सोमवार, 14 अक्तूबर 2024

 कुछ  कारणवश ब्लाग को समय नहीं दे पा रहीं हूँ | पाठकगण  से करबद्ध क्षमा प्रार्थी हूँ  | नियमित पाठक मेरे वेबसाइट पर आलेख पढ़ सकते हैं | 

गोप्य प्रसंग







एक बार पार्वती ने पूछ ही लिया, "यह स्त्री कौन है जो आपके केशों में छिपी हुई है ?" और फिर तो वह अपनी शिक़ायत कहती ही गईं। "अर्धचन्द्र है।" शिव ने कहा जैसे उन्होंने पार्वती के शब्द सुने ही नहीं थे। वह कुछ और ही सोच रहे थे।

"अच्छा तो उस स्त्री का यह नाम है जो आपने अभी-अभी कहा। क्यों यही है न?" पार्वती ने व्यंग्य से कहा। भविष्य में हर नारी अपने प्रिय को इसी भाव से उलाहना देने वाली थी।
"तुम सब कुछ जानती हो।" शिव ने अन्यमनस्क स्वर में कहा।
"मैं चाँद के विषय में नहीं आपकी महिला मित्र के बारे में पूछ रही हूँ।" पार्वती ने क्रोधित हो कर कहा।
"अच्छा तो तुम अपनी सहेली की बात करना चाहती हो। लेकिन तुम्हारी सखी विजया तो अभी-अभी कहीं चली गई है। क्यों !" शिव ने कहा। पार्वती का क्रोध सीमाएँ लाँघ रहा था।
शिव और गंगा का मिलन दो चरम स्थितियों के रूप में हुआ था। धरती पर पहुँचने से पहले आकाश से उतरती गंगा उनके सिर पर गिर सकती थी - शिव ने इसकी अनुमति दे दी थी। अन्यथा धरती गंगा का वेग कभी सहन न कर पाती। और तभी से गंगा स्थिर बैठे शिव के सिर को सदा स्नान कराती आ रही हैं। अनेक धाराओं में बंटकर उनके मुखमंडल को धोती हुई गंगा ने अपने निरन्तर प्रवाहित जल की शीतलता से शिव का ताप शांत किया। इस सृष्टि को भस्मीभूत करने से रोका है। गंगा और शिव का यह परोपकारी और चिरनवीन सामंजस्य उनके बीच गोप्य प्रेम प्रसंग भी था। इसलिए पार्वती को सबसे अधिक ईर्ष्या यदि किसी से थी तो गंगा से। वह जब भी शिव के निकट आतीं तो सदा ही गंगाजल की बूँदों को शिव के चेहरे पर बहते, उसे स्पर्श करते देखतीं। शिव के रोम रोम में जैसे गंगा की गंध बस गई थी।

बस यूँ हीं

अर्पणा

सोमवार, 7 अक्तूबर 2024

श्रद्धांजली

 बीते 16 सितंबर को एम एस अम्मा यानी एम एस सुब्बुलक्ष्मीका 108वाँ जन्मदिन था। उनको भारत रत्न मिला है और जो भारतीय संगीत के क्षेत्र में पिछली सदी की ही नहीं अब तक की महान विभूतियों में एक हैं। उन पर फ़िल्म बनते बनते रह गई और हाल में ही अनु पार्थसारथी और विद्या बालन ने उनको एक फोटोग्राफिक ट्रिब्यूट दिया। उस ट्रिब्यूट को देखकर ही मन कितना अच्छा हुआ। काश! फ़िल्म भी बन पाती। मुझे एम एस अम्मा बहुत पसंद। शब्दों का संगीत उनके गले से ऐसे फूटता है कि हम उसमें बह जाते हैं।

आप चाहे तो विद्या बालन के के इंस्टाग्राम पर उस ट्रिब्यूट को देख सकते हैं।
सुंदर है इस लिए बता रही हूँ।



रविवार, 6 अक्तूबर 2024

सशक्त स्त्री विमर्श को दर्शाती ' THE IDEA OF YOU& A FAMILY AFFAIR'

 हाल की दो फ़िल्में: द आइडिया ऑफ यू (अमेज़न प्राइम, 2024) और ए फैमिली अफेयर (नेटफ्लिक्स 2024)

