मंगलवार, 5 जुलाई 2011

स्त्री विमर्श की कसौटी परः मीरांबाई और उनकी कविता


स्त्री विमर्श की कसौटी पर : मीरांबाई और उनकी कविता 
-अर्पणा दीप्ति 

डॉ.हेमा रंगन की समीक्षाकृति "संत मीरांबाई का रचना संसारः एक स्त्रीवादी विमर्श" [2011 ] निस्संदेह  अत्यंत महत्वशाली शोधपूर्ण कृति है।इसमें लेखिका ने इस आधारभूत प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयास किया  है कि 'मीरां क्या केवल एक संत,एक भक्त या प्रेयसी भर थी , या फिर हाड़ मांस की बनी एक साधारण स्त्री जिसने सामाजिक रीति रिवाजों को चुनौती दी थी?' वस्तुतः वे भक्त, कवयित्री या संत जो भी बनीं उस सबसे पहले स्त्री थीं जिनके साथ पितृसत्तात्मक सामंतवादी समाज ने दोयम दर्जे का व्यवहार किया ।

कबीर और मीरां मध्यकाल के दो तेजस्वी व्यक्तित्व हैं। उन्होंने अपनी अंतरात्मा की पुकार सुनकर बाह्यजगत की वर्जनाओं को लांघा। कबीर पुरुष  थे इसलिए बहुत हद तक सामाजिक प्रताड़नाओं से बच गए। लेकिन मीरां स्त्री थीं अतः प्रताड़नाओं से बचने का उसके पास कोई विकल्प नहीं था। अपने जुझारू व्यक्तित्व के बल पर ही  वे समस्त बाधाओं को पार करती स्वतंत्र मानवी बन सकीं। 


हेमा रंगन नें वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मीरां के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का अध्ययन कर मीरां के जीवन के छुए एवं अनछुए पहलुओं को उजागर करने का प्रयास किया है।लेखिका का यह प्रयास एक स्त्री के सम्मान, उसकी आंतरिक शक्ति एवं  संघर्षरत व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए समूचे स्त्री समाज की संघर्ष गाथा का प्रतिनिधित्व करता है। लेखिका ने भारतीय स्त्री की सामाजिक स्थिति का प्रतिबिंब रही मीरां को स्त्रीवादी तथ्यों के आधार पर स्त्री विमर्श का मुद्‍दा बनाया है। 

मध्यकाल में सामाजिक जीवन में स्त्रियों की दशा बड़ी ही सोचनीय थी समाज के सभी तबकों में बालविवाह की प्रथा प्रचलित थी। लड़की को शिक्षित करने का प्रचलन नहीं था, गृहकार्य में कुशलता प्राप्त करना उनके जीवन का मुख्य उद्देश्य था। बहुविवाह की परंपरा ने स्त्रियों की स्थिति को दयनीय बना दिया था । सौतिया डाह कभी-कभी पति तथा सौतेले पुत्रों की जान लेने की सीमा तक पहुँच जाता था । पुरुषों ने सौंदर्योपासना तथा विलास के सभी द्वार अपने लिए खोल रखे थे किंतु स्त्रियों के लिए पतिनिष्ठा और यौनशुचिता अनिवार्य थी। सती-प्रथा और जौहर की राजस्थान में एक खास परंपरा रही है किंतु ध्यान देने योग्य बात यह है ये प्रथाएँ केवल स्त्रियों के लिए ही अनिवार्य थीं । पुरुष अनेक स्त्रियों को पत्नी और रखैल बनाकर रख सकता था  लेकिन स्त्री का एक ही पति हो सकता था जिसके मरते ही उसे उसके साथ चिता में जला दिया जाता था। पति के जीवनकाल में पतिपरायणता तो ठीक,लेकिन पति के मरणोपरांत ’सहमरण’ या ’अनुमरण’ द्वारा निष्ठा साबित करने  का कोई औचित्य नहीं। किंतु इसका एक और पहलू भी हो सकता हैउस समय के समाज में विधवा की जो दुर्दशा थी उसे लंबे समय तक तिल-तिल कर झेलने के बजाए एक बार में शरीर को आग के हवाले करना शायद कम कष्टप्रद रहा होगा। इसी प्रकार जौहर प्रथा को राजपुतानी आन का प्रतीक माना जाता था।क्रूर मुसलमान आक्रमणकारियों से अपनी स्त्रियों को बचाने का यही एक आखिरी रास्ता था । अग्नि प्रज्वलित कर सामूहिक रूप से स्त्रियों तथा लड़कियों द्वारा आत्मदाह करना या फिर परिवार के पुरुषों द्वारा शत्रुओं के बीच युद्ध करने से पूर्व उन्हें आग के हबाले कर देना किन्तु यह प्रश्‍न भी यहाँ उठना लाजिमी है कि मुगलो ने तो समस्त भारत को अपने अधीन किया, फिर यह प्रथा समूचे हिंदुस्तान में प्रचलित क्यों नहीं हुई? इन सब प्रश्‍नों से टकराते हुए लेखिका ने मीरां के जीवन और व्यक्तित्व संबंधी तथ्यों की विस्तार से पड़ताल की है। 

मान्यता है कि मीरां का एक भाई था जो नहीं रहा पिता भी  युद्‍ध भूमि में वीरगति को प्राप्त हो गए। मीरां के संरक्षण का जिम्मा उसके चाचा राव वीरमदेव पर आ गया । मीरां ने बचपन में जो कुछ खोया उस सवकी क्षतिपूर्ति के रूप में  ’गिरिधर नागर’ को पा लिया। 11-12 वर्ष की अवस्था में मीरां का विवाह मेवाड़ के ’हिंदू धर्म सूर्य’ महाराणा संग्रामसिंह के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज से 1516 में हुआ । ससुराल में आते ही स्वतंत्र व्यक्तित्व में आस्था रखने वाली मीरां ने कुलदेवी की पूजा करने से इनकार करते हुए अपने आराध्य ’गिरिधर नागर’ की पूजा प्रारंभ कर दी। पति भोजराज मीरां के व्यवहार से क्षुब्ध हुए, उनके मन में अनेक प्रकार की शंकाए उठीं जो बाद में शांत हो गईं । मीरां की संतान का उल्लेख कहीं नहीं मिलता; शायद पति से मीरा का समागम न  हुआ हो। ससुरालवालों का मानना था, मीरां ’कुलबोरनी’ तथा ’लोकलाज बिसारने’ वाली है। लोक मान्यता के अनुसार कुँवर भोजराज की मृत्यु 1528 में राणा सांगा के जीवन काल में हो गई थी। मीरां का वैवाहिक जीवन मुश्‍किल से दस वर्ष रहा। राणा सांगा के बाद रतनसिंह मेवाड़ का राजा बना । मेवाड़ की परंपरा के अनुसार उसने मीरां को सती होने का आदेश दिया । मीरां ने कभी लौकिक जीवन में भोजराज को अपना पति नहीं माना तो अपने आपको उसकी  विधवा कैसे मान सकती थी! उसका विवाह तो बालपन में ही ’गिरिधर गोपाल’ से हुआ था जो अविनाशी थे,यों वह तो चिर सुहागन थी -

"जग सुहाग मिथ्या री सजनी, होवां ही मिट जासी।/ 
गिरिधर गास्यां , सती न होस्यां मन मोहयो घनघामी॥"

"लोग कहयां मीरां भई बाबरी, सासू कहयां कुलनाशी ।"

