अद्वैत
दर्शन के टीकाकार पंडित वाचस्पति मिश्र और उनकी विदुषी पत्नी भामती के अलौकिक
प्रेम को शब्दों के रेशमी धागों से बुना है आदरणीय उषाकिरण दीदी ने ! धर्म और दर्शन
जैसे नीरस विषय भी सरस हो गया आपकी कलम से
| दसवीं सदी की मिथिला उसकी सामाजिक, सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक परिस्थतियों का
ऐसा अद्भुत वर्णन ऐसा प्रभावपूर्ण जीवंत लेखन कि पाठक स्वत: उस काल खंड में प्रवेश करने पर विवश हो जाता है | कलम का यही जादु लेखिका के प्रति पाठक को श्रद्दा से नतमस्तक करता है |
उपन्यास में सम्पूर्ण मिथिला का तत्कालीन समाज है | मिथिला का बौद्धिक उत्थान, स्त्री-स्वतंत्रता, पठन-पाठन, विवाह संस्कार में स्त्री की सहमति दसवीं सदी के समाज का जीवंत दर्शन तत्पश्चात
मिथिला के शिथिला होने का विवरण है | यह उपन्यास केवल मिथिला का ही नहीं वरन
सम्पूर्ण भारत के तत्कालीन राजनीतिक और ऐतिहासिक कालखंड का गवाह है .. स्त्री विमर्श
के पैरोकारों को इसे अवश्य पढना चाहिए ---
[" सौदामनी
जानती थी मूक-भाव से सेवा एक मैथिल पत्नी कर रही है , किन्तु पुस्तक पूर्ण हो उसकी कामना एक विदुषी पत्नी, अत्यंत विद्वान परिवार की पुत्री भामती करती है !,
देह-मन
के नेह-छोह के अभाव का विष पीती जो स्त्री थी वह विद्यमान थी किन्तु एक सशक्त
नारी का परिचय इन्हें तब मिला जब औषधि के माध्यम से वाचस्पति को अपनी तरफ इन्होंने उन्मुख
करने का विचार दिया था !
वह
पंडित को अवांतर रूप में विवश नहीं करना चाहती थी !
सौदामिनी
के सामने एक महान स्त्री मोहिनी, कामिनी न हो कर निर्मात्री हो गई ! कौन विश्वास करेगा
आने वाले युग में कि ऐसी नारी हुई जिसने लेखनी पकड़े बिना पुस्तक का निर्माण किया
था !"]-इसी पुस्तक से
उषाकिरण दीदी आपको प्रणाम और आपकी लेखनी को प्रणाम
भामती
तीन दिन में पूरी पढ़ी -- बस ये लगा अब तक क्यूँ नहीं पढ़ा इसे |
-अर्पणा दीप्ति
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