एक दोस्त ने कहा आजकल फिल्मों पर सिर्फ रिसाइकल पोस्ट आ रहे तो इसीलिए यह नया लिखा। ज़िक्र में आईं दोनों फिल्में कोई सर्वकालिक महान फ़िल्म नहीं है पर अच्छी चिक-फ्लिक्स या romcom हैं। मुझे तो अच्छी लगी। मेरी नज़र से देखना हो तो पढ़िए।
दो बैक-टू-बैक दो हॉलीवुड फिल्में देखी- "द आइडिया ऑफ यू" और "ए फैमिली अफेयर"
दोनों में क्रमशः 40 और 50 साल की स्त्रियों के प्रेम में 24 और 34 साल के पुरुषों को दिखाया गया है। पहली फ़िल्म में एन एक तलाक़शुदा स्त्री हैं और दूसरी में निकोल एक विधवा। हालांकि एन हैथवे और निकोल किडमैन आपकी रेगुलर प्रौढ़ स्त्रियाँ नहीं हैं। कायदे से वे प्रौढ़ कहे जाने लायक ही नहीं लेकिन उम्र एक नंबर है और समाज चाहे भारत का हो या विदेश का दोनों में अपने से सोलह साल छोटे आदमी को डेट करना बिल्कुल उचित नहीं माना जाता। दोनों फिल्मों में नायिकाओं की बड़ी हो चुकी बेटियाँ है- 16 और 24 साल की। पहली फ़िल्म में तो बेटी के जीवन की विसंगतियों को ध्यान में रख नायक-नायिका लंबा अंतराल तय करते हैं। हर जगह मातृत्व की प्राथमिक जिम्मेदारी स्त्रियों पर होती है। यही मुख्य कारण है कि ज्यादातर महिलाएँ प्रेम और रिश्तों में दोबारा प्रवेश नहीं कर पाती हैं। किशोर बेटी के सामने मां का ऐसा युवा पैशनेट प्रेमी थोड़ा असहज करता है। लेकिन दोनों ही फिल्मों में खास बात यही है कि पुरुष उन स्त्रियों के आगे अपने को खोल देते हैं, सहज महसूस करते हैं। दोनों पुरुष शो बिजनेस से आते हैं। उनकी सार्वजनिक ज़िंदगी है और उनको एक तरह से उथला ही समझा जाता है। उनकी छवियाँ हैं। दोनों स्त्रियाँ उन छवियों के जाल में नहीं हैं। वे उनकी फैन फॉलोइंग से परे उनको पोस्टर की शक्ल में जानती हैं पर पसंदगी से दूर हैं। यही बात उनको आकर्षित भी करती है और इसी से वे अपने से परे उन स्त्रियों के जादू में भी आ पाते हैं।
द आइडिया ऑफ यू में बेटी तो तत्काल मान जाती है और उसे खास दिलचस्पी है कि मां का प्रेमी फेमिनिस्ट है। पर फैमिली अफेयर में बिटिया को वक़्त लगता है। खैर! यह टीनएज या युवा बेटी और मां के स्ट्रगल की दास्तान नहीं है। यह फ़िल्में परिपक्व उम्र की स्त्री और युवा प्रेमी के लस्ट की भी कहानियाँ नहीं। आपको प्रेम में यकीन हो और उम्र की जगह मन से उनका ताल्लुक समझते हों तो ये फिल्में आपको अच्छी लगेगी। प्रेम, पूर्णता, इंतज़ार और खुद से ही उन्मुक्त होने की कहानियाँ हैं।
किसी को जब हम ज़रा सा जानते हैं तो और और जानने का मन होता है। दुनिया की नज़र में हम बहुत कुछ छवियों के भीतर कैद होते हैं और उसकी नज़रें एक दम पूर्वग्रह मुक्त होती हैं तो फिर ऐसा ही होता है जैसे इन दोनों फिल्मों के युवा नायकों के साथ होता है। प्रेम आँधी की तरह तो उड़ा ले जाता है पर यह पुरानी फिल्मों के बड़ी उम्र की स्त्रियों से प्रेम की पेचीदगियों से ज़रा हटकर है। मसलन इसमें प्रेम कोई सेफ गेम नहीं, छिपा लेने की मजबूरी नहीं। पर जैसा कि एन कहती है मुझे पता नहीं था कि मेरी थोड़ी सी खुशी से इतने लोगों को परेशानी होगी तो उसकी सहयोगी दुहराती है-मैंने तुमको पहले ही बताया था, दुनिया को खुश औरतें पसंद नहीं।
तो खुश औरतों की यह कहानियां हैं। मन हो तो देखिए।