मीरां ने रतनसिंह के आदेश को ठुकरा दिया। फिर क्या था! मीरां पर अत्याचारों का सिलसिला बढ़ता ही गया। चरणामृत के नाम पर विष और शालिग्राम की मूर्ति के नाम पर विषैला नाग भेजा गया। इन अत्याचारों से तंग आकर सन 1534 के आसपास मीरां मेवाड़ त्यागकर मेडता चली गई । जनश्रुतियों के अनुसार मीरां वृंदावन गई। जीवन के अंतिम पड़ाव में गुजरात का द्वारका मीरां का निवास स्थान रहा। 

1888 में कर्नल टॉड ने प्रामाणिक दस्तावेजों के अभाव में किंवदंतियों का सहारा लेकर राजस्थान के समग्र इतिहास पर केंद्रित पुस्तक ’एनल्स एंडेंटिक्वटीज आफ राजस्थान’ लिखी। इसमें मीरां को महाराणा कुंभा की पत्नी बताया गया। टॉड की इस मान्यता को विद्वानों ने सिरे से खारिज कर दिया है। डॉ.सी.एल.प्रभात के अनुसार मीरां के गुरु शायद रैदास या रैदासी  रहे होंगे। किंतु पुनः विभिन्न धर्म संप्रदायों का अध्ययन करने पर डॉ.प्रभात इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मीरां का कोई एक दीक्षा गुरू नहीं रहा होगा। मीरां के ही शब्दों में ’मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई।’ पद्‍मावत शबनम ने ’मीरां : व्यक्तित्व एवं कृतित्व’ में यह दर्शाया है कि सरकारी तौर पर जो मीरां की प्रामाणिक तस्वीर है वह राजस्थानी विधवा की नहीं है, न ही राजसी है - गले में तुलसी माला किंतु कलाइयों में चूड़ियाँ हैं। भजन में मग्न सादगीपूर्ण यह चित्र भक्त स्त्री का है न कि विधवा का। इन सभी विद्वानों के विवरण का अध्ययन करने पर एक प्रश्‍न उभरकर सामने आता है - आर्थिक आधार का प्रश्न।

इसके अतिरिक्त लेखिका ने मीरां की भक्ति साधना पर निर्गुण तथा सगुण भक्ति के प्रभाव को भी दर्शाया है। मीरां सगुण उपासिका तथा कृष्ण की भक्त थीं। लेकिन उनकी इस उपासना पर नाथ मत का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है- 

"म्हारे घर रमतो ही आई रे जोगिया।/काना बिच कुंडल,गले बिच सेली, अंग भभूत रमाई रे ।"

वहीं संत मत का प्रभाव भी द्रष्टव्य है-

"राम नाम रस पीजै!/
मनवा! राम नाम रस पीजै/ 
तजि कुसंग सतसंग बैठि हरि चरचा सुनि लीजै/ 
काम क्रोध मद मोह लोभ कू, चित से बहाय दीजै/ 
मीरां के प्रभु गिरिधर नागर,ताके रंग में भीजै।"

मीरां की कुछ मार्मिक पंक्तियों में संतो का फक्कड़पना तथा सूफ़ियों की दीवानगी दिखाई देती है-

"हेरी मैं तो दरद दिवाणी मेरो दरद न जाने कोई/ 
घाइल की घाइल जाणै कि जिन लाइं होई॥"

मीरां ने राम भक्ति के पद न के बराबर गाए किंतु मीरा के पदों में राम का उल्लेख अनेक रुपों में बार-बार आया है-

"मैंने राम रतन धन पायो/
वस्तु  अमोलक दी मेरे सतगुरु  करि किरपा अपनायो।"

मीरां की कृष्ण भक्ति के स्वरूप की मुख्य विशेषता लेखिका के अनुसार यह है कि न तो वह गोपी है और न राधा है, वह सौ फीसदी मीरां है तथा अपने गिरिधर नागर से उसका सीधा संबंध है।

मीरां के काव्य विषयों का वर्गीकरण करते हुए लेखिका ने मीरां के आराध्य, मीरां की साधना के स्वरूप और मीरां के भावजगत का मनोवैजानिक विश्‍लेषण भी किया है। इस विश्‍लेषण से एक बात स्पष्‍ट तौर पर उभरकर सामने आती है कि मीरां ने ’स्त्री-मुक्ति’ का सूत्रपात ही नहीं किया अपितु अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए अस्तित्व की बाजी लगाकर उसने स्त्री के मान सम्मान को बढ़ाया। अतः उसे ’स्त्री-स्वतंत्रता’ का सूत्रपात करनेवाली प्रथम वीरांगना माना जाना चाहिए।

आगे मीरां के साहित्य का भाषिक विश्‍लेषण करते हुए दर्शाया गया है कि मीरां ने भाषा को कलात्मक विशिष्‍टताएँ देने का प्रयास कतई नहीं किया, न ही काव्यशास्त्रीय नियमों का कड़ाई से पालन किया। मीरां के फुटकर पद साधारण लोकगीतों की तरह बोलचाल की भाषा में हैं  लेकिन इन पदों में शृंगार, मधुर तथा शांत रस के पदों की प्रचुरता आसानी से देखी जा सकती है।

अंत में लेखिका ने हिंदी गीति पंरपरा में कबीर, रैदास, सूरदास और तुलसीदास के साथ मीरां की तुलना करते हुए मीरां को इन सबमें सबसे ऊपर स्थान दिया है। भारतीय संगीत-संपदा को समृद्‍ध करने में मीरां के पदों का योगदान अतुलनीय है। कुल मिलाकर यह कहना सर्वथा संगत होगा कि डॉ.हेमा रंगन ने अपनी इस कृति द्वारा मीरां के स्त्री रूप की प्रतिष्‍ठा की है और स्त्री विमर्श के भारतीय संदर्भ का सूत्रपात करने में उनकी भूमिका का सप्रमाण प्रतिपादन किया है।


समीक्षित कृति - संत मीरांबाई का रचना संसार :एक स्त्रीवादी विमर्श 
लेखिका - डॉ.हेमा रंगन
संस्करण - जनवरी 2011
प्रकाशक - शुभंकर प्रकाशन, रामकुंज, आर के वैद्य रोड,दादर,मुंबई-400028  
पृष्ठ संख्या- 315
मूल्य - 250रुपये मात्र.

बुधवार, 22 जून 2011

फूले कदम्ब


फूले कदम्ब 
टहनी -टहनी  में कंदुक  सम झूले कदम्ब 
फूले कदम्ब | 
सावन बीता 
 बादल का कोप नहीं रीता 
जाने कब से तू बरस रहा 
ललचाई आँखों से नाहक 
जाने कब से तू तरस रहा 
मन कहता है, छू ले कदम्ब 
फूले कदम्ब 
फूले कदम्ब
     
                                                 नागार्जुन 

गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

सहजता में गहराई: 'अहसासों के अक्स'




डॉ.शकुंतला किरण की पुस्तक ’अहसासों के अक्स’ 108 कविताओं का संकलन है। कवयित्री ने अपनी इन कविताओं में जहाँ एक ओर वर्तमान मानव समाज में उपजी विसंगतियों एंव विकृतियों को अर्थपूर्ण स्वर प्रदान किया है, वहीं दूसरी ओर भक्ति गीतों के माध्यम से कोमल पक्षों को भी उजागर किया है। शकुंतला किरण का काव्य संग्रह चार खंडो में विभाजित है। पहला खंड गीत, दूसरा राजस्थानी कविताएँ,तीसरा अतुकांत कविताएँ और अंतिम भक्ति गीत। अपनी बात में कवयित्री स्वयं यह कहती नजर आती हैं कि-"निरंतर मूल्यविहीन होते जा रहे सामाजिक सरोकार, मानवीय-संबंधों की असहज व बोझिल होती जटिल संवेदनाएँ, राजनीतिक परिदृश्य पर उभरी विद्रूपताएँ आदि के प्रति आक्रोश की धधकती ज्वाला, मन के किसी कोने में दुबके छुपे काव्यबोध को जगाकर प्रेरित करने लगी, फलस्वरूप कुछ गीत/ कविताओं ने जन्म लिया ।" इन काव्य संग्रह को पढ़ने से ऎसा प्रतीत होता है कवयित्री मूलतः गीतकार है। उनके गीतों में पीड़ा है,अकुलाहट है,यही अकुलाहट उन्हें कवि बनाती है- 

