा का बड़ा ही ऊटपटाँग बयान पढने को मिला।ऎसा लगता है रोजा सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए किसी हद तक जा सकती हैं। औरतों से जुड़ी हुई बहुत सारी समस्याएँ एवं मुद्‍दे हैं जिन पर ध्यान दिया जा सकता है तथा सकारात्मक ढंग से इसे सदन में इसे उठाया जा सकता है। सुर्खियों में बने रहने के लिए यह चारित्रिक एवं नैतिक अधो:पतन की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है। 

शनिवार, 16 अगस्त 2014

“His sophism as moralist, sociologist and legislator reaches new heights…. Seduced by a false religion, beheld as a criminal, I reduce our labour to very little. Let us creat few laws; but let them be good…..”

अर्थात इस पंक्ति में साद का दर्शन यह  है कि सबसे पहले एक नैतिक शुन्य तैयार करो, फिर उसे नई चेतना से भरो-चेतना जिसे प्रभुतासंपन्न लोग अपनी सुविधा, अपनी शर्तों पर तैयार नियमावलियों से ’मैनुफैक्चर’ करते हैं। (सीवर ऎंड वेनहाउस: द माक्यु द साद, पृ.११३) हिंदी में प्राय: सब मूल्य स्त्रीलिंग ही हैं, समाज चाहता है कि इन सारे मूल्यों का निवेशन सिर्फ स्त्री में हो! क्योंकि स्त्री संस्कृति की प्रहरी है; संस्कृति जो कि संप्रभुओं की क्रीतदासी है। यह तर्क कहीं से भी न्यायोचित नहीं दीखता। अगर दुनिया की सारी उच्चशयता का ठीका स्त्रियाँ ले भी ले तो वे प्रेम करने लायक अर्थात अपनी नैतिक कद-काठी का पुरुष कहाँ से पाएँगी ? अपने से कमतर पुरुष से स्नेह तो किया जा सकता है, उस पर ममता तो लुटाई जा सकती है, किंतु प्रेम नही किया जा सकता।

शुक्रवार, 1 अगस्त 2014





जीवन की कटुताएँ

दुर्घटनाओं का गरल पिया 
स्थितियों का विष ! कितना तीखा
जीवन की कटुताएँ तीखी
इनके सम्मुख विष भी फीका
    
उफ्फ ! मन है या यह रणस्थली
घनघोर युद्ध, कैसा स्वर है
यह शोर कहाँ है ? किधर कहाँ ?
मन के भीतर या बाहर है ?

संकल्पों का वह सत्य आज मर चुका,
सत्य का यह पार्थिव स्वरूप जल जाने दो
यह सत्य अरे जो शाश्वत था किन्तु इसको 
तन और गलाने दो, कुन्दन बन जाने दो।

सन्देह नपुंसकता की एक घोषणा है,
संदेह दृष्टि का दोष,
संदेह दृष्टि का जाल नये बुन-बुनकर 
किम्वदंतियाँ नित नई गढ़ता रहता।

लांछन बनकर कहीं सिर चढ़ा तो 
कहीं पुछल्ला बन लीक पीटता रहता है
बिच्छु सा कहीं डंक से यह छू लेता
उफ्फ- पीड़ा से सारा तन दहता है।

उजला जो चरित मिला उस पर ही दोष मढ़ा
संदिग्ध अक्षरों से लिख डाले लेख नये
कुछ नई भ्रान्तियाँ देने को यह फुसफुसा रहा
इसके स्वर भी संदिग्ध !

संदेह तुम्हारा अपना हो या जनता का
संदेह अग्नि में धू-धू-धू-धू जलती हूँ मैं
लो राम अब चलती हूँ मैं

गणपति का आगमन

    जब से हम हैदराबादी हुए गणपति उत्सव मानों खुशियों का खजाना | खासकर अनुराग बाबू को यह त्योहार सबसे ज्यादा भाता है | अपने छुटपन में बप्पा क...