गुरुवार, 3 अक्तूबर 2024

संवाद और संवेदनाओं " की रेसिपी "लंचबाक्स

 






पहली बात: इसे ‘लंचबॉक्स’ की समीक्षा कतई न समझें. यह तो बस उतनी भर बात है जो फिल्म देखने के बाद मेरे मन में आई.
अंतिम बात यानी कि महानगरीय आपाधापी में फंसे लोगों से निवेदन: इससे पहले कि ज़िंदगी उस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दे, जहाँ खुशियों का टिकट वाया भूटान लेना पड़े, कम-से-कम ‘लंचबॉक्स’ देख आईये.
अंदर की बात: दरअसल कोई भी फिल्म मेरे लिए मुख्यत: दृश्यों में पिरोयी गई एक कथा की तरह है. माध्यम और तकनीक की जानकारी रखते हुए किसी फिल्म का सूक्ष्म विश्लेषण एक अलग और विशिष्ट क्षेत्र है, जानती हूँ. फिर भी कुछ फ़िल्में ऐसी होती हैं, जिन्हें देख आप जो महसूस करते हैं उसे ज़ाहिर करने को बेताब रहते है. ऐसी ही एक फिल्म है ‘लंचबॉक्स’.
‘लंचबॉक्स’ में तीन मुख्य किरदार हैं- मि. साजन फर्नांडिस (इरफ़ान खान), इला (निमरत कौर) और शेख (नवाजुद्दीन सिद्दीकी). तीनों की तीन कहानियां हैं और ये मुख्य कथा में जीवन के प्रति अपना भिन्न दृष्टिकोण लेकर आते हैं. मि. फर्नांडिस अपने अकेलेपन में स्वनिर्वासन झेल रहे हैं. उम्मीद, हंसी और अपनत्व से रहित उनका जीवन डब्बे के बेस्वाद खाने की तरह है. जब वो दूसरी बार इला का भेजा लंचबॉक्स खा चिट्ठी का जवाब (The food was salty today)भेजते हैं तो यह जैसे उनके जीवन में नमक और लावण्य का प्रवेश है.
इला अपनी चिट्ठियों में मुखर और खुली हुई है क्योंकि “चिट्ठियों में तो कोई कुछ भी लिख सकता है.” आरम्भ से ही वह अपनी उदासी छिपाने की कोशिश नहीं करती. पति लंच सफाचट कर नहीं भेजता और उसे परवाह भी नहीं- यह बात पहली चिट्ठी में ही लिखने से नहीं झिझकती. अपनी ओर से वह पति के साथ संवाद बढ़ाने को प्रयासरत है. व्यवहार में आए ठंडेपन को मसालों के स्वाद से छूमंतर कर देना चाहती है. तभी तो रेडियो पर रोज़ नई रेसेपी सुनना, पूरे मनोयोग से लंच तैयार करना और देशपांडे आंटी से नुस्खे लेना उसकी कोशिशों में शामिल है. पर ये सब काम नहीं आता, बावजूद इसके कि आंटी मैजिक होने का भरोसा देती हैं.
शेख अनाथ है. उसकी जिजीविषा काबिले-तारीफ है. उसकी कहानी फिल्म को हंसी से सराबोर करती है, सहज बनाती है. लोकल ट्रेन में सब्जी काटने से लेकर नौकरी जाने के भय, मि. फर्नांडिस द्वारा बचाये जाने और उसके खिलंदड़े स्वभाव के लौटने के बीच हास्य के कई दृश्य हैं.
फिल्म का मेरा पहला पसंदीदा दृश्य है— मि. फर्नांडिस जब गलती से मिले सही डब्बे को खोलते हैं, डब्बा सर्विस के खाने से ऊब चुके व्यक्ति के नीरस जीवन में नई खुशबू, नया स्वाद आ जाता है. उनके पूरे शरीर में उत्सुकता की लहर दौड़ पड़ती है. बार-बार रोटियों को उलटते-पलटते वह चावल-सब्जी के डब्बों को सूंघते हैं. उनके चारों ओर देखिये तो सभी किसी-न-किसी के साथ बैठे हैं, पर वे अकेले हैं, निपट अकेले. इस अकेलेपन ने उनके स्वभाव को रुखा बना दिया है. मोहल्ले के बच्चों और सहकर्मियों से उनके व्यवहार को देख, उनके बारे में प्रचलित धारणाओं को जान हमें आभास हो जाता है कि मि. फर्नांडिस महानगरीय जीवन की एकरसता में डूबे एकाकीपन का प्रतिनिधि चरित्र है. वाकई सभी कहीं पहुँचने की ऐसी जिद्द में हैं कि अपने को ही खो देते हैं. जो इस भागमभाग में नहीं हैं, वे दूसरों की भाग-दौड़ में पीछे और अकेले छूट जाते हैं. इससे पहले कि हम बिलकुल अकेले पड़ जाएँ यह फिल्म मौका देती है ठहर कर सोचने का कि आखिर सारी भाग-दौड़ का हासिल क्या?