" घावों का सागर अति गहरा,/सपनों पर विरहा का पहरा,/ फिर विरहिन के नयनों में यह-/ निंदिया क्यों घिर आई ।"
  (मुक्ति थी जिसके बंधंन में....पृ.सं.19)

पुस्तक का प्रारभं दोहों से किया गया है। यहाँ एक प्रश्‍नाकुल मन की बेचैनी देखी जा सकती है -

"शब्द तुम्हारे दे रहे, यूँ अब भी अधिकार।/अर्थ दूर क्यों जा बसे, सात समन्दर पार ॥"
(अर्थ दूर क्यों जा बसे....पृ.सं.11)


जहाँ एक तरफ कवयित्री व्यथित हैं वहीं दूसरी ओर जीवन के प्रति आस्थावान भी हैं।जिस प्रकार पतझड़ और वसंत का आना-जाना सृष्टि का चक्र है  ठीक उसी प्रकार सुख और दुख का आना-जाना मनुष्य के जीवन का चक्र है। शकुंतला किरण ने सृष्टि तथा जीवन के इस शाश्‍वत नियम को बड़े सहज भाव से अपने इस गीत में दर्शाया है -

"रिसने दो आँसू को, पीड़ा की आँख तुम,/फागुन की मस्ती से आओ, हम परिचय कर लें/ ........./ केसर और टेसू के, रंगों में भीग-भीग,/ इठलाती-सुधियों का आओ, हम संचय कर लें।"(बजने दो चंग....पृ.सं.16)

प्रकृति और मनुष्य का संबंध आदिकाल से रहा है । शकुंतला किरण ने अपने गीतों में इस परंपरा का निर्वाह बखुबी किया है। बड़ी सहजता के साथ उन्होंने प्रकृति का मानवीकरण किया है-

"सपन की पुष्प देहरी पर,खिली है चाँदनी जब से,/सुरों की सरगमी-फागुन,सुनाये रागिनी जब से,/ फुहारों की छुअन सुखे अधरों पर  लिख गई सावन/ हर इक पल हो गया ऋतुराज गंधित यामिनी जब से।" (सपन की पुष्प देहरी पर....पृ.सं.45)

आदमी चाहे विदेश में क्यों न हो वह अपनी मातृभाषा का मोह नही छोड़ पाता । शकुंतला किरण के राजस्थानी गीतों में मातृभाषा का यह मोह बड़े ही स्पष्‍ट एंव सरस रूप में दिखाई देता है। कहीं सास जँवाई को सीख देती नजर आती है तो कहीं बहुएँ सास-पुराण सुनाती दिखाई पड़ती है। ’कवि सम्मेलन री झाँकी’ तथा ’पाणीवाड़ा री झाँकी’आदि गीत भी हँसकर लोट-पोट होने पर विवश करते हैं।  इन गीतों में हास्य-व्यंग्य की प्रधानता है यथा-

"सुनो कवँरसा बाई नै म्हे, घणा लाड़ सू पाली पोसी।/भोली डारी छोरी म्हाँरी, सब बातां मे है संतोषी॥/सव कामां में तेज घणी, आ पण गुस्सा की है खारी।/थे मत बहस बराबर कर जो, कवँर साब आ विनती म्हारी॥" (सासू री सीख-जवाँई रे नाम पृ.सं.50)

अतुकान्त कविता की शृंखला में कवयित्री ने मूल्यविहीन होते हुए समाज,स्त्रियों की दयनीय स्थिति तथा मानव संबंधों को उकेरा है-

"इन जर्जर संबंधो में-/ अपनत्व खोजना/ठीक वैसा ही है-/ जैसे शवों में स्पंदन की चाह।" (संबंध-पृ.सं.-61)

स्त्रियों के चहुँमुखी शोषण एवं उनकी पराधीनता पर कवयित्री दुखी हैं । नारी विषयक विकृतियों एवं उनकी स्वतंत्रता का हनन करने वाले सभ्य समाज पर ‘अभिशप्त ’ कविता के माध्यम से कवयित्री ने जमकर प्रहार किया है-

"मैं/भेड़ों के झुण्ड से-/निकल भागने का /विद्रोह नहीं/  सिर्फ कुछ स्वतंत्रता से-/आगे-पीछे,/बिना किसी से सटे/चलना चाहती हूँ!/ ले..कि...न/ तुम्हारी कर्कश हाँक,/और लकड़ी,/बार-बार/झुण्ड में मिलकर,/सबसे सटकर,/ चलने को विवश कर देती है!/ यह कैसी नियति है! (अभिशप्त-पृ.सं.69)

कहने को तो हम आज स्त्री सशक्तीकरण की दौड़ में शामिल है। लेकिन क्या कामकाजी महिलाएँ घर के बाहर सुरक्षित है ? इस प्रश्न को कवयित्री ने ‘अंह की तुष्टि ’ में बड़ी ही सशक्त मुद्रा से उठाया है-

"चारो ओर बैठे हुए दैत्य/निगाहों में नाखुनों-/और अनर्गल प्रश्नो के चाकू से,/किसी मासुम व्यक्तित्व के चिथड़े-चिथड़े उड़ा,/उसे नंगा कर,/ अपने अहं की तुष्टि पर-/ठ....हा....के लगा रहे हैं।" (अहं की तुष्टि-पृ.सं.-74)

बदलते मूल्य, खंडित होते विश्वास एवं प्रगतिशील समाज में दहेज रूपी दानव ने आज भी कितनी ही लड़कियों को मौत की गोद में सुला रहा है। आज की शिक्षित युवा पीढ़ी भी दहेज रुपी दानव के चंगुल से मुक्त नही हो पाई है । उनकी तथाकथित मुक्ति केवल भाषण तथा कलम तक ही सीमित है। ‘अलविदा मेरे गुलाब ’ में कवयित्री हृदय को झकझोरने वाले कुछ प्रश्न पाठको के समक्ष रखती हैं-

"एम.ए. की डिग्री,बैंक की क्लर्की,/फिर भी न दहेज में स्कुटर?/न फरमाइश पर मित्रों के लिए शराब?/और इस भयंकर अपमान का बदला,/सिर्फ.....सिर्फ माधुरी की हत्या हीं तो-/हो सकता था!/बधाई लो मनु अपनी इस सफलता पर,/अहं पर /पुरुषार्थ पर,/ और उस स्कूटर व शराब के प्रतिष्ठित सवाल पर !!(अलविदा मेरे गुलाब पृ.सं.-76) 

जहाँ एक तरफ स्त्रियों पर हो रहे अत्याचार से कवयित्री दुखी हैं वहीं दुसरी तरफ उधार में दी गई सुविधाओं के विरुद्ध बगाबत करती हैं-

"विरासत में मिले-/सुविधाओं के पंख,/न मेरे पास है/न उधार लेना चाहती हूँ।" (पंख-पृ.सं.71)

इसी प्रकार शकुंतला किरण मूल्यविहीन राजनीति तथा सत्तालोलु्पों एवं भ्रष्टाचारियों पर भी जमकर प्रहार करने से नहीं चूकती हैं-

"इस बार.../अंधे धृतराष्ट्र के लिए/ गांधारी के साथ ही-/सभी प्रधान गण भी,/आँखों पर पट्टी बाँध,/स्वामी भक्ति में-/कुत्तों से भी आगे बढ़ते रहे!/ बेबस जनता को काटते रहे!" (अंधा राज-पृ.सं.-87)