दूसरा दृश्य ठीक इसके बाद का है. इला डब्बे के लौटने के बेसब्र इंतजार में है और दरवाजे पर आहट पाते ही लपक कर डब्बा उठाती है. हिलाने-डुलाने से उसे लगता है कि आज तो चमत्कार हो गया. खोलकर देखने पर उमंग-उछाह से भर वह देशपांडे आंटी को बताने पहुँच जाती है कि आज डब्बा चाट-पोंछकर खाया गया है. आंटी भी चहककर जवाब देती हैं कि “मैंने कहा था न, ये नुस्खा काम करेगा.” पति के आने पर उससे कुछ सुनने की आस लगायी हुई इला निराश हो, खुद ही लंच के बारे में पूछती है. पति ‘अच्छा था’ का नपा-तुला जवाब देता है. नाप-तौल से वस्तु-विनिमय तो होता है, भाव-विनिमय नहीं होता. इला कुछ और सुनना चाहती है. बेरुखी को दरकिनार कर बात पगाने का फिर प्रयास करती है, बेपरवाह पति डब्बे में ‘आलू-गोभी’ होने की बात कह वहां से चला जाता है.
संवादहीनता का आलम यह है कि इला पति को बता भी नहीं पाती कि उसका बनाया लंचबॉक्स उसे मिला ही नहीं है. भारतीय समाज के बहुतेरे परिवारवादी, नैतिकतावादी यह कह सकते हैं कि देखो ‘बेचारा’ पति पत्नी और बच्चों के लिए इतनी मेहनत करता है, मुंहअँधेरे उठकर जाता है, देर रात को आता है और यह औरत बता भी नहीं रही कि उसकी गाढ़ी मेहनत की कमाई से बनाया लंच किसी और ने खाया होगा. अब ऐसी कमाई किस काम की कि परिवार से दो बातें करने भर की मोहलत ना हो! औरत तो कह भी रही है कि अब हमारे पास कितना कुछ है. सामान बढ़ाते जाने का क्या लाभ जब उसे भोगने का वक्त नहीं? पर ध्यान कौन देता है. परवाह किसको है घर में बंधी औरत का!
ऐसे पति को क्या सजा नहीं मिलनी चाहिए जिसे शादी के छह-सात साल बाद भी अपनी पत्नी के हाथ के बने खाने का स्वाद तक की पहचान नहीं? खैर, इस गफलत से ही सही, गलत ट्रेन के दो तनहा मुसाफिर सही तरीके से एक दूसरे की ज़िंदगी में शामिल हो जाते हैं. चिट्ठी पहले इला ही भेजती है. अपनेपन से भरी औपचारिक चिट्ठी कैसे लिखी जाती है, यह इला की पहली चिट्ठी से पता चलता है.
एक दृश्य है जिसमें शेख मि. फर्नांडिस के पास आकर कहता है कि “सब कहते हैं आप मुझे कभी नहीं सिखाएंगे. मैं अनाथ हूँ. बचपन से सब कुछ अपने-आप सीखा है. यह भी सीख लूँगा.” यहीं से वह दुर्गम किले से दिखनेवाले फर्नांडिस के जीवन में घुसपैठ कर लेता है. ट्रेन की उनकी यात्राएँ और ‘पसंदा’ खिलाने घर ले जाना सब एक क्रम में होता है. पहली बार जब शेख फर्नांडिस को घर बुलाता है तब लगता है कि यह काम निकालने की तरकीब है, लेकिन दफ्तर, लंचटाइम और रेलयात्रा के एक जैसे लगते कई दृश्यों से उन दोनों का एक सहज संबंध विकसित होता है. यह भी साफ़ हो जाता है कि शेख निश्छल स्वभाव का, लेकिन चतुर और आशावादी व्यक्ति है. आज की मतलबी दुनिया में ऐसे लोग कम ही है.