आज की युवा पीढ़ी संवेदना शून्य तथा हृदयहीन हो चुकी है। संबंधों को भी नफा-नुकसान के तराजु पर तोला जा रहा है। वृद्ध असहाय माता-पिता के प्रति उदासीन होते युवाओं को भी कवयित्री ने जमकर लताड़ा है- 

"पद-यात्रा करते-करते,/जब चढाव पर-/श्रवण कुमार की आँखे/रुप और राशि में ही-/ अटक गई,/तो काँवड़ में बैठी माँ,/ अचानक 
उलट गई!/झाँका तो पाया कि-/कुँआ बहुत गहरा व अंधा है!/ और सूरज भी-/ साथ देने में,/आनाकानी कर रहा है। "  (अप्रत्यशित-पृ.सं.-89)

मार्क्स का सामाजिक समता का सिद्धांत सिर्फ किताबों तक ही सीमित हो चुका है। वर्तमान समाज में अमीरी-गरीबी की खाई इतनी गहरी हो चुकी है कि उसे पाटना नामुमकिन दिखता है। ‘गरीबी की सजा ’ में कवयित्री ने आम आदमी के कुछ ऎसे ही प्रश्न बड़े सहज ढंग से उठाए हैं-

"तुम नहीं जानते!/उनके बड़े-बड़े गुनाहो की उम्र भी,/हमारे छोटे-छोटे गुनाहों से-/बहुत कम होती है।..../अपने गुनाहों के कंबंल को ओढ़ा देते हैं/ठिठुरते गरीब व बेबस लोगों को-/साथ ही उन्हें कारावास में-/मुहैया करवा देते हैं/ दो वक्त की रोटी!" (गरीबी की सजा -पृ.सं.-104)

भक्ति गीतों में कवयित्री कहीं कान्हा के लिए श्रृंगार करती हैं तो कहीं विरहनी राधा बनी भी दृष्‍टिगोचर होती हैं-

"उद्धव से संदेश तुम्हारे,समझ नहीं हम पाते हैं।/मन तड़पत है आओ कान्हा, आँसू तुम्हे बुलाते हैं।।"                                                   (ये आँसू तुम्हे बुलाते हैं....पृ.सं.-104)

शकुंतला किरण की असली शक्ति उनकी गुरुभक्ति है। कवयित्री गुरु को ईश्‍वर के रूप में महसूस करती हैं-
"तुम ही हो ईश्‍वर गुरुवर,तुम परम ब्रह्म तुम ज्ञानी।/तुम ही तो ब्रह्मा,विष्णु ,तुम ही शिवशंकर दानी।                       (है आज गुरु पुनम तुम.....पृ.सं.110)

गुरुभक्ति में सराबोर कवयित्री की गुरु के प्रति समर्पण याचना भी अद‌‌भुत है-

"समर्पण निःशेष हो मेरा,तुम्ही आधार हो,/तुमसे तुमको माँगने की याचना स्वीकार हो ।( तुमसे तुमको माँगने की..... पृ.सं.110)

अपने काव्य संग्रह ‘अहसासों के अक्स’ में कवयित्री शकुंतला किरण ने दोहे,गीत,गजल, मुक्तक,राजस्थानी कविता तथा भक्ति गीतों आ के माध्यम से सशक्त काव्य अभिव्यक्ति का परिचय दिया है। कवयित्री की मातृभाषा राजस्थानी में लिखी गई कविताएँ अविस्मरणीय होगीं इसमें कोई दो राय नहीं। साथ ही इसमें कोई संदेह नही कि शकुंतला किरण के भक्तिगीत श्रेष्ठ राजस्थानी परंपरा की रचनाएँ हैं।  मीराबाई के पदों की तरह इन गीतों का भी गायन मंदिरों में हो सकता है। 




अंततः इस काव्य संग्रह की एक अन्य विशेषता यह है कि इसमें सहज भाषा में पर्याप्त गहराई भरी गई है। कवयित्री की काव्य प्रतिभा तथा भक्ति भावना हमेशा बनी रहे , इन्हीं शुभकामनाओं के साथ आशा है कि हिंदी जगत ‘अहसासों के अक्स ’ का स्वागत करेगा ।

                                                                                                                        - अर्पणा दीप्ति
                                                        
समीक्षित कृति-अहसासों का अक्स
कवयित्री - डॉ.शकुंतला किरण
प्रकाशक- संकेत प्रकाशन, 372/26,रामगंज, 
संस्करण-2009
पृष्ठ संख्या - 152  
मूल्य-35o रुपए   

मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010

जीवन के जमीनी संघर्ष की उपज मुनिला :'माटी कहे कुम्हार से'



 

उपन्यास और कहानी की सार्थकता इस बात पर निर्भर होती है कि वे सामान्य जनजीवन से जुड़े हों ; तथा आम आदमी के सुख-दुःख की अनुभूतियों को साथ लेकर चलें। ’ माटी कहे कुम्हार से ’(2006 ) कथाकार मिथिलेश्वर का ऎसा ही उपन्यास है । झोपड़पट्टियों में समाज के हाशिए पर स्थित जीवन की तल्ख सच्चाई से प्रारभं इस उपन्यास की कथावस्तु इक्कीसवीं सदी के भारतीय गाँवों की बेबाक पड़ताल करते हुए शहर में पहुँचकर शहरी समाज की अंतर्कथा प्रस्तुत करती है।

कथा का प्रारंभ इस वाक्य से होता है

-"इस गूँगी छोरी ने हमें कहीं का नहीं  रहने दिया , हम इसे सोझिया बुझते थे , सोझिया बाछी ही लुगा चबाती है......इसने तो सारी मर्यादा मिट्टी में मिला दी ......इसे घटिया कर देना  ( दो लाठी के बीच में गला दबाकर मार देना )ठीक रहेगा |"(पृ.7 )  

कहानी जन्मजात गूँगी ब्राह्मणी कलावती और यदुवंशी बिसुनदेव की है । पिता द्वारा मुहमाँगा दहेज देने पर भी कलावती के लिए अच्छा घर-वर नहीं मिल पा रहा था , लोग साफ कह देते सब कुछ तो ठीक है , लेकिन लड़की गूँगी है । कलावती सिर्फ जुबान की गूँगी थी, लेकिन रूप रंग के मामले में एकदम खिली हुई फूल सरीखी । शादी की प्रतीक्षा में उसकी उम्र बढ़ती चली गई और  अपने घर में दूध लाने वाले बिसुनदेव के संर्पक में वह कब आ गई, पता ही नहीं चला । इस बात की भनक परिवार के लोगों को तब लगी जब कलावती गर्भवती हो गई । परिवार वालों का एक ही निर्णय था - कलावती को खत्म कर दिया जाए । न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी ! माँ की आरजू मिन्नत पर परिवार वाले निर्णय बदलकर  कलावती के गर्भपात के लिए राजी हो जाते हैं । लेकिन यह क्या ! रात के सन्नाटे में माँ की बगल में सोई कलावती को अपनी पीठ पर लाद बिसुनदेव छत के रास्ते चम्पत हो गया, घर के लोग माथा पीटते रह गए । पुनः घर के लोगों ने यह सोचकर अपने आप को ढाढस  बँधा लिया कि अच्छा हुआ कुलबोरन कुपातर लड़की चली गई, माथे का कंलक टल गया । इधर बिसुनदेव कलावती को लेकर भागते-छिपते नरही नामक झोपड़पट्टी में पहुँचता है । संभवतः इस झोपड़पट्टी में उसी की तरह फरार, विवश और विस्थापित लोग आ बसे थे । उन सब लोगों ने कलावती और बिसुनदेव को हाथोंहाथ उठा लिया । नरहीवासियों के सहयोग से बिसुनदेब झोपड़ीनुमा एक कमरा बनाकर झोपड़पट्टी के अन्य लोगों की तरह रोज मजदूरी कर कलावती का भरण-पोषण करने लगा । 