‘लंचबॉक्स’ में चार स्त्री किरदार हैं— इला, देशपांडे आंटी, इला की माँ और मि. फर्नांडिस की मर चुकी पत्नी. मि. फर्नांडिस की मृत पत्नी एक जीवित पात्र की तरह फिल्म में मौजूद है. एक पूरा दृश्य उसके साथ मि. फर्नांडिस के संबंध पर केंद्रित है. मरी हुई पत्नी से उन्हें जितना लगाव है, उतना इला के पति को उससे होता तो क्या बात थी! खैर, रात भर फर्नांडिस पत्नी के पसंदीदा रिकार्डेड वीडियो को देखते हैं और पुरानी साइकिल पर हाथ फेरते समय उसके हंसते हुए चेहरे के टीवी स्क्रीन पर उभरते प्रतिबिम्ब को अब याद करते हैं तो हमारे सामने उनके भावुक व्यक्तित्व की तहें खुल जाती हैं.
इला की माँ के साथ इला के दो दृश्य हैं और दोनों अद्भुत. पहला वह जिसमें पति के अफेयर के सुबहे से टूटी इला अपनी माँ के पास जाती है परन्तु वहां माँ की हालत देख चुप्प रह जाती है. ऐसी ही तो होती हैं बेटियां, अक्सरहाँ गम खा न रोने वालीं. दवा के लिए रुपयों की बात चलती है. टी.वी. बिकने और भाई का हवाला आने के बीच इला रुपयों से मदद की बात करती है. पीछे के दृश्य में हम देख चुके हैं कि पति उसे भाई का ताना दे चुका है और मदद करने की हालत में इला है नहीं. माँ जब मना करती है तो उसके चेहरे पर राहत का भाव आता है तभी माँ का जवाब बदल जाता है. उस क्षण बेटी होने की तकलीफ, मदद ना कर पाने की लाचारगी और जीवन के अनगिनत असमंजस इला के चेहरे पर एक साथ उभरते हैं. निमरत ने इस क्षण को इस खूबसूरती से अपने अभिनय में जिया है कि क्या कहें! पिता की मृत्यु के बाद माँ की गफलत, बेचैनी और भूख के बीच इला घर में मौजूद लोगों के बीच उसके व्यवहार को संतुलित करने की जद्दोजहद में है. माँ बेटे के साथ पैसे का भी अभाव झेलती औरत है, जिसके लिए मृत्यु राहत की बात है.
माँ के बरक्स देशपांडे आंटी जीवंत, उम्मीद का दामन न छोड़ने वाली औरत हैं. बरसों से उनके पति कोमा में हैं पर उन्हें ज़िन्दा रखने की ज़िद्द में जेनरेटर खरीदने से लेकर चलता पंखा साफ़ करने तक का हौसला वे रखती हैं. ‘ज़िंदगी हर हाल में खूबसूरत है’— यही झलकता है उनकी खनकती आवाज़ से. शेख और देशपांडे आंटी जैसे किरदार अगर नहीं होते तो यह प्रेमकथा बोझिल और उदास होती. उनके होने भर से फिल्म भावों की विविधता से भरी है.
इरफ़ान के हिस्से कई तनाव भरे, बेचैनी और व्याकुलता को झलकाने वाले दृश्य आए हैं जिन्हें उन्होंने बखूबी निभाया है. उन्हें इला के पत्र में एक बार आखिरी पंक्ति यह मिली कि ‘तो किसलिए जिए कोई.’ अगली सुबह ऑटोवाले से पता चलता है कि एक ऊँची इमारत से एक औरत अपनी बच्ची समेत कूद गई है. वह अपनी भयमिश्रित व्याकुलता में उसका नाम पूछते हैं. अब ऑटोवाले को भला नाम क्या पता? उस दिन जब तक ‘लंचबॉक्स’ नहीं आ जाता और आने पर उसमें से इला के हाथों की खुशबू नहीं पहचान लेते, मि. फर्नांडिस बेचैन रहते हैं. इसी तरह सिगरेट छोड़ने की कोशिश करते हुए भी.
आप कल्पना कीजिए, वह आदमी अपने मन के अंतिम कोने तक कितना अकेला होगा, उसे किसी की परवाह की कितनी भूख होगी, जो एक अपरिचित औरत के प्यार से कहने भर से अपनी बरसों पुरानी लत छोड़ने की कोशिश कर रहा है? फिर अपने से काफी छोटी उम्र की इला को देख उसके जीवन से बाहर चले जाने की कोशिश के बाद रिटायरमेंट ले नासिक की ट्रेन में बैठने पर सामने बैठे भविष्य को देख पैदा हुई वह बेचैनी, जिसमें वह डब्बा वालों के साथ इला का घर ढूंढने निकल पड़ते हैं.
फिल्म का सबसे भयावह दृश्य वह है जिसमें इला की कल्पनाशीलता एक दु:स्वप्न का रूप लेती है. रात में वह गहने उतारती है, बेटी को उठाती है, उसकी आँखों पर पट्टी बांधती है और छत की सीढियाँ चढ़ती है. यह होता नहीं, बस उस अनाम औरत की आत्महत्या के बाद के पत्र में लिखा जाता है और फर्नांडिस की आँखों के आगे एक दृश्य की तरह उभरता है. उफ्फ, माएं किस क्षण में अपने बच्चों समेत करती हैं आत्महत्याएं! कितनी बेबसी के बाद, अवसाद के उन्माद में लेती होंगी यह फैसला? सोचना भी दुष्कर है. इला कूदने भर के साहस की बात कहती है, लेकिन मेरे लिए वह अवस्था साहस, विवेक, समझ— सबसे परे चरम उन्माद की स्थिति है.
फिल्म ‘ओपन एंडेड’ है और ऐसी फिल्मों के साथ अच्छी और बुरी बात यही है कि आप अंत की कल्पना में खुश हो सकते हैं या खीझ सकते हैं. मैं जीवन में ट्रेजेडी को नहीं पसंद करती तो मेरे लिए यही अंत है कि तुकाराम को गाते हुए डब्बेवालों के साथ साजन फर्नांडिस इला के घर पहुँच जाते हैं और नासिक के बदले भूटान को निकल पड़ते हैं. उस भूटान को जहाँ हमारा रूपया भी पांच गुना अधिक मूल्य रखता है और खुशियाँ भी हमसे पांच गुना ज्यादा होती हैं. क्या कहते हैं, भूटान जाकर ही मिल सकती हैं खुशियाँ?
इस फिल्म में संवाद कम और छोटे हैं, पर इन छोटे संवादों के अर्थ और मर्म बड़े गहरे हैं. इला जब भूटान की बात लिखती है तब जवाब में मि. फर्नांडिस का सवाल आता है- “क्या मैं तुम्हारे साथ भूटान चल सकता हूँ?” इस एक सवाल से आत्मीयता से अनुराग तक की दूरी एक झटके में तय हो जाती है.
इस फिल्म में जो ज़ाहिर है वह सशक्त है और जो ज़ाहिर नहीं है वह बेहद मुखर है. याद कीजिये वह नि:संवाद दृश्य जब मि. फर्नांडिस किसी के सामने चिट्ठी देखना नहीं चाहते, पर खुद को रोक भी नहीं पाते. याद करिए उनके चेहरे का वह अबोला भाव जिसमें झिलमिल चमकता है उनका अत्यंत निजी गोपनीय आनंद, जिसे वे अपने भर में समेट लेना चाहते हैं. जो इला शुरुआत में देशपांडे आंटी से कहती है कि ‘मुझे ये सब ठीक नहीं लग रहा’, वही अपनी हंसी का राज छुपा लेती है. ‘साजन’ फिल्म के गाने का रहस्य तो बाद में खुलता है, बात हमें पहले समझ में आने लगती है. फर्नांडिस इला से मिलने पहुँचता है, उसको छुप कर देखता है. लेकिन इला की मुलाकात उससे नहीं होती. दोनों के बीच निकटता का संयोग फिल्म खत्म होने के बाद भी पक्के तौर पर नहीं घटित होता. फिर भी यह एक प्रेमकथा है. इससे पहले ‘स्लीपलेस इन सिएटल’ नामक एक रोमांटिक फिल्म मैंने देखी थी, जिसमें नायक-नायिका फिल्म के अंत में एक बार मिलते हैं पर फिल्म एक जबरदस्त प्रेमकथा है. पूरी फिल्म में मिसेज देशपांडे कहीं दिखतीं नहीं, लेकिन फिल्म में उनसे ज्यादा मुखर चरित्र भला कौन है, शेख को अगर भूल जाइये. मैं तो कहती हूँ कि संवाद और संवेदना की रेसिपी से तैयार इस ‘लंचबॉक्स’ का आस्वाद कभी भूलना संभव नहीं होगा.
~अर्पणा
(नोट: 2014 में लिखी गयी यह समीक्षा आज मेरे ईमेल में दिख गया )