एक दिन बैसाख की उमस भरी रात में कलावती ने एक बच्ची को जन्म दिया । जहाँ रूप रंग में वह अपनी माँ कलावती पर गई थी, वहीं डील डौल में अपने पिता बिसुनदेव पर । नरही की औरतों ने यह कहते हुए स्वागत किया-’मुन्नी आई है लक्ष्मी आई है ।’ जब मुन्नी चलने -फिरने लगी कलावती भी बिसुनदेब के साथ झोपड़पट्टी की अन्य लुगाइयों की तरह काम पर जाने लगी । इधर कलावती की भनक उसके परिवारवालों को लग चुकी थी । उन्होंने जागा और तेगा नामक भाड़े पर हत्या का काम करनेवाले हत्यारों को कलावती की हत्या करने भेजा।

धान की कटनी में मशगूल कलावती इस बात से बिल्कुल अनभिज्ञ थी कि राहगीर की शक्ल में मौत जाल बिछाए खड़ी है। जल्लादों ने निशाना साध कर गोली कलावती के सीने में दाग दी । कटिहारिनें चीखने चिल्लाने लगीं -

" अरे बाप रे बाप ! मार देलन स हरामी ! धावजा हो पकड़ जा हो .....भागल जा तरसन ।" (पृ.12 )

 हँसती बोलती कलावती क्षणभर में लाश का ढेर  बन चुकी थी । बिसुनदेव तो जैसे आपे में नहीं रहा । उसके ऊपर  हत्या की धुन सवार हो गई । अन्त्येष्टि समाप्त होते ही उसने झोंपड़पट्टी की एक वृद्ध औरत रमला काकी के जिम्मे मुन्नी को सौंप दिया और चल पड़ा हत्यारों की तलाश में । जल्दी ही बिसुनदेव को टोह मिल गई, दोनों ही हत्यारे उसी के गाँव के हैं । एक दिन बिसुनदेव को अनुकूल अवसर मिल गया। दोनों शैतान जागा और तेगा गाँव से दूर अपनी छावनी में रंगरलियाँ मनाने आए थे । मौका पाते ही बिसुनदेव ने पहले तेगा को ढेर किया फिर जागा को । लेकिन बिसुनदेव भी नहीं बच सका । जागा की  गोली का शिकार हो गया । दूसरे दिन गाँव के लोगों ने अभिभूत होकर बिसुनदेव के सच्चे प्रेम की चर्चा की । लोगों ने कहा उसने अपनी पत्नी की  हत्या का बदला ले लिया। 

इधर मुन्नी इतनी भी छोटी नहीं थी कि वह अपने माई बाबू का मरना न जान सके । बुढ़िया दादी ही मुन्नी के लिए सब कुछ थी । लेकिन मुन्नी की बाल आसक्ति पर उसकी नियति निर्धारित नहीं थी। एक रात जाड़ा देकर बुखार लगने से बुढिया दादी भी चल बसी । रोती बिलखती मुन्नी को झोपड़पट्टी की हमउम्र लड़कियों ने सहारा दिया; ढाढ़स बँधाया । अब उन लड़कियों के साथ मुन्नी भी रोपनी - कटनी तथा रोज मजूरी के काम पर जाने लगी । अपने रूप रंग में अनूठी, झोपड़पट्टी की लड़कियों से अलग, मुन्नी वहाँ के लड़कों के लिए आकर्षण की केंद्र थी । लड़के अपनी  तरफ उसका ध्यान आकर्षित करने के लिए उसके साथ हँसी - मजाक तथा छेड़छाड़ करते थे । लेकिन इनके बीच रहते हुए भी मुन्नी तटस्थ एवं निर्विकार रहती थी । 

एक दिन वैशाख की अलसायी भोर में सुबह चार बजे मुन्नी जब गंगा में नहा रही थी तभी उसकी टोह में छुपा करमचंद उसे बलात्कार के इरादे से घसीटता हुआ जंगल में ले गया ।  पिता बिसुनदेव के खून का असर क्षणभर में मुन्नी को हिंसक बना गया  । पास पड़े हुए पत्थर के टुकड़े से मुन्नी करमचंद केऊपर क्रुद्ध सिंहनी की भाँति प्रहार करती है, करमचंद का सिर फट जाता है । करमचंद ने सपने में भी नहीं  सोचा था कि मुन्नी ऎसा सख्त प्रतिकार और तीखा प्रहार करेगी । उसे लगा था कि वह मान मनौवल वाली छोरी है । 

झोंपड़पट्टी में संभवतः इस तरह की यह पहली घटना थी । लेन देन उधार पेंच के मामले में वहाँ झगड़े होते रहते थे । पर छोरा-छोरी, मर्द-लुगाई का मामला कभी सामने नहीं आया था । यह विस्थापितों का समाज था । जाति-धर्म के बंधनों से मुक्त जीने की चाह में अपने समाज से निष्कासित या फरार जोड़े ही यहाँ पहुँचते थे । यहाँ का रिवाज था छोरा-छोरी बड़े होने पर स्वयं अपना जोड़ीदार ढूँढ लेते या कभी -कभी दूसरे या तीसरे जोड़ीदार को भी आजमाते । उनके लिए यह तुच्छ मामला था और इस पर वे कभी बवाल खड़ा नहीं करते थे । यहाँ एक दूसरे के प्रति एकनिष्ठता के लिए कोई सामाजिक दबाव नहीं था यह उनकी आंतरिक प्ररेणा पर निर्भर करता था । यह उन्मुक्त समाज था । यहाँ जोर  जबरदस्ती की कोई गुंजाइश नहीं थी। ये सब बातें यहाँ के समाज में सर्वसुलभ तथा सहज थी । 

"मुन्नी ने इस सहजता को झटका दिया था और करमचंद ने इसे ज्यादती का रूप  दिया था ।" (पृ.सं.23 ) 

इस घटना के बाद मुन्नी की दुनिया  काम से लौटने पर अपनी झोपड़ी में ही सिमट गई । एक पेट के लिए अलग से खिचड़ी पकाती जो बच जाता उसे पड़ोसियों तथा बच्चों में बाँट देती ।

" आदमी अकेले आता है अकेले ही जाता है फिर अकेलेपन से क्या भागना।"(पृ.सं.26 )

भगवान ने ही उससे उसके माय बाबू को छीन लिया, यह सोचते हुए मुन्नी दरवाजा बंद करने आगे बढ़ी । ठीक उसी क्षण बाहर से भागता हुआ अधेड़ पैंतीस - चालीस साल का व्यक्ति आकर मुन्नी से याचना करने लगा मुझे छिपा लो, मेरे दुश्मन मेरा पीछा कर रहे हैं । उस व्यक्ति के आकस्मिक आगमन पर मुन्नी हतप्रभ तथा मौन रह गई । आंगतुक झट से झोपड़ी में आकर दरवाजा बंद कर लेता है। खतरा टलते ही वह व्यक्ति बाहर आता है, मुन्नी का  धन्यवाद करते हुए अपनी कहानी सुनाता है कि वह कोई चोर बदमाश नहीं । पट्टीदार का झगड़ा है ,  चचरे भाइयों ने उसके  पूरे परिवार का संहार कर दिया है । अब वे उसे मारना चाहते हैं , ताकि उसके  हिस्से की  जायदाद उन्हें मिल जाए । उनमें से दो को तो वह मार चुका है,  बाकी जो बचे हैं वे उसकी टोह में हैं । पुनः वह मुन्नी से पूछता है कि वह यहाँ अकेली क्यों हैं ?