बुधवार, 2 अक्तूबर 2024

HIS THREE DAUGHTER

 



इस इतवार आपको वक़्त हो और मन हो तो नेटफ्लिक्स पर एक फ़िल्म देखिए: "His Three Daughters"
फ़िल्म एक व्यक्ति की तीन बेटियों के बारे में है। फ़िल्म का अधिकांश फ्रेम उस व्यक्ति का अपार्टमेंट है जिसमें उसकी तीन बेटियाँ इसलिए इकट्ठा हैं कि उसका अंतिम समय है।
इससे अधिक क्या ही बताया जाए। किसी भी पल मृत्यु हो सकती है वाली आशंका से जूझते हुए आने वाले शोक के लिए खुद को तैयार करना और आपसी संबंधों की पड़ताल करती एक गहरी फ़िल्म है। बहनें जो साथ होते हुए साथ नहीं थीं। जो एक पिता की संतान नहीं होते हुए भी उसी की संतान थीं और जिनका व्यक्तित्व एक दूसरे से बेहद भिन्न था। आदमी जिसके लिए एक बेटी सच कहती है। उसने कुछ सनकी स्त्रियों से प्यार किया और कुछ सनकी बेटियों को बड़ा किया।
फ़िल्म शोक और रिश्तों के उलझाव के साथ स्नेह को जैसे रेखांकित करती है वह अद्भुत है। देखिए अगर आप अच्छी फिल्मों के शौकीन हैं।

इंस्टाग्राम पर मेरी एक पुरानी छात्रा ने इस फिल्म से संबंधित स्टोरी लगाई।
कल बुखार की अवस्था में मुझे लगा इससे बेहतर कुछ नहीं कर पाऊंगी कि एक अच्छी फिल्म देखूँ। देख कर लगा सबको बताना चाहिए)

शुक्रवार, 20 सितंबर 2024

प्राइड एण्ड प्रेजूडिस [2005] Pride and Prejudice

 

तकरीबन 15 दिन पहले NETFLIX पर अपनी इस पसंदीदा फिल्म को देख रही थी मैं , 19 साल पहले यह फिल्म बनी थी | आज भी उतनी ही बेहतरीन और शानदार |

हालाँकि जेन आस्टिन के इस उपन्यास पर अलग-अलग भाषाओँ में कई फिल्में बन चुकी हैं, धारावाहिक बन चुके हैं, लेकिन 2005 में आई ‘प्राइड एंड प्रेजुडिस’ फिल्म मेरी पहली पसंद है | क्योंकि औपन्यासिक कथा के वातावरण को पूरी तरह जीवंत करने वाली ऐसी सिनेमेटोग्राफी मुझे कम फिल्मों में ही नज़र आई है | इस फिल्म के दृश्य हमारे समक्ष कुछ ऐसे खुलते हैं मानो उपन्यास के पन्ने पलटे जा रहे हों | पहला ही दृश्य है- जिसमें लिज़ (कीरा नाइटली) एक किताब के पन्ने पलटते हुए बाहर से अपने घर में आती है | उस रास्ते और घर को देखते हुए हम उपन्यास में वर्णित समय, वर्ग और जीवन-शैली सबको सजीव साकार होते हुए देखते हैं | फिल्म के अंतिम क्षण का एक दृश्य है- लेडी कैथरीन द्वारा अपमानित लिज रात भर बैचैन और उनींद रहने के बाद भोर के झुटपुटे में बाहर निकलती है और दूर क्षितिज से सूरज के साथ एक बिम्ब उभरता है | लॉन्ग शॉट में मि. डार्सी (मैथ्यू मैक्फेडेन) उसकी ओर लम्बे डग भरते हुए दिखते हैं | उन्हें लिज की तरफ आते हुए देख उसके साथ दर्शक का दिल भी धड़कने लगे तो आश्चर्य नहीं! इस फिल्म में शायद ही कोई ऐसा दृश्य है जो अपना प्रभाव न छोड़ पाता हो | खैर, समूची फिल्म की नहीं, इसके एक खास दृश्य की बात करते हैं जो मुझे विशेष प्रिय है |

लिज़ अपनी नवविवाहित सहेली शार्लट के पास गई है जहाँ उसके होने की खबर पा कर मि. डार्सी भी आते हैं | कहानी से अपरिचित दर्शकों को यह महज संयोग लग सकता है. वहीं चर्च में डार्सी के करीबी फिट्ज़ विलियम से बातचीत के दौरान लिज़ को पता चलता है कि उसकी सबसे सुन्दर और प्यारी बहन जेन के टूटे हुए दिल के पीछे इसी शख्स का हाथ है जिसे वह अब नफ़रत जैसा कुछ करने लगी है. बावजूद इसके उसे समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर कोई ऐसा कैसे कर सकता है? प्रेम में डूबे दो लोगों को अलग करने वाले मि. डार्सी के प्रति अपने गुस्से, अपमान-बोध और जेन के दुखों का तीव्र स्मरण उसे ऐसे भावोद्वेग में डालता है कि वह चर्च से भागती है | एलिज़ाबेथ एक पुल के ऊपर दौड़ रही है, उसके भीतर के दाह को शांत करने के लिए ही मानो बाहर तेज़ बारिश हो रही है जिसमें भींगती हुई वह विशाल खम्भों और दीवारों वाले प्रांगण में पहुँच जाती है | दूर-दूर तक फैले हुए लम्बे पेड़ों से घिरी बारिश के कोमल सांवले अँधेरे के बीच, पानी से बेतरह तर-ब-तर लिज़ की आँखों से धारासार आंसू बह रहे हैं |मानो उसका संतप्त हृदय बरस रहा हो, तभी सामने दीखते हैं मि. डार्सी! उन्हें वहां देख लिज़ चौंकती है, और उसके साथ दर्शक भी |

मि. डार्सी के चेहरे पर कुछ अलग किस्म का रूमानी तनाव है; जैसे कोई किशोरवय लड़का पहली बार प्रेम-निवेदन करने को प्रस्तुत हो | गहन आत्म-संघर्ष के बाद वह कह पाता है कि उसके इस जगह पर आने का मूल कारण एलिज़ाबेथ का वहां मौजूद होना है | मि.डार्सी का कहना है कि वह लिज़ के जादू में बिंध कर यहाँ आए हैं , फिर भी अपने भावों को बयां करना बेहद मुश्किल है | बहुत कोशिश करने पर जिन शब्दों को वह कह पा रहा है, उन्हें सुन कोई भी स्वाभिमानी स्त्री उसके प्रेम निवेदन को स्वीकार नहीं करेगी | जबकि लिज़ तो पहले ही भरी पड़ी थी अपमान-बोध और वेदना से | जब वह उसके निम्न स्तर और अपने उदीप्त प्रेम की बात करता है, फिर उसके परिवार की निम्नता के बाद भी विवाह के प्रस्ताव की उदारता दिखाता है तब लिज़ एक ठंढी साफगोई और चुभती हुई व्यंग्य कुशलता से उसे मना कर देती है |

भावात्मक तनाव के इस दृश्य में एक-दूसरे पर कर रहे कठोर व्यंग्य-प्रहारों के परे हमें प्रेम के पाश में बंधे एक जैसे दो लोग दिखाई देते हैं. दोनों बहुत हद तक एक जैसे अक्खड़ और स्वाभिमानी हैं. यह स्त्रियोचित मान नहीं, बल्कि व्यक्ति की गरिमा और अपने स्वतंत्र अस्तित्व का प्रदर्शन है | उनके नाटकीय साक्षात्कार की निकटता जो , दर्शक के मन के ऊपर दो छाप छोडती है- मि. डार्सी का वाकई सज्जन होना | कीरा और मैथ्यू ने वाकई जेन के एलिज़ाबेथ और मि. डार्सी को सजीव कर दिया है | बेहतरीन सिनेमेटोग्राफी शानदार अभिनय , उम्दा संवाद एवं पटकथा ने फिल्म को आज भी उतना ही सजीव बनाए रखा है जितना की 19  साल पहले |

अर्पणा दीप्ति




 

 

 कुछ  कारणवश ब्लाग को समय नहीं दे पा रहीं हूँ | पाठकगण  से करबद्ध क्षमा प्रार्थी हूँ  | नियमित पाठक मेरे वेबसाइट पर आलेख पढ़ सकते हैं |