 ''मुन्नी कहती है -मेरे माय बाबू मर गए । कोई भाई बहन नहीं है । बाहर बारिश थम चुकी थी , उसने विदा लेते हुए मुन्नी से कहा , तूने मेरी जान बचाई ; कभी तेरे काम आ सका तो अपने आप को धन्य मानूँगा ।"(पृ.सं.29)

दो सप्ताह बाद मुन्नी इस घटना को लगभग भूल चुकी थी, लेकिन वह आगुंतक पुनः थैले में कुछ फल और मिठाइयों  के साथ आ धमकता है। मुन्नी को उसका आना अच्छा नहीं लगा । तत्क्षण उसने कहा, अब मैं चलूँगा । पुनः वह पलट कर पूछ बैठा -तेरा नाम क्या है? जवाब में वह बोल उठी , मुन्नी । इस पर वह भी झट से बोल उठा- मेरा भी नाम मुनीलाल है। बरसात का समय आ चुका था, इस बार गंगा में आई बाढ़ हर साल की अपेक्षा ज्यादा तबाही और विनाशलीला लाई । मवेशियों तथा आदमियों के मरने से झोंपड़पट्टी में महामारी फैल गई ।  जिउत , फिर भीखू तथा नरपत महामारी की चपेट में आकर काल के गाल में समा गए । झोंपड़पट्टी के बुजुर्गों ने वहाँ की रीत के अनुसार सीतला मइया को दारू  की बोतल ढार कर एक मुर्गे की बलि दी । उनका मानना था कि सीतला मइया के प्रकोप से ही बस्ती में महामारी फैली है । जो बचेंगे सो बचेंगे, नहीं  बचने वाले सीतला मइया की सवारी बन जाएँगे । मुन्नी भी दुर्भाग्यवश इस बीमारी के चपेट में आ गई । अपने बचने की आस छोड़ चुकी मुन्नी के लिए मुनीलाल देवदूत बनकर प्रकट होता है । वह जबरदस्ती शहर के अस्पताल ले जाकर मुन्नी का इलाज करवाता है। अब मुन्नी रोगमुक्त हो चुकी थी तथा मुनीलाल अपने उद्देश्य में सफल | झोंपड़पट्टी की  परंपरा के अनुसार सीतला मइया के पास जाकर शादी कर दोनों विधिवत पति पत्नी बन जाते है । मुन्नी अब मुनिला बन चुकी थी  

अचानक एकदिन मुनीलाल के दुश्मन उसे ढूँढ़ते हुए नरही पहुँच जाते हैं । मुनीलाल मुनिला के साथ वहाँ से पलायन कर झाबुआ पहुँच जाता है । मुनिला के झाबुआ के प्राथमिक स्कूल में दाई का काम मिल जाता है , तथा मुनिलाल को रिजवान साहब के आटा मिल में नौकरी मिल जाती है । जहाँ मुनिला अपने काम से स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों तथा शिक्षकों तथा बच्चों का दिल जीत लेती है, वहीं मुनीलाल भी अपनी ईमानदारी से रिजवान साहब तथा गाँववालों के बीच काफी लोकप्रिय हो जाता है । 

इसी बीच शांत तथा एकांतप्रिय झाबुआवासियों के बीच शरद तथा पवन जैसे नेताओं की आवाजाही बढ़ती है । ये नेता कभी गाँव के विकास के नाम पर तो , कभी किसी का स्मारक बनाने के नाम पर जबरन गाँववालों से चंदा उगाही करते हैं । रिजवान साहब द्वारा विरोध किए जाने पर भाडे के डकैतों को उनका घर लूटने के लिए भेज दिया जाता है । रिजवान साहब की जान बचाते हुए मुनीलाल शहीद हो जाता है । रोती बिलखती मुनिला को स्कूल का मास्टर रमन अपने गाँव बजरंगपुर ले जाता है, जहाँ उसके रिटायर दादा सुमेरसिंह जमीन जायदाद की देखभाल के लिए अपना भरापूरा परिवार पटना में छोड़कर अकेले गाँव में शिवबचन के सहारे जीवन गुजार रहे थे । रमन अपने दादा को मुनिला की विडंबनापूर्ण गाथा सुनाता है । दादा कहते हैं-अच्छा किया जो इसे यहाँ ले आया । सुमेरसिंह के घर में रहते हुए मुनिला को लगभग तीन महीने बीत चुके थे । मुनिला अब धीरे-धीरे मुनीलाल तथा झाबुआ को भूल रही थी । लेकिन होनी को तो कुछ और मंजूर था , पत्नीविहीन तथा अपने एकाकीपन से त्रस्त सुमेरसिंह मुनिला को मालकिन बनाना चाहते थे । 

इधर स्वार्थी नेताओं द्वारा जातिवाद का नारा बुलंद किए जाने से बजरंगपुर भी सत्तालोलुप अवसरवादियों  की स्वार्थसिद्धि का अड्डा बन गया था। गाँव में आए दिन रणवीर सेना तथा भूमिहीन सेना आमने सामने भिड़ने लगी । सुमेरसिंह तथा उनके जैसे अन्य लोग गाँव के बदले राजनीतिक हालात से दुःखी रहने लगे । 

उधर मुनिला ने सुमेरसिंह को समझाना चाहा कि नौकरानी तथा मालिक का यह संबंध ठीक नहीं । लेकिन सुमेरसिंह का मानना था कि अच्छा बुरा कुछ नहीं होता -

"जो अपने सामर्थ्य से अपने को मजबूत बनाए रखता है । लोग उसकी तारीफ करते है , और जो कमजोर पड़ता है उसकी आलोचना करते हैं ।"(पृ.सं. 36 ) 

 सुमेरसिंह मुनिला को भरोसा दिलाते हैं कि परिवारवाले उन्हें रोकने टोकने की हिम्मत नहीं करेंगे । उन्होंने अपना खेत खलिहान सबकुछ मुनिला के नाम लिखने का आश्वासन भी दिया । दोनों मर्यादा के बंधन को दरकिनार कर बाँध तोड़कर बहने वाली उफनती नदी बन चुके थे ।  मुनिला में शारीरिक परिवर्तन शुरू  हो चुका था । सुमेरसिंह को जिस बात का डर था आखिर वह सच ही निकला , मुनिला गर्भवती थी । सुमेरसिंह को लोकलाज की चिंता खाए जा रही थी । लोग क्या कहेंगे ! इस अधेड़ उम्र में ! उन्होंने मुनिला को समझाने बुझाने की कोशिश की , लेकिन मुनिला बच्चे को जन्म देने की जिद पर अड़ी रही । अड़े भी क्यों न ! आखिर यह उसका पहला बच्चा  जो था । इधर गाँव के लोगों ने पटना फोन पर सुमेरसिंह के बेटे बहू को सारी बातों की जानकारी दे दी । बेटा बहू रविवार को गाँव आने वाले थे, भय से सुमेरसिंह की हालत बिगड़ती जा रही थी । शनिवार की रात अचानक सुमेरसिंह की तबियत बहुत ज्यादा बिगड़ी । उनके सीने में तेज दर्द उठा, रात के एक बजे ह्रदयगति रुक जाने से सुमेरसिंह की मृत्यु हो गई । मुनिला को जैसे काठ मार गया | एक क्षण तो वह किंकर्तव्यविमूढ़ बनी रही । कुछ देर तक सुमेरसिंह के शरीर पर विलाप करने के बाद अचानक मुनिला ने तंद्रा से जागकर शिवबचन से कहा - " काका इस कायर के बच्चे को अब एक क्षण भी अपने पेट में नहीं रहने दूँगी । इसका बेटा बहू इसे डाँटने आ रहे थे , इस डर से यह मर गया । इस डरपोक का बच्चा हमें नहीं चाहिए । "(पृ.सं.296)   बदहवास सी दौड़ी मुनिला | उसके पीछे शिवबचन भी दौड़ा । सिलवट लोढ़े पर पेट के बल जा गिरी । मुनिला बेहोश हो चुकी थी , शिवबचन की निगाह मुनिला की साड़ी पर पड़ी । साड़ी खुन से रंगती जा रही थी ।  मुनिला का गर्भपात हो चुका था । सुबह होते हीं सुमेरसिंह के बेटे बहू भी आ पहूँचे । उन्होंने शिवबचन से पूछा - मुनिला कहाँ है ? शिवबचन ने कहा - उसका गर्भपात हो चुका है । बेटे बहू ने राहत की साँस ली । पुनः शिवबचन ने निवेदनपूर्वक कहा - बबुआ जिस जीप से मालिक को अंत्येष्टि के लिए लेकर जा रहे हो उसी जीप से मुनिला को शहर में डा. रजिया रेहान के अस्पताल में डाल देंगे| पता नहीं बेचारी बचेगी भी या नहीं ? शिवबचन काका की बात मानकर सुमेरसिंह के बेटे बहू ने मुनिला को अस्पताल पहुँचा दिया । 

यहाँ से मुनिला की जिंदगी की दूसरी पारी की शुरूआत होती है । मुनिला का अपना कहने वाला कोई आगे पीछे बचा नहीं था । उसे  जिंदगी से अब क्या चाहिए था ? दो जून की रोटी और छत, जो उसे डा.रजिया रेहान के यहाँ नौकरानी का काम करते हुए मिल चुकी थी । लेकिन यहाँ मुनिला ने जिंदगी की दर्दनाक सच्चाइयों का सामना किया । मुनिला ने देखा ने झुग्गी बस्तियों में रहने वाले लोग जिस डा. रजिया रेहान को भगवान समझते हैं, वह डाक्टर तो पैसों के हाथ मजबूर शैतान थी जिसका दीन, धर्म, ईमान पैसा-पैसा सिर्फ पैसा था, भले ही मरीज पैसे  के अभाव में दम क्यों न तोड़ दे । 

मुनिला का मन रजिया रेहान की बनावटी झुठी दुनिया से ऊब चुका था । अब वह वहाँ एक पल भी रुकना नहीं चाहती थी । लेकिन शहर में जिन - जिन घरों में मुनिला को काम करने का मौका मिला वहाँ कहीं दहेज के लिए लालची सास और ननद का बहू पर अत्याचार तो कहीं बेटी के हिस्से का प्यार बेटे को मिलते देखा । कहीं पाई - पाई के लिए तरसते हुए बूढ़े माँ-बाप देखने को मिले । शहर की इस झूठी शान - शौकत तथा मुखौटे -वाली दुनिया से मुनिला को नफरत हो चली थी । मुनिला को अपनी झोपड़पट्टी तथा छल प्रपंच से अछूते वहाँ के लोगों की याद आई । 

इसी क्रम में मुनिला को एक सरकारी अफसर के घर में काम करने का मौका मिला । बाहर से यह घर जितना सादा था अंदर से उतना हीं कुबेर का खजाना । घर की मालकिन हीरे जवाहरात से नख से शिख तक लदी रहती थी । इन लोगों का आस पड़ोस से कोई संबंध नहीं था । घर में नौकर के नाम पर सिर्फ दो लोग थे, एक लंगड़ा शामू, दूसरी मुनिला । घर के बाहर का काम मालिक का साला धीरज तथा रसोई का काम उसकी पत्नी देखती थी । एक दिन मालकिन के बीमार पड़ने पर जब मुनिला पौधों को पानी देने लगी तो उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं । सोने के बिस्कुटों से गमला भरा हुआ था । फिर उसने देखा , मालकिन के पुजा घर में आसन के नीचे गुप्त दरवाजा था । दरवाजा खोलने पर मुनिला की आँखें फटी की फटी रह  गई । उसने देखा , अंदर एक तहखाना है जो नोटों से भरा पड़ा है । अचानक एक दिन मालिक के घर में एंटी करप्शन वालों का छापा पड़ता है । धीरज जो स्वयं गुंडा बदमाश है सारा दोष शामू पर लगा देता है तथा रात में शामू को मार कर गायब कर देता है । जब मुनिला शामू के बारे में मालकिन तथा धीरज से पूछती है तो  दोनों गोलमटोल जबाव देते हैं । मुनिला का शक यकीन में बदल जाता है कि इन लोगों ने शामू की हत्या कर दी है । मुनिला ठान लेती है कि वह इन हत्यारों को नहीं छोड़ेगी और शामू को इंसाफ दिला कर रहेगी । 

 छापेमारी के समय मुनिला जनहित सेवा दल के गगन बिहारी का नाम सुन चुकी थी। मुनिला सीधे जनहित सेवा दल के आफिस पँहुचकर एस.के सिंह के घर में रखे गुप्त धन की जानकारी उन लोगों को देती है । गगन बिहारी विपक्षी दल के नेता थे । उन्हें पता था कि वर्तमान मुख्य्मंत्री के राजस्व मंत्री तथा उसके अधिकारी सरकारी खजाने का दुरुपयोग कर रहें हैं । लेकिन उनके हाथ में कोई ठोस सबुत नहीं था । मुनिला के रूप में सबूत  उनके हाथ लग चुका था । गगन बिहारी अवसरवादी राजनेता थे । वे इस अवसर को हाथ से जाने देना नहीं चाहते थे । उन्होंने पुलिस अधिकारियों का एक दल तथा मुनिला को लेकर स्वयं एस.के सिंह के घर पहुँच मुनिला द्वारा बताई गई जगहों पर छापेमारी की । एस.के सिंह के घर से बरामद संपत्ति देखकर सबकी आँखें फटी रह गईं । पुलिस के साथ मीडिया  भी था । मुनिला रातों रात स्टार बन चुकी थी । 

दूसरे  दिन सभी समाचार पत्रों के मुख्य पृष्ठ पर मुनिला छाई हुई थी । मुनिला अब अपने बस्ती लौट जाना चाहती थी । उसका काम खत्म हो चुका था । शामू की   हत्या का बदला वह ले चुकी थी । गगन बिहारी अच्छी तरह समझते थे । उनके हाथ हुक्म का इक्का लग चुका था । मुनिला झोपड़पट्टी से संबंधित थी तथा  दलित थी । गगन बिहारी को लगा, मुनिला उनके राजनीतिक भविष्य के लिए लंबी रेस का घोड़ा है । उन्होंने समझ बूझ कर पार्टी कार्यालय में मुनिला के रहने की व्यवस्था करवा दी । पार्टी कार्यकर्त्ता शारदा दीदी को मुनिला की देखभाल की जिम्मेदारी सौंप दी गई । अगले दिन सुबह पत्रकारों के साथ मुनिला का इंटरव्यू था । गगन बिहारी परेशान था कि पत्रकार कहीं मुनिला से कुछ उल्टा सीधा न पूछ बैठें । मुनिला ने गगन बिहारी को आश्वस्त किया- आप चिंता न करें । पत्रकारों के प्रश्नों का मुनिला को  पके नेताई अंदाज में एकदम सटीक जबाव देते देख पार्टी के लोग भौंचक्के रह गए । 

राजस्व तथा विभागीय अधिकारियों के इतने बड़े घोटाले का पर्दाफाश होने पर मुख्यमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा । चुनाव सामने था । गगन बिहारी मुनिला को हर चुनावी भाषण में पार्टी के एजेंडा को ध्यान में रखते हुए भाषण देने को कहते लेकिन निडर मुनिला वही बोलती जिसमें जनता की भलाई थी । गगन बिहारी तथा पार्टी के कार्यकर्त्ताओं  को यह बात नागवार  गुजरी|  उन्होंने मुनिला को समझाने को बहुत कोशिश की लेकिन मुनिला नहीं मानी । पार्टी छोड़ कर चले जाने के भय से उन्होंने मुनिला पर कोई कार्रवाई नही की । "गगन बिहारी यह अच्छी तरह समझ चूके थे कि राजनीति में उसीका महत्त्व सर्वोपरि होता है जिसके पास जनाधार हो ।"(पृ.सं. 495) अब यह जनाधार मुनिला के पास था  | अपने राजनीतिक जीवन में गगन बिहारी को पहली बार पछाड़ खानी पड़ी थी, वह भी एक मामूली सी महिला के हाथों ।

मुनिला को गगनबिहारी के संसदीय क्षेत्र बिसनपुरा में चुनावी सभा को संबोधित करना था । बिसनपुरा में चारों तरफ मुनिला जिंदाबाद के नारे लग रहे थे। संचालक महोदय सभी को मंच पर एक एक कर अपने विचार व्यक्त करने के लिए बुला रहे थे लेकिन भीड़ बार बार ’मुनिला को बुलाओ ’ की जिद पर अड़ी थी । सबसे अंत में जैसे ही मुनिला ने भीड़ को संबोधित करना शुरू  किया, भीड़ से ही दो गोलियाँ धाँय-धाँय करते हुए मुनिला की  छाती को भेद गईं। खून से लथपथ मुनिला वहीं ढेर हो चुकी थी। भीड़ नेतृत्व विहीन, हिंसक और बेकाबू हो चुकी थी। भीड़ ने माँग रखी- जब तक प्रधानमंत्री खुद नहीं आएँगे हम मुनिला का दाह संस्कार नहीं होने देंगे । मुनिला की जघन्य  हत्या से मुनिला के असली हमदर्द उद्विग्न और उद्वेलित थे । 

घटना को तीन दिन बीत चुके थे, प्रायः सभी अखबारों के मुख्य पृष्ठ का मुख्य विषय मुनिला की हत्या से संबंधित था । इसी बीच राज्य के एक प्रसिद्ध समाचार पत्र ने मुनिला अंक जारी कर उसके समग्र जीवन संघर्ष को जनता के सामने रखा; साथ ही हत्या का धमाकेदार खुलासा भी! इस खुलासे के अनुसार ’जनहित सेवा दल ’ के गगनबिहारी ने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर मुनिला की हत्या के लिए विपक्षी पार्टियों को कसूरवार ठहराते हुए इसे  ’ जघन्य अपराध और कायरतापूर्ण ’ कदम बताया तथा इसकी न्यायोचित जाँच की माँग की । दूसरी ओर विपक्षी पार्टियों ने भी प्रेस विज्ञप्ति जारी कर इस बात का खुलासा किया कि स्वयं गगनबिहारी ने मुनिला की हत्या कराई। मुनिला के जनाधार के समक्ष वे बौने हो चुके थे, अध्यक्ष और नेता का पद उनके हाथ से फिसलता दिखाई पड़ रहा था । उनके गलत  मुद्दों की सरेआम मुनिला धज्जियाँ उड़ा रही थी । वे चाह कर भी इसे रोक नहीं पा रहे थे। इस स्थिति  में सुनियोजित साजिश के तहत उन्होंने हीं उसकी हत्या कराई । गगन बिहारी के ऎसे घातक और छलपूर्ण कदम को विपक्षी पार्टियों ने ’लोकतंत्र की आत्मा के साथ बलात्कार ’ बताते हुए इस घटना की जाँच सी.बी.आई. से कराने की माँग की । इन दोनों खुलासों के अतिरिक्त एक तीसरा खुलासा भी कुछ समर्थकों ने किया । इस तीसरे खुलासे के अनुसार जेल से एस.के. सिंह और उनके साले धीरज ने सुपारी देकर मुनिला की हत्या कराई । 

इस प्रकार ’माटी कहे कुम्हार से ’ नायिका प्रधान उपन्यास है । कथाकार मिथिलेश्वर ने भारतीय समाज की किसी भी समस्या को अछूता नहीं छोड़ा है । उपन्यास की रेखांकित समस्या नारी संघर्ष और शोषण से बुनी हुई है । इसके अलावा ग्रामांचल की अन्य प्रमुख सामाजिक समस्याएँ भी द्र्ष्टव्य हैं  - जातपांत की समस्या ,अनैतिक संबंधों की समस्या और अंधविश्वास की समस्या । लेखक ने यह दर्शाया है मुनिला की कहानी समाज के प्रति नारी के विद्रोह की कहानी है । मुनिला बदलाव की छ्टपटाहट की प्रतीक है । जिस सत्ता को मुनिला वरण करने से इंकार करती है, वही सत्ता अंत में  उसका अमानवीय शोषण करते हुए उसकी बलि लेती है । 

’ माटी कहे कुम्हार से ’ में लेखक ने भारतीय लोकतंत्र की राजनीति का कच्चा चिट्ठा खोलकर रख दिया है । स्वातंत्र्योत्तर भारत में निरंतर राजनीतिक मूल्यों  के क्षरण और छल प्रपंच की राजनीति के प्रसार के यथार्थ को इस उपन्यास में प्रभावी अभिव्यक्ति मिली है।गँवई  भाव संवेदना के साथ  भोजपुरी मिश्रित भाषिक संरचना का दुर्लभ तालमेल उपन्यास को जीवंतता प्रदान करता है। उपन्यास का कैनवास इतना विस्तृत एंव व्यापक है कि इसे समकालीन भारतीय जीवन का आख्यान कहा जा सकता है । उपन्यास की नायिका  मुनिला का चरित्र सबसे अधिक प्रभावशाली, अद्भुत  एंव अविस्मरणीय है। लोक जीवन एंव लोक कथाओं से गहरा जुड़ाव इस उपन्यास की एक अन्यतम विशेषता है । इसमें तेजी से बदलते समय और समाज के गतिशील यथार्थ का चित्रण सफलतापूर्वक किया गया है । 

कुल मिलाकर इस उपन्यास में लेखक ने सामाजिक और राजनैतिक मुददों को उठाकर ज़मीनी समस्याओं का विवेचन विश्लेषण प्रस्तुत कर समाधान खोजने का प्रयास मुनिला जैसे सशक्त नारी पात्र के माध्यम से किया है ।यह अलग बात है कि प्रयास अपने परिणाम तक नहीं पहुँच पाया पर बदलाव के कुछ संकेत लेखक ने अवश्य प्रस्तुत किए हैं । साथ ही स्त्री विमर्श की दृष्टि से इस उपन्यास में जहाँ  एक ओर स्त्री के अनेकमुखी शोषण का अंकन है, वहीं उसकी आंतरिक ऊर्जा  के सकारात्मक प्रस्फुटन की भी अभिव्यक्ति है जिससे लेखक का स्त्री विषयक दृष्टिकोण स्पष्टतः उभरकर सामने आ सका है । स्त्री की सार्वजनिक भूमिका और उससे भयभीत राजनीति का द्वंद्व इस उपन्यास के स्त्री विमर्श की मौलिक उपलब्धि है ।
 

गणपति का आगमन

    जब से हम हैदराबादी हुए गणपति उत्सव मानों खुशियों का खजाना | खासकर अनुराग बाबू को यह त्योहार सबसे ज्यादा भाता है | अपने छुटपन में बप्पा क...